भारतीय संस्कृति में मूर्ति एक अभिन्न हिस्सा रही हैं। भारतीय स्थापत्य कला की बात की जाए और मूर्तियों के बारे में चर्चा न हो ऐसा हो ही नहीं सकता है। भारत का इतिहास उठाकर देखा जाए तो सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर आज तक मूर्ति का महत्व बना हुआ है। जहां सिंधु घाटी सभ्यता में उत्खनन में अनेकों मूर्ति मिली जिनमें एक पुरोहित की टेराकोटा की मूर्ति और नृत्य करती हुई कांसे से निर्मित नृतकी की मूर्ति सर्वाधिक प्रसिद्ध है। भारतीय मूर्तिकला में मूर्तियां बनाने में कई प्रकार की धातुएं जिनमें पीतल, तांबा, कांसा, फूला, सोना, चांदी,अष्टधातु , प्रस्तर(stone), मिट्टी आदि उपयोग किया जाता था और है। मूर्ति कला भारतीय स्थापत्य कला का अभिन्न हिस्सा है।
सिंधु घाटी की सभ्यता से बहुत पहले प्रौगेतिहासिक काल में मिट्टी से बने बहुत सी मूर्तियां प्राप्त हुई है जिनमें छोटे-छोटे विकृत रुप में कई आकृतियां प्राप्त होती हुई हैं। मिट्टी से मूर्तियां बनाना तब तक जारी रहा जब तक कि अन्य धातुओं से मूर्ति बनाने की तकनीक का ज्ञान नहीं हुआ था। मिट्टी से अभी भी मूर्तियां बनाई जाती है परंतु आज की मूर्तियों में और पहले मिट्टी से निर्मित मूर्तियों में जमीन आसमान का अंतर है। लेकिन प्रस्तर पर निर्मित मूर्तियां आज भी अद्वितीय है जिनकी बराबरी आज के कारीगरों द्वारा असंभव है। प्रस्तर निर्मित मूर्तिकला का बेमिसाल नमूना खजुराहों का मंदिर समूह है जो विभिन्न कहानी कहता हुआ प्रतीत होता है। प्रस्तर से निर्मित मूर्तियों के मामलों में भारतीय मंदिरों को देखा जा सकता है जिसमें कहानी को कहने के लिए मूर्तियों को मंदिर की दीवारों पर उकेरा जाता है। द्वारपाल आदि को उकेरा जाता है। कोणार्क का सूर्य मंदिर तो पूर्ण से कहा जाए तो एक मूर्ति ही है जिसे एक एक रथ का आकार दिया गया है। प्रस्तर पर मूर्ति कला के लिए द्रविड शैली में बने मंदिर के शिखर पर बने विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्ति अप्रतिम उदाहरण है।
मूर्ति कला भारत के विभिन्न हिस्सों में पहुंची तो उसी के अनुरुप ढ़ल गई। शारीरिक बनावट, रंग-रुप, अंलकार(रुपसज्जा, आभूषण, केशसज्जा, परिधान आदि), आस-पास का वातावरण का विवरण आदि। भारत में मूर्ति कला उत्तर भारत में अलग और दक्षिण भारत में अलग ही तरह से है जिसमें अंलकार, रुप-रंग आदि सबकुछ अलग-अलग है। यहां तक की देवी-देवताओं की मूर्तियों में अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है। प्रस्तर की उपलब्धता भी मूर्ति कला में अहम योगदान देता है। उत्तर भारत में बलुआ पत्थर और दक्षिण भारत में बेसाल्ट की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में है।जिसका उपयोग करके वहां मूर्ति बनाई जाती है। जब दक्षिण भारत से भारतीय संस्कृति इंडोनेशिया द्वीप समूह पहुंची तो मूर्तिओं में भारतीयता बनी रही परंतु रुप-रंग और वेशभूषा बदल गया।
इतिहास की बात करें तो विभिन्न काल समय में तरह-तरह की मूर्तियों के प्रमाण मिलते है। सिंधु घाटी सभ्यता में कई प्रकार की मूर्तियों का प्रमाण मिलता है जिनमें प्रकृति देवी की प्रतिमा, पुरोहित की प्रतिमा, नृतकी की प्रतिमा आदि है। सिंधु घाटी सभ्यता में पशु-पक्षियों को विशेष महत्व दिया जाता था उसमें भी बैल को। सिंधु घाटी सभ्यता के क्षेत्र के उत्खनन(excavation)से एक सील प्राप्त हुआ है जिसमें पशुपतिनाथ की आकृति को उकेरा गया है जिसमें पशुपतिनाथ के आस-पास गैंडा,भैंसा, हिरण, हाथी आदि को दिखाया गया है। सिंधु घाटी सभ्यता के क्षेत्र में उत्खनन(excavation) से लिंग और योनि की मिट्टी से बनी आकृतियां प्राप्त हुई हैं। यदि यह कहा जाए कि सिंधु घाटी सभ्यता में मूर्ति कला फल-फूल रही थी तो अतिश्योक्ति न होगी।
मौर्यकाल में मूर्तिकला ज्यादा प्रचलित तो नहीं हुई परंतु एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ गई। परिष्कृत रुप में और ज्यादा निखर के सामने आई। अशोक स्तंभ जिसमें चार सिंहों की आकृति के नीचे अशोक चक्र और अशोक चक्र के एक ओर घोड़ा और दूसरी ओर बैल की आकृति बनी है और इसके नीचे उल्टा शतदल कमल बना हुआ है जिसे एक स्तंभ पर स्थापित किया गया था। सम्राट अशोक के द्वारा बनवाए इस स्तंभ को भारत के विभिन्न हिस्सों में देखा जा सकता है जिनमें सांची, सारनाथ आदि अहम है। मौर्य कालीन इस बेमिसाल नमूने को भारत सरकार ने अपनी अधिकारिक मुहर के रुप में अपनाया है। सम्राट अशोक के समय एक और स्तंभ देखने को मिलता है जिसमें एक स्तंभ पर उल्टे शतदल कमल पर एक बैठा हुआ शेर दिखाई देता है। यद्यपि मौर्यकाल में स्तूपों, चैत्यों, गुफाओं का निर्माण कराया गया लेकिन मूर्तिकला पर ध्यान नहीं दिया।
गुप्तकाल को भारतीय स्थापत्य कला का स्वर्णयुग कहा जाता है। गुप्तकाल में मूर्तिकला खूब फली-फूली। मौर्यकाल में बौद्ध धर्म को ज्यादा प्रश्रय दिया वही गुप्तकाल में हिंदु धर्म के शैव,वैष्णव, शाक्त संप्रदाय,जैन धर्म और बौद्ध धर्म को अलग-अलग राजाओं ने मूर्ति के माध्यम से खूब बढ़ावा दिया। विष्णु, उमा-महेश्वर, ब्रह्मा, गंगा, यमुना, सरस्वती,जैन तीर्थंकर ( आदिनाथ, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ,महावीर स्वामी आदि), महात्मा बुद्ध, यक्ष-यक्षिणी, अप्सरा, वराह अवतार, नारद,इंद्र, महिषासुरमर्दिनी, कंकाली देवी आदि की मूर्तियां स्पष्ट दिखाई देती हैं। गुप्तकालीन राजाओं के द्वारा निर्मित गुफाओं में हिंदु, जैन और बौद्ध धर्म की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है जिनमें मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में उदयगिरि की गुफा में इसका उदाहरण मौजूद है जिसमें एकलिंग प्रतिमा, वराह अवतार की तेरह फुट की मूर्ति, जैन तीर्थंकर की प्रतिमा दिखाई देता है। उदयगिरि के अलावा बाघ की गुफाओं में भी साफ-साफ सर्वधर्म समभाव की झलक देखने को मिलती है। जहां मौर्य काल में वृहद मात्रा में बलुआ पत्थर का उपयोग किया गया वही गुप्तकाल में बेसाल्ट,बलुआ पत्थर दोनों का उपयोग किया गया। गुप्तकाल में आग्नेय शैल (IGNEOUS ROCK) का ज्यादा उपयोग किया गया है।
मौर्य और गुप्तकाल के बीच के संक्रमण काल में शुंग आदि वंश की कामगारी को नहीं भुलाया जा सकता जिसमें सांची स्तूप के चारों दरवाजों पर उत्कीर्ण जातक कथाएं अद्वितीय है।
गुप्तकाल के बाद अनेक ऐसे शासनकाल आए जिन्होंने मूर्तिकला को बहुत ज्यादा बढ़ावा दिया। राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल, चेर, होयसल, कल्चुरि, परमार, चंदेल, चौहान, गांगेय, यादव आदि। अजंता-एलोरा, कान्हेरी, एलीफेन्टा,हाथीगुम्फा आदि गुफाएं बौद्ध मूर्तिकला का बेजोड़ उदाहरण है। परमार काल में राजा मुंज और राजा भोज ने विशेष योगदान दिया। राजा भोज ने मध्यप्रदेश के रायसेन के भोजपुर में एक भोजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। इस मंदिर में दुनिया की सबसे बड़ी शिवलिंग स्थापित की गई है साथ ही गंगा, यमुना, अप्सरा, पार्वती,सरस्वती,लक्ष्मी,विष्णु की मूर्तियों को देखा जा सकता है। कल्चुरीकालीन राजाओं के द्वारा बहुत से मंदिर के निर्माण का कार्य किया गया लेकिन इनकी सबसे अनोखी दो बातें हैं पहली शाक्त परम्परा को बढ़ावा देना तथा वराह मूर्ति की स्थापना करना।
पूर्वी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कल्चुरीकालीन मूर्तिकला को आसानी से देखा जा सकता है। अमरकंटक में जहां मंदिर समूहों में विभिन्न देवी-देवताओं जैसे कर्ण,सूर्य,लक्ष्मी,पातालेश्वर शिव मंदिर का निर्माण करवाया साथ ही साथ कलात्मक प्रतिमा स्थापित करवाई। जबलपुर में भेड़ाघाट के निकट कल्चुरी शैली में निर्मित चौसठ योगिनी का मंदिर जिसमें एक गोलाकार मंदिर में चौसठ योगिनियों की प्रतिमा स्थापित की गई है साथ ही मंदिर के बीचोंबीच शिव-पार्वती का मंदिर है। मध्यप्रदेश में अनेकों जगह कल्चुरी शैली के कार्य की छाप देखने को मिलती है। मंदिरों के बाहर वराह की मूर्ति की झलक देखने को मिलती है। चंदेल शासकों की अनुपम धरोहर है खजुराहों के मंदिर समूह जिसमें लगभग हर देवी-देवताओं की मूर्ति देखना सुलभ है। खजुराहों की एक मूर्ति बहुत प्रसिद्ध है जिसमें एक लड़की अपने दोनों हाथों से बैठकर शेर के दोनों अगले पैरों को पकड़े हुए है। खजुराहों अपनी विशेष प्रकार की मूर्तिकला के लिए जाना जाता है कामुकता से परिपूर्ण नग्न मूर्तियां दिखाई देती है जो ऋषि वात्सायायन के कामसूत्र पर आधारित है।
दक्षिण भारत में राजराजा जैसे अनेकों राजा हुए है जिन्होंने मूर्तिकला को बढ़ावा दिया है। चोल राजाओं के समय में तो कांस्य(bronze) मूर्ति का निर्माण अपनी चरम सीमा पर था। नटराज की कांस्य प्रतिमा आज भी मू्र्तिकला में सर्वोच्च स्थान रखती है। दक्षिण भारत में मंदिरों में स्थापित मूर्तियां लगभग आग्नेय शैल(IGNEOUS ROCK)निर्मित है। मूर्तियों के श्रृंगार पर विशेष ध्यान दिया जाता है। बालाजी, स्वामी अयप्पा, मुरुगन, मीनाक्षी, विरुपाक्षी, शिवलिंग का श्रृंगार अनोखे तरीके से किया जाता है। कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई है।
राजस्थान में लालपत्थर और संगमरमर की प्रचुरता होने से यहां मूर्ति कला बहुत तीव्र गति फला-फूला। मकराना का संगमरमर आज भी बहुत प्रसिद्ध है। जयपुर की एक गली का नाम तो मू्र्ति निर्माण के कारण खजाने वालों की गली रख दिया गया है। राजस्थान में राजाओं की कृपा से जैन धर्म अच्छी तरह फला फूला है जिसमें माउंट आबू का दिलवाड़ा मंदिर, रनकपुर का ऋषभदेव मंदिर आदि उदाहरण है। गुजरात में काले पत्थर का उपयोग मूर्तिकला में किया गया है।
भारत में हम जितना पूर्व की ओर जाते है तो वनों की सघनता उतनी बढ़ती जाती है। वनों की सघनता के कारण लकड़ी से बनने वाले सामान की मात्रा भी अधिक है। यहां लकड़ी से मूर्ति बनाने का काम भी सहज ही किया जाता है। चाहे हम ओडिशा से मणिपुर देखे तो लकड़ी की मूर्तियां दिखाई देती हैं। पुरी के जगन्नाथ जी की प्रतिमा हो या अन्य प्रतिमा लकड़ी से बनी हुई है।
भारत में वैसे तो कहा जाए तो मूर्तिकला तीन प्रकार से विभाजित किया है, गांधार,मथुरा और अमरावती शैली। गांधार शैली जिसे ग्रीको-रोमन,हिंद-यूनानी शैली भी कहा जाता है। इसे यह नाम देने के पीछे सीधा सा कारण है कि इसे बनाने की कला ग्रीस आई थी। इस शैली के बौद्ध प्रतिमा की यह खासियत है कि गौतम बुद्ध तपस्या में रत है साथ ही गहन मुद्राओं को धारण किए हुए है। उनके कपड़ों की सिलवट साफ-साफ देखी जा सकती है तथा आभूषण की मात्रा बिल्कुल कम है। इस शैली की मूर्तियां बनाने में बलुआ पत्थर और काले पत्थर का उपयोग किया जाता था। इस मूर्ति कला का प्रमुख क्षेत्र भारतीय सीमा से लेकर पश्चिमी पाकिस्तान और अफगानिस्तान का गांधार (कंधार)प्रदेश था। मथुरा शैली पूर्णत: भारतीय मूर्तिकला का उदाहरण है। जिसे बलुआ पत्थर में निर्मित किया जाता था। इस शैली के बौद्ध प्रतिमा की खासियत यह है कि इसमें गौतम बुद्ध प्रसन्नचित्त अवस्था में दिखाई देते है जो कि अपनी विभिन्न मुद्राओं में पद्मासन में बैठे हुए दिखाई देते है। केश विन्यास खुला हुआ होता है जो कि उन्मुक्तता को प्रदर्शित करता है। अमरावती शैली दक्षिण भारत में विकसित हुए एक अनोखी शैली है। इस शैली के अंतर्गत मूर्ति बनाने में संगमरमर का उपयोग किया जाता है। इसमें जातक कथाओं के अनुसार गौतम बुद्ध की प्रतिमा को गढ़ा जाता है।
मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं के आगमन के बाद भारतीय मूर्तिकला पर प्रतिबंध लग गया। भारत पर मुस्लिम शासकों ने लगभग 600 सालों तक शासन किया। इस्लाम में बुत अर्थात् मूर्ति परस्ती गैर-इस्लाम माना जाता है इसी कारण मुस्लिम शासकों के समय में अनेकों मूर्तियों के तोड़ा गया और किसी भी प्रकार की मूर्तिकला को बढ़ावा नहीं दिया गया। इसी कारण यह दौर भारतीय इतिहास में मूर्तिकला के लिए काला युग कहा जाता है। उसके बाद अंग्रेजों के 200 साल के शासन में भारतीय मूर्तिकला को ध्वस्त ही कर दिया क्योंकि भारतीय इस दौर में दो जून की रोटी के लिए तरसता था।
अंधेरा हमेशा के लिए नहीं होता है सूरज हर सुबह निकलता है। उसी तरह आज फिर से भारतीय मूर्तिकला उन्नति की राह पर अग्रसर हो रहा है।राजस्थान की संगमरमर से निर्मित मू्र्ति हो या ओडिशा की लकड़ी से निर्मित मू्र्ति या बस्तर में निर्मित पीतल की मूर्ति हो और कांसे से निर्मित मूर्ति हो या कर्नाटक की प्रस्तर मूर्तियां अपने शिखर पर हैं। भारतीय मूर्तिकला में फ्यूजन भी देखने को मिल रहा जिसमें भारतीय टच के साथ-साथ विदेशों से आयतित तकनीक का उपयोग कर मूर्ति कला को और समृद्ध बनाया जा रहा है।
।।जय हिंद।।
📃BY_vinaykushwaha
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