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गुरुवार, 13 अगस्त 2020

शौर्य का स्मारक

भारत की रज का कण-कण भी  भारत माता की जय बोलता हैं जिसका साक्षात उदाहरण भोपाल में नवनिर्मित शौर्य स्मारक हैं । शौर्य स्मारक भारत  के उन सपूतों के लिए हैं जिन्होंने अपने प्राण भारत की आन, बान और शान की बलि वेदी पर न्यौछावर कर दिये । शौर्य स्मारक का निर्माण केवल सैनिक का जीवन दिखाने के लिए नहीं है बल्कि यह आमजन को भी जोडता हैं ।
                            शौर्य स्मारक का निर्माण अरेरा हिल्स पर किया गया है, जिसकी लागत लगभग41करोड़ हैं जो लगभग 13 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है । यह स्मारक भारत का एकमात्र सैनिकों को समर्पित स्मारक है । इस स्मारक में कई संरचनायें  हैं जो अदभुत एवम्  अद्वितीय हैं ।
                 सबसे पहले मुख्य प्रवेश द्वार के बायें ओर खुला रंगमंच तथा कैफ़ेटेरिया है तथा दाईं ओर मुख्य संरचना हैं । मुख्य संरचना में  सर्वप्रथम शौर्य वीथी में प्रवेश करते हैं,जिसकी शुरूआत एक गैलरी से होती हैं ,जिसके एक ओर दीवार पर भारत का इतिहास है जो हमें  महाभारत काल से लेकर आजादी  प्राप्त होने तक के दर्शन करा रही है तथा दूसरी ओर की दीवार पर राष्ट्रभक्ति की कवितायें पढ़ने मिलती हैं  । शौर्य वीथी में आगे जाने पर हमें अपने ध्वज का स्वरूप देखने मिलता है कि कैसे और कितने बदलाव आये जिनकी प्रदर्शनी देखने योग्य हैं । तीनों सेनाओं के प्रमुख अर्थात भारत के प्रथम व्यक्ति राष्ट्रपति के  चित्रों की प्रदर्शनी शोभायमान हैं जिसमें डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी है । थोड़ा आगे बढ़ने पर तीनों सेनाओं नौसेना, थलसेना और वायुसेना  तीनों के प्रमुखों के चित्रों की प्रदर्शनी लगी है ।
                         शौर्य वीथी में रणक्षेत्र को भी दर्शाया गया है जहाँ आसमान में हेलीकाप्टर और लड़ाकू विमानों को उडते हुए दिखाया गया है, वही रेगिस्तान में टैंको को अभ्यास करता दिखाया गया और समुद्र में जहाजों और एयरक्राफ्ट कैरियर को रणक्षेत्र में तरते हुए दिखाया गया है । शौर्य वीथी में शून्य डिग्री रूम भी है जो हमें सियाचिन में सैनिकों के योगदान को ध्यान दिलाता है । शौर्य वीथी में सबसे अनोखी बात यह थी कि मध्यप्रदेश के शहीद जवानो के गाँवों से मिट्टी को एक पात्र में इकटठा किया गया है जिसके कण - कण को शहीद के समान माना गया है ।
                          शौर्य वीथी से बाहर आने पर हम जीवन(LIFE) नामक संरचना में प्रवेश करते है, जिसका वातावरण बेहद ही शांत है । यह संरचना चौकोर बनी हुई है जिसमें चारों ओर सीढ़ियां बनी हुई हैं जो जीवन उतार -चढ़ाव को दर्शाती हैं । हरी घास सुख के पलो को और बहता हुआ जल सदैव आगे बढ़ने का मार्ग दिखलाता है । इसी प्रकार का जीवन सैनिक का भी है और आमजन का भी ।
                                     जीवन(LIFE) नामक संरचना से आगे बढ़ने पर युद्ध का मंच ( THEATRE OF WAR ) नामक संरचना आती है जोकि सैनिकों के जीवन में आई शत्रु चुनौतियों को दिखलाता हैं । इस संरचना को गोलाकार बनाया गया है तथा प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग किया गया है । इस संरचना में लाल प्रकाश का प्रयोग किया गया है जो युद्ध की विभीषिका को प्रदर्शित करता हैं ।
                                           युद्ध पर विजय पाने वालों को बहादुर तथा युद्ध करते - करते प्राण न्यौछावर करने वाले को शहीद कहा जाता है, इसी से जुड़ी है अगली संरचना जिसका नाम है मृत्यु (DEATH ) । मृत्यु सभी व्यक्तियों की अंतिम सीढ़ी है । मृत्यु पर विजय वही व्यक्ति पा सकता है जिसने देश के लिए कुछ किया हो जैसे सैनिक इनका जीवन मृत्यु पर विजय पा लेता है जिसे संरचना के माध्यम से दर्शाया जिसमें जलता हुई ट्यूब को आकाश की ओर दिखाया गया ।
       शौर्य स्मारक में इन संरचनाओं के अलावा बगीचा भी जिसमें भाँति -भाँति के पेड़ पौधे हैं । एक स्मारक है जिसे एक ओर से देखने पर रक्त की बूँद तथा दूसरी ओर से देखने पर बंदर दिखाई देता है । गुलाबों के बगीचे से होकर आगे जाने पर सामने आता है 62 फुट लंबा स्मारक जिसके आधार पर पानी भरा हुआ है जिसे नौसेना की संज्ञा दी गई है । काले ग्रेनाइट को थलसेना तथा सफेद ग्रेनाइट को वायुसेना की संज्ञा दी गई है । स्मारक के बिल्कुल सामने अमर जवान ज्योति जल रही हैं जिसे  अत्याधुनिक तकनीक होलोग्राफिक से जलाया जा रहा है । स्मारक के बाई ओर उल्टी बंदूकों पर टोपियाँ रखी हुई हैं तथा दाई ओर बूट और पीछे ग्लास प्लास्क पर मध्यप्रदेश के शहीद जवानों के नाम लिखें हुए हैं ।
                      यहीं  हैं हमारा पहला शौर्य स्मारक ।

जीवन और सिध्दांत

कहा से शुरू करूँ , ठीक है समाज में विषमतायें विद्यमान हैं परंतु व्यक्ति दूसरो की भावनाओ को भी तो समझें । जीवन में मोड़ अनेक हैं जिन्हें सकारात्मक लेना हमारी जिम्मेदारी हैं और उसे रचनात्मक कार्यो में परिणित करना और अधिक जरूरी है क्योकिं केवल सकारात्मक सोच से सारी उपलब्धियों को प्राप्त करना आसान नहीं हैं।
    व्यक्ति विशेष के अपने सिध्दांत होते हैं और वह जहाँ तक संभव हो सके तो निभाने की कोशिश करता हैं , परंतु आज व्यक्ति अपने आप को समझाने की जगह वह दूसरों पर अपने विचार थोपनें , सिध्दांतों को लादने और अपने आप को सामने वाले से अधिक श्रेष्ठ जताने की
कोशिश करता हैं ।
                      बड़ो का सम्मान करना अति आवश्यक हैं क्योंकि वे घर की शान होते हैं । बड़े बूढ़ो के आदर्श ,नियम - कायदे ,आचार- विचार, व्यवहार करने के तरीके होते हैं । इसलिए कहा भी गया हैं कि -

अभिवादन शीलस्य नित्यम् वृध्दोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्ध्दन्ते आर्युविद्यायशोबलम्।।

अर्थात् बड़ो का आशीर्वाद प्राप्त करने से आयु ,विद्या ,यश और बल में वृध्दि होती हैं । बड़ो से कुछ न कुछ हमेशा सीखने के लिए मिलता हैं ।
जीवन के मूल्य को हम उन्हीं से सीख सकते है जो हमारे मार्गदर्शक हो अर्थात् हमारे बडे़ । संस्कार भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते हैं जिसमें बड़े बूढ़ो का विशेष योगदान होता हैं ।
अनुशासन कभी भी विरासत में नहीं मिलता परंतु उसे सिखाया या पालन करवाया जा सकता हैं ।जीवन में  संस्कार एवं अनुशासन दोनों का महत्व है पर हमारे अग्रजो के बिना संभव नहीं है ।
           बड़ो का कार्य प्रमुखता से मार्गदर्शन हैजो वे करते है पर कभी कभी अति मार्गदर्शन भी गंभीर होता हैं क्योकि व्यक्ति अपनी शक्तियों को भूलकर केवल दिखाये गये मार्ग पर चलता है और अपने प्रयासों को करना भूल जाता है । सिध्दांतो का प्रयोग आजकल हथियार के रूप में किया जानें लगा हैं ।अपनी बात को मनवाने के लिए सिध्दांतो का हवाला दिया जाता हैं।
                                                   
"जीवन एक नदी हैं ,जो सदैव आगे बढ़ता हैं।"

धूप

धूप सहारा देती है, धूप किनारा देती है |
अविरल निर्झर झरने सी धूप सुहानी गिरती है |
मानव को मानवता के लिए सदैव अग्रसर करती है|धूप सहारा.....

तिमिर को भक्ष लेती है,दीपक को धन्यवाद करती है|
महान मानव निश्चिंत भाव से निज कर्म को पूर्ण करते है| क्योकिं धूप सहारा....

धूप का अपना स्व नहीं हैं ,परोपकार हैऔर ध्येय यही हैं|
जीवन में आशा भरती हैं, निराशा दूर करती हैं| क्योंकि धूप सहारा....

चलते - चलते ( श्रृंखला 5 )

यायावरी का अपना ही मजा होता है , कहाँ जाना है ? क्या करना हैं ? कुछ जानकारी नहीं होती हैं । रास्ता चाहे धूल से भरा हो , चाहे उबड़ खाबड़ , चाहे चिकना सपाट हो , बस चलते जाना है । चाहे बारिश का मौसम हो या बादलों से घिरा आसमां , बस घूमना ही उद्देश्य होता है । दोस्तों का साथ हो या ना हो बस घूमना ,घूमना , घूमना ....
                                    जब दोस्त भी यायावर मिल जाये तो फिर क्या पता काफिला कहा रुकेगा , किसी को भी नहीं पता । मनोरंजन , अल्हडपन , रोमांच , मौज - मजा , मस्ती सब कुछ होता है । यहां ज्ञान की बात करना मना होता है क्योकि ज्ञान यायावरी में दाल में कंकड़ की तरह होता है । चाय की चुस्की हो या पेटीस का स्वाद सब कुछ निराला लगता । बारिश की बौछार किसानों से लेकर सरकार तक को खुश कर देती है और यायावरों के लिए तो मानो सोने पर सुहागा हो ।
                                                              जिंदगी एक यात्रा की तरह है जिसमें सदैव चलते जाना ही काम है रुके तो समझो कुछ खो दिया । यायावरी भी कोह-ए- फिजा से शुरु होती हैं और दिलखुशाबाग होते हुए अशोका गार्डन पहुँच जाती है । मैं जिस यायावरी की बात कर रहा हूँ उसमें सिद्धार्थ , इंद्रभूषण और विनय शामिल हैं । जाना कहां है ? किसी को कुछ नहीं पता ,  केवल तीनों इतना जानते हैं कि घूमना है । सफर की शुरुआत एमपी नगर की चाय से होते हुए बड़ी झील के किनारे - किनारे चलते हुए वन विहार पहुंच जाती है। वन विहार के गेट पर ताले को देखकर हमें पता चल गया कि हमारी ठौर यहां नहीं है , अभी और उड़ना है ।
                                                                जाना था डीबी मॉल और हो लिये भोजपुर मंदिर के लिए । माता मंदिर होते हुए हमारा काफिला होशंगाबाद रोड़ पर चलता गया ग्यारह मील होते हुए चौराहे पर जाकर अटक गया मतलब प्लान चेंज । अब चले हम भीमबेटिका की ओर । मंडीदीप की धुंआ उगलती चिमनियों को पीछे छोड़ते हुए हम औबेदुल्लागंज होते हुए भीमबेटिका रॉक शेल्टर पहुंचे । यहां पहुंचने पर पता चला कि गेट बंद हो चुके है मतलब शटर डाउन । यहां आने पर पता चला कि बाघ नामक जीव होता है जिसे देखने पर इंसान भागता है इसलिए हमने " भागों बाघ आया " नारा बना दिया ।
                                       यायावरों का सफर इतनी जल्दी कैसे खत्म हो सकता है , हमने तय किया कि हम भोजपुर चलेगें । औबेदुल्लागंज होते हुए गौहरगंज के रास्ते हमारा सफर मुरुम और अधबनी सड़क पर चलते हुए हम भोजपुर जा पहुंचे। यहां अँधेरी रात उतनी ही भयावह लग रही थी जितना की सपने में ऊँचाई से गिरना । भले ही यायावर कही रुके या नहीं परंतु काफिला थोड़ा विराम तो लेता ही है और रचना नगर में डिनर के बाद प्रभात चौराहे पर अलविदा हुए कि फिर मिलते है । 

              यही तो यायावरी है ।                     
         

पुस्तक समीक्षा : मैं भारत हूं

        


        सप्त सुरों का बहता सरगम
                           पाञ्चजन्य का घोष हूं।
        अखिल विश्व का कल्याण करती
                          मां भगवतगीता का उद्घोष हूं।
         मैं भारत हूं , भाग्य विधाता हूं।।

यह पंक्तियां है "मैं भारत हूं" नामक काव्य संग्रह की है। इस कविता संग्रह को लोकेन्द्र सिंह जी ने लिखा है। प्रकाशन का कार्य संदर्भ प्रकाशन ने किया है। यह काव्य संग्रह केवल कविताओं का ही नहीं बल्कि भावनाओं, संवेदनाओं और अभिव्यक्ति का भी संग्रह है। कुल 42 कविताओं को इस संग्रह में शामिल किया गया है। इस काव्य संग्रह में विभिन्न मुद्दों पर लिखी कविताओं का संकलन है।

देशभक्ति,जनचेतना, देश प्रेम जैसे विषयों पर भी कविताओं को प्रमुखता दी गई हैं। कुछ विषयों पर यहां उदाहरण प्रस्तुत है। महान भारत के बारे में एक सुंदर कविता लिखी है जिसकी कुछ यहां पंक्तियां प्रस्तुत है:-

नक्सलवाद से छलनी/देखा है ह्रदय उसका
स्वसंतान के कारण उठे प्रश्नों में उलझते देखा है।
फिर भी, प्रति क्षण उसकी चमकती आंखों में
विश्व गुरु बनने का सपना भी देखा है
परम पूजनीयता के साथ
देखा है उसे प्रशस्त कर्मपथ पर बढ़ते हुए।

देह को झकझोर देने वाली देशभक्ति परक कविता के अलावा कवि ने सामाजिक ताने-बाने पर भी कविता लिखी है जिसमें मां पर लिखी कविता के अंश यहां लिख रहा हूं:-

लुका-छिपी के खेल में
जब तू छिप जाती है।
हवा में घुली तेरी खुशबू
मुझको तेरा पता बताती है।
मां तू जादू की पुड़िया है।
तेरा प्यार सबसे बढ़िया है।

मां जैसे मार्मिक विषय पर कविता लिखने के अलावा कवि ने अपने काव्य संग्रह में सामाजिक अन्याय जैसे भ्रूण हत्या पर भी कविता को शामिल किया है। जिसके अंश यहां प्रस्तुत है:-

सृष्टि की निरंतरता हेतु रणचण्डी बनकर
काल के क्रूर पंजों से मां मुझे बचा लो।

कवि ने यहां समाज में हो रहे अन्याय को उजगार करने की कोशिश की है जो कविता के माध्यम से साफ-साफ झलकता है। ऐसा कम ही होता है कि कोई अपने काव्य संग्रह में पिता को जगह दे लेकिन इस संग्रह में पिता जगह प्राप्त करने में सफल रहे है। पिता विषय पर कविता के कुछ भाग प्रस्तुत है:-

पिता पेड़ है बरगद का
सुकून मिलता है उसकी
छांव में
मुसीबत की भले बारिश हो
कोई डर नहीं , वो छत है
घर में।

पिता के अलावा इस कविता संग्रह में विभिन्न विषयों पर आधारित कविताओं का संग्रह है। सामाजिक बुराई जैसे भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दों पर भी कविता लिखी है। गांव से लेकर शहर तक , रिश्तों से लेकर दोस्ती तक हर विषय पर कविता लिखकर अपने विचार प्रस्तुत किए है। चाहे प्रकृति हो या भारत माता का वर्णन करना हो सभी नपे-तुले शब्दों में कविता के माध्यम से वर्णन किया गया है।

काव्य संग्रह की भाषा की बात करें तो भाषा सरल,सहज है। कविता को सूक्ष्मता के साथ परोसा गया है। कविता की तारतम्यता बनी रहती है जो कि पाठक को आनंद प्रदान करती है। इस संग्रह में हिंदी के अलावा उर्दू, देशज, इंग्लिश आदि शब्दों को आसानी से पढ़ा जा सकता है। कही-कही कठिन शब्दों का प्रयोग किया गया है परंतु शब्दों को समझने में कोई कठिनाई नहीं आती है। वीर,करुण,रौद्र,वात्सल्य आदि रसों को प्रधानता दी गई है।

सभी विषयों को एक माला में पिरोता हुआ यह काव्य संग्रह बहुत ही आनंददायक है । एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।

📃BY_vinaykushwaha


वैशाली


26 जनवरी 2018 को भारत अपना 69 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। गणतंत्र दिवस का यह त्यौहार 25 जनवरी की शाम राष्ट्रपति का देश के नाम संबोधन से शुरु होकर 26 जनवरी को राजपथ की परेड से होता हुआ 28 जनवरी की शाम विजय चौक पर बीटिंग द रिट्रीट के माध्यम से खत्म होता है। गणतंत्र दिवस एक राष्ट्रीय दिवस है जिसे हम बड़ी धूमधाम से मनाते है। यह गणतंत्र दिवस हमें यह याद दिलाता है कि हम भारत गणराज्य के नागरिक है।

किसी भी राष्ट्र की शासन एवं प्रशासन व्यवस्था चलाने के लिए उस राष्ट्र को एक पद्धति अपनानी पड़ती है। जो पद्धति हिटलर ने जर्मनी में अपनाई थी वो है तानाशाही। ऐसी राज्य व्यवस्था जहां केवल एक ही व्यक्ति की सत्ता कायम रहे उसे सर्वसत्तावाद (Totalitarianism) कहते है जिसमें हमें जोसेफ स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी जैसे शासक ध्यान में आते हैं। संघीय व्यवस्था(federalism) जिसमें राज्यों से मिलकर संघ या देश का निर्माण होता है जैसे संयुक्त राष्ट्र अमेरिका(USA)। जहां किसी देश में वहां के नागरिकों द्वारा देश की सरकार चुनी जाती है तो उसे लोकतंत्र (democracy) कहते है जैसे भारत। कई ऐसे देश भी है जहां लोकतंत्र तो है परंतु गणतंत्र नहीं है अर्थात् देश का आम नागरिक चुनाव के माध्यम से देश की सर्वोच्च पद को प्राप्त नहीं करता है। जैसे इंग्लैण्ड , यहां सर्वोच्च पद पर राजशाही परिवार का कोई व्यक्ति होता है। कई ऐसे देश भी है जहां एक ही परिवार के सदस्य मिलकर देश की शासन व्यवस्था को संभालते है इसे राजतंत्र (monarchy) कहते है। यह राजतंत्र व्यवस्था सउदी अरेबिया,कुवैत,ब्रुनई,कतर आदि देश है।

लोकतंत्र(democracy) एक ऐसा तंत्र है जिसमें देश के नागरिक देश की सरकार को चुनते है। लोकतंत्र एक प्राचीन व्यवस्था से आया है राजतंत्र जिसकी प्राथमिक सीढ़ी थी। लोकतंत्र कई प्रकार से होता है दो पार्टी या मल्टीपार्टी सिस्टम। केन्द्र सरकार का अलग चुनाव और राज्य सरकार का अलग चुनाव। कई ऐसे भी देश होते है जहां एक पार्टी पद्धति(single party system) है, जैसे चीन। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य (democratic republic) है। भारत के अलावा अमेरिका आदि देश है। 26 जनवरी 1950 को भारत को गणराज्य के रुप में स्वीकारा गया। लेकिन आज से लगभग 3500 वर्ष पूर्व जब महाजनपद व्यवस्था थी। तब वज्जि महाजनपद में गणशासन व्यवस्था थी।

सोलह महाजनपद के समय वज्जि एक शक्तिशाली महाजनपद था। यह आज के समय में देखा जाए तो बिहार का हाजीपुर, वैशाली जिले आदि वाला भाग है। वैशाली को दुनिया का सबसे पुराना गणराज्य कहा जाता है। यहां जो राजा चुना जाता था उसे जनता में से ही चुना जाता था। वैशाली नगर वासियों का एक अहम योगदान था सरकार चुनने में। वैशाली , वज्जि महाजनपद की राजधानी थी। यह मात्र राजधानी ही नहीं बल्कि सत्ता का केन्द्र बिंदु था। ज्ञात स्त्रोतों के अनुसार वैशाली में लगभग 7707 सांसद चुने जाते थे जो कि अपना मुख्य सर्वेसर्वा चुनते थे। दुनिया का सबसे पुराना गणराज्य यदि भारत को कहा जाए तो इसमें कोई बहस नहीं होना चाहिए।

                          ।।जय हिंद।।

📃BY_vinaykushwaha


चलते-चलते (श्रृंखला 9)


तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद पेशवाओं को निष्कासित होकर बिठुर जाना पड़ा। महाराष्ट्र से उत्तर भारत जाना उनकी इच्छा नहीं थी बल्कि उन्हें मजबूरी में ऐसा करना पड़ा। पेशवाओं की इस हालत के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि आपसी सामंजस्य न होना था। बडौदा में गायकवाड़, महेश्वर और इंदौर में होलकर, नागपुर में भोंसले और ग्वालियर में सिंधिया का अलग होकर शासन चलाना ही था। शासन चलाना तो ठीक था लेकिन अंग्रेजों की नीतियों का समर्थन करना साथ ही उनकी गलत नीतियों और कार्यों का जमकर समर्थन भी किया गया।होलकर,सिंधिया,भोंसले और गायकवाड़ में कुछ राजा या रानी तो बहुत अच्छे हुए जिन्होंने जनता के हित और देश को सर्वोपरि समझा। तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध , कई युद्धों का परिणाम था। जिनमें से एक युद्ध था 'भीमा-कोरेगांव युद्ध'।

भीमा-कोरेगांव युद्ध भीमा नदी के तट  पर हुआ बहुत ही छोटा युद्ध था। यह युद्ध अंग्रेजों और पेशवाओं के बीच हुआ था जबकि यह अधूरा सत्य है। अंग्रेजों के तरफ से यह युद्ध महार जाति की ओर से लड़ा गया और पेशवाओं की ओर से अरबी लड़ाकों ने इस युद्ध को लड़ा। इतिहासकार यह कहते है कि इस युद्ध में अंग्रेजों की विजय हुई और आज तक इसी बात को सत्य माना जाता है। इसी विजय के उपलक्ष्य में महार जाति के लोग मराठाओं पर अपनी विजय को शान के रुप में दिखाते और प्रत्येक वर्ष सालगिरह के रुप में मनाते हैं।

मैं नहीं मानता कि भीमा-कोरेगांव युद्ध अंग्रेजों ने जीता था जिसके पीछे एक अंग्रेज अफसर का कथन बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। माउंटस्टुआर्ट एलफिंस्टन ने इस युद्ध के बारे में कहा कि यह मराठाओं की अंग्रेजी शासन के विरुद्ध छोटी-सी जीत है। इस कथन का क्या पर्याय निकाला जा सकता है। जब कोरेगांव का युद्ध हुआ तब पेशवाओं के ओर 5000 सैनिकों और एक तोप ने हिस्सा लिया जबकि अंग्रेजों के ओर से 700 सैनिकों और 5 तोपों ने हिस्सा लिया। यह आंकड़ा गलत भी है या सही भी  है क्योंकि इसका सही-सही आंकड़ा तत्कालीन ब्रिटिश गजेटियर में भी नहीं है।

एक बात है जिसमें अंग्रेज हुकूमत सफल हो गई वह यह कि उन्होंने निम्न जाति के लोगों को रियायत और शह देकर महार और मराठो के बीच विद्रोह करा दिया। यह बात अलग है कि मराठाओं ने महारों के साथ सभ्य व्यवहार नहीं किया। महार जाति के लोग जब बाजार में निकलते थे तो कमर पर झाडू और मुहं के पास बर्तन बांधकर निकलना पड़ता। उनकी जिंदगी दुरुह थी।

1857 की क्रांति में जब महार जाति ने जमकर देश के समर्थन में युद्ध किया तो अंग्रेजों ने इनका तिरस्कार करना शुरु कर दिया और सेना में केवल सैनिक पद तक ही सीमित कर दिया। महार रेजिमेंट आज भारतीय सेना में एक महत्वपूर्ण रेजिमेंट है जो कि उन देश भक्तों के कारण है जो कि ब्रिटिश हुकूमत के सामने नहीं झुके।अंग्रेजों ने महारों का उपयोग उन्हीं के बंधुओं को मारने के लिए किया। इससे यह सिद्ध तो होता है कि अंग्रेज केवल फूट पैदा करना चाहते थे। यह युद्ध तो जाति ने जीता न अंग्रेजों ने ना ही मराठों ने।


हिंदी या बिंदी

        

कुछ दिनों पहले लोकसभा में हमारे देश की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और कांग्रेस के जाने-माने नेता शशि थरुर के बीच इस बात को लेकर बहस हो गई कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिकारिक भाषा बनाना चाहिए कि नहीं। 2014 में जब एनडीए नीत  नरेन्द्र मोदी सरकार आई तो निर्णय लिया कि सरकार विदेशी मंचों पर हिंदी भाषा का प्रयोग करेगी और जहां तक संभव होगा सरकारी कामकाज में भी हिंदी भाषा का उपयोग करेगी। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को अधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए एनडीए सरकार ने भरसक प्रयास किया है और कर रही है। इस पूरी प्रक्रिया में एक सबसे बड़ी समस्या है कि अधिकारिक भाषा के लिए सभी सदस्य देशों को लागत वहन करना पड़ता है। इसी बात के कारण पेंच अटका हुआ है।

लागत वहन करना ही नहीं भाषा आधारित बोझ बढ़ना भी एक बहुत बड़ी समस्या है जिसके कारण कई देश इस प्रक्रिया को पूर्ण नहीं होने देना चाहते। रुस जो हमारा मित्र देश कहा जाता है उसने भी संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में यह स्वीकार किया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिकारिक भाषा बढ़ने से कार्य बढ़ जाएगा। परिषद में भाषा-रुपांतर का कार्य भी बढ़ जाएगा साथ ही लागत वहन भी। भाषा को उनकी संख्या के आधार पर अधिकारिक भाषा घोषित नहीं किया गया बल्कि प्रभाव के आधार पर। अभी संयुक्त राष्ट्र संघ में छह भाषाएं इंग्लिश, फ्रेंच, अरेबिक, रसियन, मंडारिन,और स्पेनिच है लेकिन इंग्लिश और फ्रेंच ही सभी अधिकारिक कार्य किए जाते है। यदि संख्या के लिहाज से कहा जाए तो हिंदी विश्व की चौथी सबसे बड़ी भाषा है और रसियन,फ्रेंच और अरेबिक से भी बड़ी भाषा है।

भारत में भी हिंदी को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। 2010 में गुजरात हाईकोर्ट ने हिंदी भाषा के विषय में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए, यह निर्णय दिया कि  हिंदी भारत की अधिकारिक भाषा नहीं है। इसका इस्तेमाल सरकारी कामकाज के रुप में किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 में राजभाषा का दर्जा दिया है और हिंदी और इंग्लिश को सरकारी भाषा में उपयोग करने की बात कही गई है। राज्यों को अपनी अधिकारिक और सरकारी कामकाज करने के लिए स्वयं भाषा चुनने का अधिकार है। हिंदी न केवल भारत में बल्कि नेपाल, यूएसए, यूके, फिजी, गुएना, त्रिनिदाद, सूरीनाम, मॉरिशस आदि देशों में बोली जाती है। हिंदुस्तानी के रुप में हिंदी तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मालद्वीप आदि देशों में समझी और बोली जाती है। विश्व में हिन्दी बोलने वालों  की कुल संख्या लगभग 292 मिलियन है। फिजी, गुएना, सूरीनाम, मॉरिशस में तो हिंदी को अधिकारिक भाषा के रुप में स्वीकारा गया है।

शशि थरुर जी ने सदन में यह कहा कि यदि भविष्य कोई व्यक्ति यदि दक्षिण भारत से प्रधानमंत्री बनेगा तो वह अपनी मातृभाषा में संवाद करेगा। शशि जी बहुत विद्वान व्यक्ति है मैं उनकी बात को नहीं काट सकता। लेकिन मैं शशि जी को यह बताना चाहता हूं वर्तमान प्रधानमंत्री गुजरात से है और उनकी मातृभाषा गुजराती है। फिर भी वे भारत और विदेशी मंचों पर संवाद के लिए हिंदी भाषा का उपयोग करते है। वैसे प्रधानमंत्री भारत के किसी भी कोने से बने उसे संवाद करने लिए इंग्लिश या हिंदी को ही चुनना पड़ेगा चाहे उनकी मातृभाषा कुछ भी हो। भारत की लगभग 50 करोड़ आबादी हिंदी लिखती, पढ़ती और बोलती है।

हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए बहुत कार्य करने होगें। सर्वप्रथम उन देशों को मनाना पड़ेगा जो सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देश है। चीन और रुस को खासकर क्योंकि चीन भारत का विश्व मंच पर सबसे बड़ा विरोधी देश है और रुस को इसलिए भी क्योंकि भारत जब से अमेरिका के करीबी मित्रों में शुमार हो गया है तब से रुस के दोस्ताने में परिवर्तन आ गया है। दूसरा, हमें उन देशों को एक मत करना होगा जिन देशों में हिंदी आम बोलचाल या अधिकारिक रुप से उपयोग की जाती है और लागत वहन करने पर एकजुट करना। तीसरा, सभी संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को हिंदी को अधिकारिक भाषा बनाने के लिए एक मंच पर लेकर आना और जहां तक संभव हो कूटनीतिक ताकत का सहारा लेना।

हिंदी , संस्कृत भाषा से बनी एक प्यारी सी भाषा जिसे बचाए रखना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना जरुरी है। 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस घोषित करने या मनाने से हिंदी की सार्थकता पूर्ण नहीं होती है।

                           ।।जय हिंद।।

📃BY_vinaykushwaha


चलते-चलते (श्रृंखला 8)

         

एक रेस्टॉरेंट में मां अपने बच्चे से कहती है कि बेटा गिलास में वाटर है जल्दी पिओ। वही उसके दूसरे दिन एक टीचर अपने छात्रों से कहती है कि talk in English otherwise I will punish all of you. यह सब क्या हो रहा है। माना कि इंग्लिश बहुत जरुरी है परंतु मजबूरी तो नही है। बच्चे की प्रथम पाठशाला बच्चे की मां होती है। यदि मां ही अपने बच्चे को बचपन से ही अंग्रेजीनुमा हिंदी सिखाएंगी तो क्या होगा उस बच्चे के विवेक का? वह तो केवल अंग्रेजी की चकाचौंध में गुम हो जाएगा और हिंदी को भुलाता जाएगा। धीरे-धीरे वह हिंदी को तुच्छ भाषा के रूप में समझने लगेगा। प्रथम पाठशाला से लेकर आखिरी पाठशाला जब सभी इंग्लिश से युक्त हो जाएगें तब निष्कर्ष आपको पता है।

हमारी मानसिकता आज इंग्लिश वाली हो गई है जो केवल इंग्लिश में  सोचने, बोलने और लिखने के लिए विवश करती है। आज का बच्चा प्राथमिक से ही या कहे तो प्ले स्कूल से ही इंग्लिश के माहौल में धकेल दिया जाता है या चला जाता है और घर में भी माहौल इंग्लिश वाला ही रहता है। समाचारपत्र, टीवी चैनल, किताबें, मैग्जीन, रेडियो चैनल आदि सबकुछ इंग्लिशमय हो गया है। इंग्लिश आज भारतीय मानसिकता में इस तरह घर कर गई है कि बिना इसके कुछ संभव ही न हो। मानाकि आज का दौर इंग्लिश वाला है। इंग्लिश एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है। चाहे व्यापार हो, शिक्षा हो, मनोरंजन हो आदि सभी जगह इंग्लिश ने अपने पैर पसार लिए है या हम यूं कह सकते है कि इंग्लिश अन्य भाषाओं के लिए बाधक बन गई है।

मैं तो केवल इतनी बात अच्छी तरह जानता हूं कि वही देश तरक्की कर सकता है जो अपनी मातृभाषा का सम्मान करता है। हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके कई उदाहरण देख सकते है। इजरायल ने हिब्रू को अपनी राष्ट्रभाषा स्वीकार की और आज अपनी भाषा को ताकत बनाकर बुलंदियों के शिखर पर काबिज है। इजरायल की तरह रूस, जर्मनी, जापान, फ्रांस आदि देशों ने भाषा के बल पर विकास किया जाता है,यह सिद्ध कर दिखाया है। चीन आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। मंडारिन भाषा को चीन ने अपनी पहचान बना ली और मंडारिन आज दुनिया की सबसे बड़ी सांकेतिक भाषा है। हिंदी दुनिया की चौथी सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है, इस पर हमें गर्व होना चाहिए। विश्व में हिन्दी बोलने वालों की संख्या लगभग 70 करोड़ है। हिन्दी भारत में ही नहीं मॉरिशस, गुएना, सेशेल्स आदि देशों में प्रमुखता से बोली जाती है। यूएन में आधिकारिक भाषा के रूप में हिन्दी को दर्ज कराने का प्रयास जारी है।

मानाकि भारत भाषाओं का देश है लेकिन हिंदी माध्यम भाषा की भूमिका अदा करती है। हिंदी की लिपि देवनागरी कई अन्य भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी आदि में प्रयोग हो रही है। हिंदी एक समृद्ध भाषा होने के पीछे एक सतत् प्रक्रिया है जिसमें हमें आज की हिंदी दिखाई देती है।

समृद्ध हिन्दी को स्वीकार करने में क्या परेशानी है? आज यदि हम अपनी भावी पीढ़ी को हिन्दी और अपनी मातृभाषा के प्रति जागरुक नहीं करते है तो वे उस ज्ञान से वंचित हो जाएंगे। हिन्दी के जागरुकता के साथ-साथ प्रचार-प्रसार की जरुरत भी है। देश के सभी नागरिक की यह जिम्मेदारी बनती है कि हम अपनी मातृभाषा के प्रति सजग और जिज्ञासु बनें।

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मध्यप्रदेश


1 नबम्वर 1956 को जब एक राज्य अस्तित्व में आया जिसका नाम पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 'मध्यप्रदेश' रखा। सी पी और बरार से मध्यप्रदेश बन गया। आठ जिले महाराष्ट्र राज्य को दे दिया गया और सुनैल टप्पा तहसील  राजस्थान को दे दिया गया और सिरोंज तहसील को मध्यप्रदेश में मिला लिया गया और बन गया मध्यप्रदेश। मध्यप्रदेश का एक बार फिर से गठन किया गया और 1नबम्वर 2000 को मध्यप्रदेश के बरार वाले हिस्से को अलग करके एक नया राज्य बना दिया गया जिसका नाम था 'छत्तीसगढ'। कभी मध्यप्रदेश की गिनती सबसे बड़े राज्य में होती थी और आज दूसरे सबसे बड़े राज्य के रूप में होती है।

मध्यप्रदेश भारत के दिल में बसा हुआ है जो भारत के लिए धड़कता है। मध्यप्रदेश का कण-कण भारत के निर्माण में निस्वार्थ भाव से लगा हुआ है। मध्यप्रदेश के जन-जन की यही भावना है कि 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' और 'एक मध्यप्रदेश, श्रेष्ठ मध्यप्रदेश'। प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण यह राज्य भारत को और भी ज्यादा खूबसूरत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। विन्ध्याचल, सतपुडा , मैैकल आदि पर्वतश्रृंखलाएं भारत की इस धरा को सम्पन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मध्यप्रदेश की वन संपदा जो भारत में सर्वाधिक है, भारत की सुंदरता में चार चांद लगा रही है।

मध्यप्रदेश को नदियों का मायका कहा जाता है। भारत में सर्वाधिक नदियों का उद्गम स्थल मध्यप्रदेश में है। मध्यप्रदेश की लगभग 350 नदियां लगभग भारत की 15 करोड़ आबादी को पोषित कर रहीं है। भारत की सबसे पवित्र नदी और शिवतनया, शांकरी , मैकलसुता, रेवा, नामोदास आदि नामों से विख्यात नर्मदा करोड़ो लोगों को पोषित भी कर रही है और मां की तरह दुलार भी दे रही है। नर्मदा, चंबल, सोन, बेतवा, ताप्ती, माही, केन आदि नदियां पर बने बांध करोड़ो लोगों की आशा का सफलता सूचकांक है। गांधीसागर, ओंकारेश्वर, इंदिरासागर, हलाली, मांधाता, राजघाट, बाणसागर बांध मध्यप्रदेश के साथ-साथ देश के अनेक राज्यों को जगमग कर रहे हैं और साथ ही साथ खेतों को सिंचित भी कर रहे हैं।

मध्यप्रदेश का इतिहास कोई हजार साल पुराना नहीं है यह तो लगभग एक लाख साल पुराना है। यह तो भीमबेटिका के शैलाश्रय स्वयं ही प्रमाणित करते है। भारत में इंसान के अस्तित्व की सर्वप्रथम प्रमाणिकता भी मध्यप्रदेश में नर्मदा तट में ही देखने मिलती है। बुद्ध के उपदेश और उनकी शिक्षा की जानकारी हमें सांची, भरहुत(सतना), कसरावद के स्तूपों से मिलती है। भारत की सबसे पवित्र और पुरातन नगरी में से एक उज्जैन अपने वैभव से आज तक भारत को पल्लवित कर रहा है। महाकाल की नगरी उज्जैयिनी आज भी भस्म की भीनीं सुगंध से सुरभित हो रही है। बेतवा नदी के तट पर स्थित ओरछा अपने एकमात्र राम को राजा के रुप में समर्पित मंदिर को रुप में विख्यात है। खजुराहों को कौन नहीं जानता जिसकी स्थापत्य कला का आजतक कोई तोड़ नहीं है। धुंआधार जलप्रपात जिसका कोई सानी ही नहीं है। महेश्वर, ओंकारेश्वर, चंदेरी, मांडू, अमरकंटक, मैहर, उदयगिरि, भोजपुर, बाघ की गुफाएं आदि अनेक स्थान मध्यप्रदेश को श्रेष्ठ बना रहे है।

रुपनाथ(कटनी) और गुर्जरा(दतिया)आज सम्राट अशोक की गवाही देता है। मध्यप्रदेश के इतिहास में कई राजा रजवाड़ों का हाथ रहा है। मौर्य, गुप्त, शुंग, राष्ट्रकूट, पल्लव, चंदेल, चौहान, कल्चुरी, गौंड, मराठा, सिंधिया, होल्कर और मुगलों का योगदान रहा हैं। कई शहरों को बसाया तो कई स्मारक बनाई । अलग-अलग शैली की स्थापत्य कला की सहायता से संरचनाओं में जान फूंकने की कोशिश की है।

मध्यप्रदेश की धरा भारत के लिए है और इसका एक-एक कण मातृभूमि के लिए समर्पित है।
जय मध्यप्रदेश, जय भारत

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भारतीय वास्तुकला (श्रृंखला 3)


भारत प्राचीन काल से ही स्थापत्य कला में समृद्ध देश रहा है। भारत की समृद्ध विरासत की झलकियां आज भी देखने को मिलती है। पूर्व में हमने सिंधु घाटी की सभ्यता और वैदिक सभ्यता की स्थापत्य कला के बारे में जाना। अब हम और आगे बढ़ते हैं और चलते है मौर्य काल की ओर। मौर्य काल से पहले ही पक्के घरों का और अन्य महत्वपूर्ण संरचनाओं का निर्माण शुरू हो चुका था। मौर्य काल में भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया और भारतीय स्थापत्य कला को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

मौर्यों से पहले नंद वंश था जिसके बारे में कहा जाता था कि उसकी सेना सिकंदर महान से बहुत बड़ी थी। यही कारण था कि सिकंदर की सेना ने आगे और युद्ध करने से मना कर दिया। घनानंद भले ही विलासता का आदि राजा रहा हो परंतु उसका राज्य सदा ही बहुत ही संपन्न रहा था। यदि घनानंद स्वभाव से भी अच्छा होता तो वह सम्पन्नता के शिखर के साथ-साथ लोगों के दिलों को भी छूता।

घनानंद के अत्याचारों से बचाने के लिए चंद्रगुप्त मौर्य ने घनानंद को मार दिया और मौर्य वंश की नींव डाली। मौर्य वंश में तीन सबसे प्रतापी राजा हुए चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार और सम्राट अशोक। मौर्य साम्राज्य इन तीनों के राज में वैभव के चरम सीमा पर पहुंच गया था। जनता अपना सुखी जीवन व्यतीत करती थी। सम्राट अशोक ने तो जनता से संचार के लिए शिलालेख का सहारा लिया ताकि राज्य की जनता उसकी बात को जान सके और समझ सके।

मौर्य के समय महल का निर्माण लकड़ी से किया जाता था। छत भी लकड़ी की बनाई जाती थी। छत को सहारा देने के लिए पत्थर के स्तंभ होते थे जो कलात्मक ढ़ंग से सजाए जाते थे। लकड़ी के महल में रहने का अधिकार केवल राजसी परिवार को था। रसोईघर, स्नान घर आदि की व्यवस्था की गई थी। राजा जहां दरबार लगाता था वह एक बड़ा सा हॉल होता था। लकड़ी के फर्श को ढ़कने के लिए शानदार कालीन का प्रयोग किया जाता था। दीवारों को सोने की परत से कलात्मकता के साथ मढ़ा जाता था।

भवन की आकृति चौकोर या आयताकार होती थी। महल में 2-3 मंजिल हुआ करती थी। अंदरूनी छत पर शानदार तरीके से सोने से सजावट की जाती थी।

महल के बाहर सुंदर बगीचों का निर्माण किया जाता था। जिसमें तरह-तरह के फलदार और फूल के पेड़-पौधे लगे होते थे। फव्वारों का प्रयोग बगीचों की सुंदरता बढ़ाने के लिए किया जाता था।

महल चारों ओर से दीवार से ढंका होता था जिसमें अंदर आने के लिए कई दरवाजें होते थे। दीवार के सहारे एक खाई का निर्माण किया जाता था जो कई सौ मीटर गहरी होती थी। यह खाई शत्रु को महल में आने से रोकने के लिए बनाई जाती थी। दरवाजें भी इस प्रकार हुआ करते थे कि उन्हें रस्सी के सहारे उठा लिया जाए। सैनिक गस्ती के लिए दीवार पर बुर्ज बनाए जाते थे। आज भी इसके साक्ष्य पटना के आस-पास मिलते है।

अशोक ने यही व्यवस्था अपनाई साथ ही साथ उसने बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए पहाड़ियो को काटकर गुफाओं का निर्माण करवाया। जनता से संचार बनाने के लिए शिलालेख,गुहालेख लिखवाए। स्तूपों के निर्माण का श्रेय भी सम्राट अशोक को जाता है।  सुंदरता से स्तूप बनाकर उन्हें गौतम बुद्ध की याद में शामिल कर दिया। जिसका सबसे सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है 'सांची'।

यही है मौर्यकालीन वास्तु कला।

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मैहर - जहां विराजे ज्ञान की देवी


सोने के लोटा गंगाजल पानी, माई दोई बिरिया।
अतर चढ़े दोई-दोई शीशियां, माई दोई बिरिया।
करें भगत हो आरती माई दोई बिरिया।।

मां के सम्मान में छोटी-सी भगत। भगतें बघेलखंड और बुंदेलखंड में मां के सम्मान गाए जाने वाले भजन है जो मुख्यतः बघेलखंड में गाया जाता है। उपरोक्त भगत मां शारदा के सम्मान में गाया गया है। मां शारदा को ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाता है।

नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुरवीसिनि ।
त्यामहं प्रार्थये नित्यमं विधाबुद्धि च देहि मे।।

उपरोक्त श्लोक मां सरस्वती को समर्पित है जिसमें मां सरस्वती को शारदा के रूप में संबोधित किया गया है। जिसमें विद्या और बुद्धि का वरदान मांगने की बात कही गई है।

भारत में वैसे तो मां शारदा के अनेकों मंदिर होगें परंतु मध्यप्रदेश के सतना जिले के मैहर में स्थित मां शारदा देवी का मंदिर अद्भुत, अनोखा और मन को शांति प्रदान करने वाला है। विन्ध्याचल पर्वत की गोद में बसा यह मंदिर प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण है। विन्ध्याचल पर्वत की 600 फुट ऊंची त्रिकूट पहाड़ी पर स्थित यह मंदिर सारे मनोरम को सिद्ध करने वाला है। यह एक शक्तिपीठ है।

इस मंदिर और मां शारदा देवी की यहां पर प्राण प्रतिष्ठा के पीछे  एक पौराणिक कहानी है। जब मां सती के विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से 51 टुकड़े कर दिया तो जहां-जहां मां सती के शरीर के भाग गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ का निर्माण किया गया। मैहर शहर का नाम मां सती के हार गिरने से हुई। मै का तात्पर्य माई और हर का तात्पर्य हार से है, जिसका संपूर्ण तात्पर्य हुआ माई के गले का हार अर्थात् मैहर।

मंदिर में स्थित मूर्ति की विधिवत प्राणप्रतिष्ठा संवत् 599 में की गई थी। अक्जेण्डर कनिघंम ने इस मंदिर पर गहरा शोध कर यह भी बताया कि यहां पशु बलि नियमित रूप से दी जाती थी, जिसे बाद में बंद करवा दिया गया। इस मंदिर में आदिगुरू शंकराचार्य के द्वारा पूजा करने का भी उल्लेख मिलता है।

मां की ड्योढ़ी पर तो सभी शीश झुकाते है परंतु नियमित रूप से प्रथम अधिकार आल्हा का है। वास्तविक रूप से मंदिर स्थापित करने का श्रेय आल्हा और ऊदल को दिया जाता है जो दोनों भाई थे। दोनों ने मां की इस प्रतिमा को खोजा तथा आल्हा ने बारह वर्ष तक मां की तपस्या की। मां ने प्रसन्न होकर आल्हा को अमरत्व का वरदान दिया। आज भी आल्हा द्वारा समर्पित गुड़हल के फूल मंदिर के प्रथम बार कपाट खुलने पर दिखाई देते हैं।

मां का दरबार सालभर भक्तों की भीड़ से लबालब रहता है परंतु नवरात्रि के पावन अवसर पर यहां की अनोखी छटा देखने  लायक होती है।

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भारतीय वास्तुकला (श्रृंखला 4)


भारतीय संस्कृति में मूर्ति एक अभिन्न हिस्सा रही हैं। भारतीय स्थापत्य कला की बात की जाए और मूर्तियों के बारे में चर्चा न हो ऐसा हो ही नहीं सकता है। भारत का इतिहास उठाकर देखा जाए तो सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आज तक मूर्ति का महत्व बना हुआ है। जहां सिंधु घाटी सभ्यता में उत्खनन में अनेकों मूर्ति मिली जिनमें एक पुरोहित की टेराकोटा की मूर्ति और नृत्य करती हुई कांसे से निर्मित नृतकी की मूर्ति सर्वाधिक प्रसिद्ध है। भारतीय मूर्तिकला में मूर्तियां बनाने में कई प्रकार की धातुएं जिनमें पीतल, तांबा, कांसा, फूला, सोना, चांदी,अष्टधातु , प्रस्तर(stone), मिट्टी आदि उपयोग किया जाता था और है। मूर्ति कला भारतीय स्थापत्य कला का अभिन्न हिस्सा है।

सिंधु घाटी की सभ्यता से बहुत पहले प्रौगेतिहासिक काल में मिट्टी से बने बहुत सी मूर्तियां प्राप्त हुई है जिनमें छोटे-छोटे विकृत रुप में कई आकृतियां प्राप्त होती हुई हैं। मिट्टी से मूर्तियां बनाना तब तक जारी रहा जब तक कि अन्य धातुओं से मूर्ति बनाने की तकनीक का ज्ञान नहीं हुआ था। मिट्टी से अभी भी मूर्तियां बनाई जाती है परंतु आज की मूर्तियों में और पहले मिट्टी से निर्मित मूर्तियों में जमीन आसमान का अंतर है। लेकिन प्रस्तर पर निर्मित मूर्तियां आज भी अद्वितीय है जिनकी बराबरी आज के कारीगरों द्वारा असंभव है। प्रस्तर निर्मित मूर्तिकला का बेमिसाल नमूना खजुराहों का मंदिर समूह है जो विभिन्न कहानी कहता हुआ प्रतीत होता है। प्रस्तर से निर्मित मूर्तियों के मामलों में भारतीय मंदिरों को देखा जा सकता है जिसमें कहानी को कहने के लिए मूर्तियों को मंदिर की दीवारों पर उकेरा जाता है। द्वारपाल आदि को उकेरा जाता है। कोणार्क का सूर्य मंदिर तो पूर्ण से कहा जाए तो एक मूर्ति ही है जिसे एक एक रथ का आकार दिया गया है। प्रस्तर पर मूर्ति कला के लिए द्रविड शैली में बने मंदिर के शिखर पर बने विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्ति अप्रतिम उदाहरण है।

मूर्ति कला भारत के विभिन्न हिस्सों में पहुंची तो उसी के अनुरुप ढ़ल गई। शारीरिक बनावट, रंग-रुप, अंलकार(रुपसज्जा, आभूषण, केशसज्जा, परिधान आदि), आस-पास का वातावरण का विवरण आदि। भारत में मूर्ति कला उत्तर भारत में अलग और दक्षिण भारत में अलग ही तरह से है जिसमें अंलकार, रुप-रंग आदि सबकुछ अलग-अलग है। यहां तक की देवी-देवताओं की मूर्तियों में अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है। प्रस्तर की उपलब्धता भी मूर्ति कला में अहम योगदान देता है। उत्तर भारत में बलुआ पत्थर और दक्षिण भारत में बेसाल्ट की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में है।जिसका उपयोग करके वहां मूर्ति बनाई जाती है। जब दक्षिण भारत से भारतीय संस्कृति इंडोनेशिया द्वीप समूह पहुंची तो मूर्तिओं में भारतीयता बनी रही परंतु रुप-रंग और वेशभूषा बदल गया।

इतिहास की बात करें तो विभिन्न काल समय में तरह-तरह की मूर्तियों के प्रमाण मिलते है। सिंधु घाटी सभ्यता में कई प्रकार की मूर्तियों का प्रमाण मिलता है जिनमें प्रकृति देवी की प्रतिमा, पुरोहित की प्रतिमा, नृतकी की प्रतिमा आदि है। सिंधु घाटी सभ्यता में पशु-पक्षियों को विशेष महत्व दिया जाता था उसमें भी बैल को। सिंधु घाटी सभ्यता के क्षेत्र के उत्खनन(excavation)से एक सील प्राप्त हुआ है जिसमें पशुपतिनाथ की आकृति को उकेरा गया है जिसमें पशुपतिनाथ के आस-पास गैंडा,भैंसा, हिरण, हाथी आदि को दिखाया गया है। सिंधु घाटी सभ्यता के क्षेत्र में उत्खनन(excavation) से लिंग और योनि की मिट्टी से बनी आकृतियां प्राप्त हुई हैं। यदि यह कहा जाए कि सिंधु घाटी सभ्यता में मूर्ति कला फल-फूल रही थी तो अतिश्योक्ति न होगी।

मौर्यकाल में मूर्तिकला ज्यादा प्रचलित तो नहीं हुई परंतु एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ गई। परिष्कृत रुप में और ज्यादा निखर के सामने आई। अशोक स्तंभ जिसमें चार सिंहों की आकृति के नीचे अशोक चक्र और अशोक चक्र के एक ओर घोड़ा और दूसरी ओर बैल की आकृति बनी है और इसके नीचे उल्टा शतदल कमल बना हुआ है जिसे एक स्तंभ पर स्थापित किया गया था। सम्राट अशोक  के द्वारा बनवाए इस स्तंभ को भारत के विभिन्न हिस्सों में देखा जा सकता है जिनमें सांची, सारनाथ आदि अहम है। मौर्य कालीन इस बेमिसाल नमूने को भारत सरकार ने अपनी अधिकारिक मुहर के रुप में अपनाया है। सम्राट अशोक के समय एक और स्तंभ देखने को मिलता है जिसमें एक स्तंभ पर उल्टे शतदल कमल पर एक बैठा हुआ शेर दिखाई देता है। यद्यपि मौर्यकाल में स्तूपों, चैत्यों, गुफाओं का निर्माण कराया गया लेकिन मूर्तिकला पर ध्यान नहीं दिया।

गुप्तकाल को भारतीय स्थापत्य कला का स्वर्णयुग कहा जाता है। गुप्तकाल में मूर्तिकला खूब फली-फूली। मौर्यकाल में बौद्ध धर्म को ज्यादा प्रश्रय दिया वही गुप्तकाल में हिंदु धर्म के शैव,वैष्णव, शाक्त संप्रदाय,जैन धर्म और बौद्ध धर्म को अलग-अलग राजाओं ने मूर्ति के माध्यम से खूब बढ़ावा दिया। विष्णु, उमा-महेश्वर, ब्रह्मा, गंगा, यमुना, सरस्वती,जैन तीर्थंकर ( आदिनाथ, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ,महावीर स्वामी आदि), महात्मा बुद्ध, यक्ष-यक्षिणी, अप्सरा, वराह अवतार, नारद,इंद्र, महिषासुरमर्दिनी, कंकाली देवी आदि की मूर्तियां स्पष्ट दिखाई देती हैं। गुप्तकालीन राजाओं के द्वारा निर्मित गुफाओं में हिंदु, जैन और बौद्ध धर्म की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है जिनमें मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में उदयगिरि की गुफा में इसका उदाहरण मौजूद है जिसमें एकलिंग प्रतिमा, वराह अवतार की तेरह फुट की मूर्ति, जैन तीर्थंकर की प्रतिमा दिखाई देता है। उदयगिरि के अलावा बाघ की गुफाओं में भी साफ-साफ सर्वधर्म समभाव की झलक देखने को मिलती है। जहां मौर्य काल में वृहद मात्रा में बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया वही गुप्तकाल में बेसाल्ट,बलुआ पत्थर दोनों का उपयोग किया गया। गुप्तकाल में आग्नेय शैल (IGNEOUS ROCK) का ज्यादा उपयोग किया गया है।

मौर्य और गुप्तकाल के बीच के संक्रमण काल में शुंग आदि वंश की कामगारी को नहीं भुलाया जा सकता जिसमें सांची स्तूप के चारों दरवाजों पर उत्कीर्ण जातक कथाएं अद्वितीय है।

गुप्तकाल के बाद अनेक ऐसे शासनकाल आए जिन्होंने मूर्तिकला को बहुत ज्यादा बढ़ावा दिया। राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल, चेर, होयसल, कल्चुरि, परमार, चंदेल, चौहान,  गांगेय, यादव आदि। अजंता-एलोरा, कान्हेरी, एलीफेन्टा,हाथीगुम्फा आदि गुफाएं बौद्ध मूर्तिकला का बेजोड़ उदाहरण है। परमार काल में राजा मुंज और राजा भोज ने विशेष योगदान दिया। राजा भोज ने मध्यप्रदेश के रायसेन के भोजपुर में एक भोजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर में दुनिया की सबसे बड़ी  शिवलिंग स्थापित की गई है साथ ही गंगा, यमुना, अप्सरा, पार्वती,सरस्वती,लक्ष्मी,विष्णु की मूर्तियों को देखा जा सकता है। कल्चुरीकालीन राजाओं के द्वारा बहुत से मंदिर के निर्माण का कार्य किया गया लेकिन इनकी सबसे अनोखी दो बातें हैं पहली शाक्त परम्परा को बढ़ावा देना तथा वराह मूर्ति की स्थापना करना।

पूर्वी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कल्चुरीकालीन मूर्तिकला को आसानी से देखा जा सकता है। अमरकंटक में जहां मंदिर समूहों में विभिन्न देवी-देवताओं जैसे कर्ण,सूर्य,लक्ष्मी,पातालेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया साथ ही साथ कलात्मक प्रतिमा स्थापित करवाई। जबलपुर में भेड़ाघाट के निकट कल्चुरी  शैली में निर्मित चौसठ योगिनी का मंदिर जिसमें एक गोलाकार मंदिर में चौसठ योगिनियों की प्रतिमा स्थापित की गई है साथ ही मंदिर के बीचोंबीच शिव-पार्वती का मंदिर है। मध्यप्रदेश में अनेकों जगह कल्चुरी शैली के कार्य की छाप देखने को मिलती है। मंदिरों के बाहर वराह की मूर्ति की झलक देखने को मिलती है। चंदेल शासकों की अनुपम धरोहर है खजुराहों के मंदिर समूह जिसमें लगभग हर देवी-देवताओं की मूर्ति देखना सुलभ है। खजुराहों की एक मूर्ति बहुत प्रसिद्ध है जिसमें एक लड़की अपने दोनों हाथों से बैठकर शेर के दोनों अगले पैरों को पकड़े हुए है। खजुराहों अपनी विशेष प्रकार की मूर्तिकला के लिए जाना जाता है कामुकता से परिपूर्ण नग्न मूर्तियां दिखाई देती है जो ऋषि वात्सायायन के कामसूत्र पर आधारित है।

दक्षिण भारत में राजराजा जैसे अनेकों राजा हुए है जिन्होंने मूर्तिकला को बढ़ावा दिया है। चोल राजाओं के समय में तो कांस्य(bronze) मूर्ति का निर्माण अपनी चरम सीमा पर था। नटराज की कांस्य प्रतिमा आज भी मू्र्तिकला में सर्वोच्च स्थान रखती है। दक्षिण भारत में मंदिरों में स्थापित मूर्तियां लगभग आग्नेय शैल(IGNEOUS ROCK)निर्मित है। मूर्तियों के श्रृंगार पर विशेष ध्यान दिया जाता है। बालाजी, स्वामी अयप्पा, मुरुगन, मीनाक्षी, विरुपाक्षी, शिवलिंग का श्रृंगार अनोखे तरीके से किया जाता है। कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई है।

राजस्थान में लालपत्थर और संगमरमर की प्रचुरता होने से यहां मूर्ति कला बहुत तीव्र गति फला-फूला। मकराना का संगमरमर आज भी बहुत प्रसिद्ध है। जयपुर की एक गली का नाम तो मू्र्ति निर्माण के कारण खजाने वालों की गली रख दिया गया है। राजस्थान में राजाओं की कृपा से जैन धर्म अच्छी तरह फला फूला है जिसमें माउंट आबू का दिलवाड़ा मंदिर, रनकपुर का ऋषभदेव मंदिर आदि उदाहरण है। गुजरात में काले पत्थर का उपयोग मूर्तिकला में किया गया है।

भारत में हम जितना पूर्व की ओर जाते है तो वनों की सघनता उतनी बढ़ती जाती है। वनों की सघनता के कारण लकड़ी से बनने वाले सामान की मात्रा भी अधिक है। यहां लकड़ी से मूर्ति बनाने का काम भी सहज ही किया जाता है। चाहे हम ओडिशा से मणिपुर देखे तो लकड़ी की मूर्तियां दिखाई देती हैं। पुरी के जगन्नाथ जी की प्रतिमा हो या अन्य प्रतिमा लकड़ी से बनी हुई है।

भारत में वैसे तो कहा जाए तो मूर्तिकला तीन प्रकार से विभाजित किया है, गांधार,मथुरा और अमरावती शैली। गांधार शैली जिसे ग्रीको-रोमन,हिंद-यूनानी शैली भी कहा जाता है। इसे यह नाम देने के पीछे सीधा सा कारण है कि इसे बनाने की कला ग्रीस आई थी। इस शैली के बौद्ध प्रतिमा की यह खासियत है कि गौतम बुद्ध तपस्या में रत है साथ ही गहन मुद्राओं को धारण किए हुए है। उनके कपड़ों की सिलवट साफ-साफ देखी जा सकती है तथा आभूषण की मात्रा बिल्कुल कम है। इस शैली की मूर्तियां बनाने में बलुआ पत्थर और काले पत्थर का उपयोग किया जाता था। इस मूर्ति कला का प्रमुख क्षेत्र भारतीय सीमा से लेकर पश्चिमी पाकिस्तान और अफगानिस्तान का गांधार (कंधार)प्रदेश था।  मथुरा शैली पूर्णत: भारतीय मूर्तिकला का उदाहरण है। जिसे बलुआ पत्थर में निर्मित किया जाता था। इस शैली के बौद्ध प्रतिमा की खासियत यह है कि इसमें गौतम बुद्ध प्रसन्नचित्त अवस्था में दिखाई देते है जो कि अपनी विभिन्न मुद्राओं में पद्मासन में बैठे हुए दिखाई देते है। केश विन्यास खुला हुआ होता है जो कि उन्मुक्तता को प्रदर्शित करता है। अमरावती शैली दक्षिण भारत में विकसित हुए एक अनोखी शैली है। इस शैली के अंतर्गत मूर्ति बनाने में संगमरमर का उपयोग किया जाता है। इसमें जातक कथाओं के अनुसार गौतम बुद्ध की प्रतिमा को गढ़ा जाता है।

मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं के आगमन के बाद भारतीय मूर्तिकला पर प्रतिबंध लग गया। भारत पर मुस्लिम शासकों ने लगभग 600 सालों तक शासन किया। इस्लाम में बुत अर्थात् मूर्ति परस्ती गैर-इस्लाम माना जाता है इसी कारण मुस्लिम शासकों के समय में अनेकों मूर्तियों के तोड़ा गया और किसी भी प्रकार की मूर्तिकला को बढ़ावा नहीं दिया गया। इसी कारण यह दौर भारतीय इतिहास में मूर्तिकला के लिए काला युग कहा जाता है। उसके बाद अंग्रेजों के 200 साल के शासन में भारतीय मूर्तिकला को ध्वस्त ही कर दिया क्योंकि भारतीय इस दौर में दो जून की रोटी के लिए तरसता था।

अंधेरा हमेशा के लिए नहीं होता है सूरज हर सुबह निकलता है। उसी तरह आज फिर से भारतीय मूर्तिकला उन्नति की राह पर अग्रसर हो रहा है।राजस्थान की संगमरमर से निर्मित मू्र्ति हो या ओडिशा की लकड़ी से निर्मित मू्र्ति या बस्तर में निर्मित पीतल की मूर्ति हो और कांसे से निर्मित मूर्ति हो या कर्नाटक की प्रस्तर मूर्तियां अपने शिखर पर हैं। भारतीय मूर्तिकला में फ्यूजन भी देखने को मिल रहा जिसमें भारतीय टच के साथ-साथ विदेशों से आयतित तकनीक का उपयोग कर मूर्ति कला को और समृद्ध बनाया जा रहा है।

                          ।।जय हिंद।।

📃BY_vinaykushwaha


कच्ची धूप

अचार की बरनी, रजाई, गद्दा और धूप सेंकते मानव शरीर सभी एक-दूसरे से बात कर रहे हैं ,धूप कच्ची है। ठंड की आवक वातावरण के साथ-साथ घर की दहलीज़ पर भी दस्तक देती है। धूप केवल धूप ही रह जाती है। ठंड के आने के साथ ही हवा में अलग ही तरह की ठंडक और मिठास घुल जाती है।ओस गिरने लगती है। ओस की बूंदें फूल की पखुंडियों पर एक नए तरीके की आकृतियां बनाती है, यही ओस की बूंदें पत्तियों पर से एक-एक बूंद मिलकर पानी की धार बनकर गिरती है। मकड़जाल को ओस तब और ज्यादा सुंदर बना देती है जब सूर्य की किरण मकड़जाल में गसी बूंदों में से होकर गुजरती है। रात के आगोश में ओस अपना खेल दिखाती है और सुबह की बेला में सूरज को किरणों को पीछे धकेलने का प्रयास करती है जिसके लिए साथ मिलता है धुंध का।

धुंध सूरज को एक ऐसे पारभासी चादर में समेट लेती जिसमें मानवजाति को लगता है कि सूरज का आभास होता है परंतु दिखाई नहीं देता। सूरज कोहरे की चादर में लिपटा हुआ संसार की सारी गतिविधियों को देखता रहता है। कोहरा, धुंध का बड़ा भाई है और भयावह रूप है। कभी-कभी सड़कों और रेल्वे ट्रेक पर अनहोनी का कारण बनता है। कोहरा सूरज को आसमान में आने से रोकने के लिए जीभर प्रयास करता है। कभी सफल हो जाता है तो दोपहर तक सूरज को अपना प्रकाश धरती पर नहीं आने देता और कोहरे के सामने सूरज बेबस नज़र आता है। कभी-कभी परिस्थितियां भिन्न होती जो सारी गतिविधियों को पलट देती है। सूरज कोहरे को किसी सुई की तरह भेदता हुआ अपनी किरणों से चहुंओर प्रकाशित कर देता है और कभी-कभी धीरे-धीरे कोहरे को चीरता हुआ अपनी लालिमा बिखेरता है। परंतु सूरज की किरणों में वो तीखापन नहीं होता जैसा शेष मौसम में होता है।

सुबह की रोशनी का फीकापन लिए सूरज दोपहर तक आसमान पर परवान चढ़ता है और अपने तेज से वातावरण को दीप्तमान करता है साथ ही गर्माहट भी। इस गर्माहट में वो ताकत नहीं होती जो हम सोचते हैं क्योंकि यह गर्माहट होती सर्दियों वाली धूप की। ठंड के मौसम में जीव और अजीव दोनों को धूप की जरुरत महसूस होती है। मगरमच्छ की तरह इंसान भी अपने शरीर को गर्म करने की कोशिश में लगे रहता ताकि विटीमिन डी की कमी न हो। धूप की जरुरत तो जीवों के लिए तो आसानी से समझ आती लेकिन यदि हम बारीकी से देखे तो अजीवों के लिए भी धूप का विशेष महत्व है। रेल की पटरियां ठंड के कारण सिकुड़ जाती है और धूप पाते ही अपनी वास्तविक अवस्था में आ जाती है, लेकिन धूप कच्ची होती है। पक्की वाली धूप का इंतजार कम से कम तीन महीनों का तो होता ही हैं। बरी, पापड़, चकली, बिजौरा के साथ-साथ विटीमिन डी पाने वालों के लिए धूप पर्याप्त होती है क्योंकि धूप कच्ची है।

जिस प्रकार हमारे जीवन में समय का महत्व होता है ठीक उसी प्रकार ठंड में धूप का होता है। ठंड की धूप एक निश्चित समय के लिए आती है फिर हमें लगता है कि आज दिन जल्दी ढ़ल गया। धूप कच्ची होती हुए भी कई सारे काम को अंजाम देती है। जैसे-जैसे सूरज आसमान में ऊपर चढ़ता जाता है वैसे-वैसे धूप मद्धम होती जाती है और अपना अस्तित्व खोती जाती है, अतत: दिन ढ़लने के बाद सूर्य के साथ-साथ धूप भी अस्त हो जाती है।

क्योंकि "धूप कच्ची" है।

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