कबीरा खड़ा बाजार में लिए लकुटिया हाथ,
आपन घर जो फूंक दे चले हमारे साथ ।।
कबीर जी एक महान दार्शनिक एवं तत्वदर्शी थे । वे अपने दोहे के माध्यम से बताना चाहते हैं कि साधु का जीवन किसी भी तरह से बंधा नहीं है और साथ ही साथ कहते है कि जो अपने घर का त्याग कर दे वही सच्चा साधु है ।
इस समस्त संसार में भाँति -भाँति के लोग निवास करते हैं । सभी लोग अपनी दुनिया में मस्त रहते है । सभी के सुख, दुःख, समस्या आदि अलग होता है । सभी इस वास्तविक दुनिया में रहते हुए भी अलग - अलग काल्पनिक दुनिया संजोए हुए होते है ।
सभी लोगों की अलग - अलग पसंद और नापसंद भी होती हैं । रहीम जी का दोहा तो यही बताता है -
समै समै सुंदर सबै रुप कुरुप न कोए,
जिन की रुचि जैती जिते तिन तैती रुचि होए
रहीम जी दोहे के माध्यम से बताते है कि सभी व्यक्तियों की सोच में समानता नहीं है।
जल, जंगल और जमीन तीनों की दुनिया में बहुत अंतर है । इन तीनों में रहने वाले जीवों में केवल एक ही समानता है कि जीवित रहने के लिए श्वास लेते है और भूख लगने पर उदरपूर्ति करते हैं । इसके अलावा इनकी जिंदगी में सबकुछ अलग है सबकी अपनी जीवन शैली है । आहार श्रृंखला के माध्यम से जीवों के व्यवहार को समझने में हम सरलता पाते है कि मनुष्य सर्वाहारी जीव है और सर्वाधिक भूखा जीव है क्योंकि उसके समक्ष समस्त खाद्य पदार्थ होने पर भी प्रत्येक दिवस किसी नई वस्तु की मांग करता है ।
मोर पेट हाऊ, मैं न देऊ काहू ।
बघेली बोली की यह कहावत मानव जाति पर सटीक बैठती है कि मानव जाति खाने के मामले में बहुत ज्यादा स्वार्थी है ।
येषां न विद्या, न तपो, न दानं,
ज्ञानं न, न शीलम्, न गुणो, न धर्मः
ते मृत्युलोके भूमिभार्भूता
मनुष्य रुपेण मृगःश्चरंति ।।
जिस व्यक्ति के पास न विद्या है, न धर्म है, न गुण है, न शील है, न ही क्षमा करने की क्षमता है वह इस धरा पर मनुष्य रुप में होते हुए भी मृग के समान विचरण करता है । मनुष्य की अभिलाषायें कभी खत्म नहीं होती है उसमे हमेशा और अधिक की चाह बनी रहती है ।
साधु, संत, महात्मा के पास अद्भुत शक्ति होती है जिससे वह समाज में आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं । हमारे समाज में कहा जाता है कि वैवाहिक जीवन , जीवन को और भी ज्यादा सुखद बना देता है , परंतु जब इसी वैवाहिक जीवन में विपत्ति आती है तो उसका समाधान भी उसी व्यक्ति के पास होता है जो उस समाज से भिन्न होते हुए भी भिन्न नहीं है ।
व्यक्ति का जीवन कई मोड़ लेकर आगे बढ़ता है जिसे तुलसीदास जी ने इस प्रकार बताया -
धरा को यही प्रमान है तुलसी जो फरा,
सो झरा जो बरा सो बुतानो ।
हमारे धर्म ग्रंथ हमारे जीवन को कई भागों में बाँटकर बताते है कि जीवन के कितने स्तर होते है और उन स्तरों पर इंसानों को क्या करना चाहिए -
प्रथमं न अर्जिते विद्या, द्वितीयं न अर्जिते धनं।
तृतीयं न पुण्यं, चतुर्थं किं करिष्यति ।।
हिंदू धर्मग्रंथ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को शत वर्ष का मानकर उसे चार भागों में विभक्त किया गया है । 0-25 वर्ष तक की आयु तक ब्रह्मचर्य आश्रम होता है इसके अंतर्गत व्यक्ति विद्या ग्रहण करता है । 25-50 वर्ष तक गृहस्थाश्रम होता जिसके अंतर्गत व्यक्ति वैवाहिक जीवन व्यतीत करता है । 50-75 वर्ष तक वानप्रस्थाश्रम होता है जिसके व्यक्ति घर पर रह कर समस्त सांसारिक समस्याओं को त्याग देते है । 75-100 वर्ष तक संन्यासाश्रम होता है जिसमें व्यक्ति पूरी तरह गृह का त्याग कर देता है ।
बिनु पग चले, सुने बिनु काना ।
कर विधि करम, करे विधि नाना ।।
भूतों की भी अपनी अलग दुनिया होती है जिन्हें बनाने का श्रेय भगवान को ही जाता है । इंसान भी कई प्रकार के होते है और उनकी समझ भी । होनहार बिरवान के होत चीकने पात । इसी बात का उदाहरण हैं ।
राजा की अर्थात् अमीरों की अलग दुनिया होती है और रंक की अर्थात् गरीबों की अलग, तभी तो शायद यह कहावत बनी है कि - कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली ।
मेरी समझ से तो यही है "सबकी अपनी अलग दुनिया"।
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