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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

चलते-चलते (सीरीज - 18)


बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि सुबह उठना सेहत के लिए लाभदायक है और सुबह उठने से ढेर सारे काम हो जाते हैं। सुबह की ठंडी हवा तन-मन को तरो-ताजा कर देती है। गुनगुनी धूप आपको विटामिन डी देती है और आपको सेहतमंद बनाती है। ये बातें सुनने में जितनी कानों को जितनी अच्छी लगती हैं, उतनी अच्छी तरीके से इन्हें फॉलो करना आसान नहीं है। कम से कम मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं क्योंकि मैं उल्लू हूं। मैं ढेर सारे काम रात में ही निपटाया करता हूं। पढ़ना हो, वेब सर्फिंग, एक्सप्लोरिंग हो या ब्लॉग लिखना। मेरे लिए तो ये सब एक साधारण काम की तरह है। कॉफी का कप हो या चाय का कप और खाने के लिए स्नैक हो। रात में जागना मेरे लिए संजीवनी है।                         
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि मुझे सुबह बिल्कुल पसंद नहीं है। सुबह मुझे तो मखमली लगती है। गुनगुनी धूप में बैठना, सैर पर जाना, चाय की चुस्की लेना और अखबार पढ़ना ये सब सुबह के अभिन्न अंग हैं। ठंड की धूप के क्या कहने...वाह...वाह... किया जा सकता है। ठंड का मौसम मेरे लिए अमृत है। मेरा सबसे पंसदीदा मौसम । मुझे तो  कभी-कभी ऐसा लगता है कि बारह महीने ठंड का मौसम हो और मैं इसी तरह ठंड का लुत्फ उठाते रहूं। ठंड का मौसम होता है सुबह-सुबह गुनगुनी धूप में बैठकर चाय की चुस्की लेने का, अखबार पढ़ने का और गरमा-गर्म नाश्ता करने का। रेवड़ी, गजक, चिक्की, लइया खाने का। गन्ना, सीताफल, सिंघाड़ा का आनंद लेना है तो ठंड बहुत जरूरी है।

ठंड में बिस्तर का क्या कहना? इस बिस्तर से निकलने का जी चाहता ही नहीं है।  रजाई, कंबल और स्वेटर, जैकिट की सजावट जी को ललचाती रहती है। शॉल की गर्मी शरीर को आराम में चार चांद लगा देती है। बिस्तर का मोह त्यागना आसान नहीं होता है। ब़ड़े सोचने-विचारने के बाद बिस्तर को टाटा, बाय-बाय, सायोनारा कहना पड़ता है। पानी तो मानो इस तरह लगता है कि जैसे हिमालय से सप्लाई हो रहा है। पानी को आग पर तपा कर उसे गर्माहट दी जाती है ताकि छूने पर दांत न किटकिटाएं। फिर भी  ठंड में कुछ इस तरह लगता है कि हम केवल बस यूं ही वक्त बिताएं। 

जब मैं सर्दियों के मौसम में अपने गांव जाता था तो चाय पीने के बाद सीधे खेत की तरफ दौड़ लगाता था। हमारे बघेलखंड में इस मौसम में गेहूं, चना, अरहर, सरसों जैसी फसल बोईं जाती हैं। पहले इतना ज्ञान तो था नहीं फिर भी खेल-खेल में समझते थे। खेत की बारी में जाकर बिही(जिसे अमरूद भी कहा जाता है) खाते थे। सीताफल तोड़कर खाते थे। खेतों में सरपट दौड़ लगाते थे। भले फिर चाहे दादी डंडा लेकर दौड़ लगाएं। ये तो हुई सुबह की बात। दोपहर को हम नदी किनारे पहुंच जाया करते थे। तैरना तो आता नहीं था तो किनारे ही  बैठकर थोड़े से पानी में नहाकर वहीं कपड़े पहनकर आन टोला (जिसे दूसरा मोहल्ला कहा जाता है) चले जाते थे। वहां सूरजमुखी और बेर का जायजा लेकर आते थे। 

शाम को लौटते हुए खेत से हरी और ताजा सब्जी तोड़कर ले जाते थे। रात का खाना मतलब चूल्हे की गरमा-गरम रोटी और सब्जी जीभ को तृप्त कर देती थी। मिट्टी के तेल (कैरोसिन) से बनी चिमनी(लैंप) के सामने बैठकर खाना खाया करते थे। खाने का मजा तब और बढ़ जाया करता था जब गक्कड़ और भरता खाया करते थे। रात में गप्पे लगाते थे और पैरा(पराली) से बने गद्दे में सोया करते थे। रात में नीले और साफ आकाश में ढेर सारे तारे दिखाई देते थे। गांव की रात शांत और गंभीर हुआ करती थी। इस गंभीरता को तोड़ते थे झींगुर और टिटहरी(रात में बोलने वाला पक्षी)। झींगुर फिर भी रहम खाकर बीच-बीच में चुप हो जाया करते थे लेकिन टिटहरी रात शोर मचाती थी और कभी-कभी तो सुबह तक। 

सूरज की लालिमा आसमान में छिटकने से पहले ही मुर्गियों की बांग सुनना और गाय-भैंस के अम्मा की वाली चिर-परिचित आवाज सुनने मिलती। दूर-दूर तक कोहरे की चादर और कोहरे के बीच बुत से खड़े पेड़ होते। घेरे में बैठकर गांव के बड़े लोगों का आग  तापना और बच्चों की भांप प्रतियोगिता यानी मुंह से कौन कितनी भांप निकालता है।  सूरज के क्षितिज पर आते ही वो चू्ल्हे वाली चाय का स्वाद आज भी याद है। चाय का सौंधापन मुंह में रच-बस जाया करता था। 

ठंड के मौसम में यात्रा करने का अपना ही मजा है। ट्रेन, बस और हवाई जहाज तीनों का अपना ही अलग मजा है। कोहरे को चीरती ट्रेन मानो इस तरह लगती है कि जैसे कोई दिव्यात्मा प्रकट हो गई हो। ट्रेन की ठंडक भरी यात्रा चाय की चुस्की आपको अलग ही आनंद देती है। दूर तक फैले खेत, पहाड़, मैदानों में कोहरे की चादर को झीना करती सूरज की किरण दिखाई देती है। हवाई जहाज से पूरा शहर ही दिखाई देता है कि कैसे कोहरे की चादर शहर को लपेटे रहती है। ऊपर से सबकुछ धुंधला दिखाई देता है लेकिन बहुत प्यारा दिखाई देता है।  

सर्दी के मौसम में मकर संक्रांति का पर्व मुझे सबसे शानदार लगता है। गजक, रेवड़ी, तरह-तरह के लड्डू, मुंगौंड़ी खूब पसंद है। तिल के लड्डू, बेसन के लड्डू, चावल के आटे के लड्डू, गुड़ के लड्डू, मखाने के लड्डू, गेहूं के आटे के लड्डू मानो अंतहीन श्रृंखला यूं ही चलते रहे। मुझे तो लगता है कि साल में मकर संक्रांति पचास बार आए। हरी सब्जी वाली खिचड़ी और ऊपर से टमाटर की चटनी मिलाकर खाना ठंड के असली मजे हैं।

ठंड की महानगाथा है मैंने तो बहुत कुछ जोड़ दिया बाकि आपके लिए। ठंड सदैव रहे....। 

📃BY_vinaykushwaha

सोमवार, 28 सितंबर 2020

मेरा दो दिनों वाला वीक ऑफ





भारत में पांच दिनों के वर्किंग कल्चर वाला माहौल कम देखने को मिलता है लेकिन मेरा सौभाग्य था कि मुझे मिला। पहली फुलटाइम नौकरी में दो दिनों का वीक ऑफ बड़े किस्मत वालों को मिलता है। एबीपी न्यूज में नौकरी करने के दौरान दो दिनों वाला वीक ऑफ का आनंद मैंने जमकर उठाया। घूमने का शौक था और जीवन में नौकरी के अलावा और भी बहुत कुछ करना था इसलिए मैंने इन दिनों को जीभर के जीया। शिफ्ट खत्म करके जल्दी से घर आना और फिर ट्रेन, बस या प्लेन पकड़कर घूमने निकल जाना। 


घूमना मेरे लिए हमेशा से नई ऊर्जा देने वाला रहा है। घर से पढ़ाई करने के दौरान भी मैं घूमने निकल जाता था। कभी जंगलों को देखने, कभी नदी को निहारने, कभी ऐतिहासिक जगहों पर, कभी मंदिरों को देखने, कभी शहर की नब्ज टटोलने, कभी अपने पूर्वजों को देखने निकल पड़ता था। घूमने के बाद में मुझे जो सुकून मिलता है वो और किसी एक्टिविटी से नहीं मिलता। साल 2018 में दिल्ली आने के बाद घूमने का मतलब मेरे लिए केवल खंभा छूकर आना नहीं था। हमारे बघेलखंड में एक कहावत है "खंभा छूकर आना" इसका मतलब है जल्दबाजी करना। दिल्ली आने के बाद मैं घूमने का मतलब ट्रैवलिंग और ट्रैवलॉग में बदल गया। 


मीडिया में काम करने वाले जानते हैं कि सभी एम्प्लाई को वीक ऑफ एक साथ नहीं मिलता है। वो बड़े किस्मत वाले होते हैं जिन्हें वीक ऑफ शनिवार और रविवार को मिलता है। मुझे तो वीक ऑफ सोमवार से शुक्रवार के बीच ही मिलता था। इन दो दिनों को मैंने खूब जिया और जीभर के जिया। दिल्ली में रहने का एक फायदा ये होता है कि यहां से देश के किसी भी कोने में जाने के लिए ट्रेन, बस और फ्लाइट आसानी से मिल जाती है। इसका ये फायदा होता है कि आपका ढेर सारा समय बचता है। दिल्ली के आसापास घूमने के लिए ढेर सारे ऑप्शन भी हैं। जिंदगी जीने के लिए आप जो भी करें लेकिन मेरा मानना है कि आप घूमने जरूर निकलें।


राजस्थान, बिहार, यूपी, एमपी, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल, छत्तीसगढ़, जम्मू कश्मीर में खूब घूमा। कई बार लोग मुझसे पूछते हैं कि इतना घूम कैसे लेते हो? मेरा केवल एक ही जवाब होता है कि बस घूम लेता हूं। मुझे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की एक बात हमेशा याद आती है कि "सपने वो नहीं होते जो आप सोने के बाद देखते हैं, सपने वो होते हैं जो आपको सोने नहीं देते''। घूमने के लिए मेरा इतना ज्यादा उत्साह है कि गहरी नींद से उठकर भी घूमने के लिए तैयार हूं। कॉलेज में उन लोगों में से एक था जो घूमने का प्लान बनाते थे और घूमने के लिए सबसे पहले हामी भरते थे।


कॉलेज में पढ़ाई के दौरान घूमने का समय ही समय था लेकिन पैसों की कमी होती थी। आज जब सारे दोस्त नौकरी कर रहे हैं तो पैसा तो है लेकिन टाइम नहीं है। खैर मैं तो ठहरा अल्हड़ आदमी। सभी जगह अकेले ही निकल पड़ता हूं। दिल्ली के चांदनी चौक जाकर गली कूचों में घूमना हो या जयपुर में बड़ी चौपड़ में घूमने, राजस्थान की रेत के धोरे देखना हो या उत्तराखंड, हिमाचल के पहाड़ देखना। सबकुछ मेरे लिए रोमांच से भर देने वाला है। सोलो ट्रेवलिंग का भूत कोरोना काल में बड़े मुश्किल से उतरा। खुद को बहुत समझना पड़ा कि विनय बाहर खतरा बहुत है जरा संभलकर। कोरोना की वजह से मैंने घूमना-फिरना बिल्कुल बंद कर दिया है। मार्च से सितंबर तक 6 महीने हो चुके हैं नोएडा से बाहर नहीं निकला हूं। कभी-कभी लगता है कि किसी काल कोठरी में कैद हो गया हूं। 


कोरोना का ये दौर जल्दी से गुजर जाए। मुझ जैसे कितने ही परिंदे पिंजड़े में फड़फड़ा रहे होंगे। दो दिनों के वीक ऑफ में घूमने इतना आसान भी नहीं था। पहले से टिकट करना, होटल बुक करना, कैब बुक करना, कोई हॉली डे तो नहीं ये देखना, ऑफिस का ओवर टाइम, बॉस का वीक ऑफ ही कैंसिल कर देना और भी बहुत कुछ। कई बार तो मैं नाइट शिफ्ट पूरी करके दिन में ही निकल पड़ता था घूमने। अपनी नींद ट्रेन और बस में ही पूरी करता था। कई बार दिन की शिफ्ट पूरी करता और नाइट को ट्रैवल करता था। इसकी सबसे बड़ी वजह होती टाइम सेविंग। इस तरह मैं घूमने के लिए ज्यादा से ज्यादा समय बचा पाता था। 


जहां मैं घूमने जाता था उसके बारे में सारी जानकारी पहले से ही जुटा लेता हूं। मैं कुछ चुनिंदा जगहों को चुनता हूं और उसका इतिहास, भूगोल और वर्तमान सबका छानबीन लेता हूं। कम खर्च हो उसके लिए मैं शहर में टूरिस्ट प्वॉइंट जाने के लिए पैदल सफर करता हूं। कम किराए वाले होटल चुनता हूं। रेस्त्रां भी इस तरह चुनता हूं कि महंगें ना हों, खरीददारी नहीं करता हूं क्योंकि टूरिस्ट प्लेस चीजें सबसे महंगी बिकती हैं। कोशिश करता हूं कि ऑनलाइन पेमेंट करूं ताकि समय और पैसे दोनों बचा सकूं। म्यूजियम और दूसरी जगहों पर लगने वाले टिकट को पहले से ही संभव हो तो ऑनलाइन बुक कर लेता हूं। पानी की बोतल साथ लेकर चलता हूं ताकि बार-बार पानी की बोतल नहीं खरीदना पड़े। 


ठंड में सबसे ज्यादा घूमने की कोशिश करता हूं। इसके दो फायदे हैं पहला ट्रेन, बस और फ्लाइट में टिकट जल्दी और आसानी से मिल जाती है, दूसरा भीड़-भाड़ से मुक्ति मिलती है। गर्मियों के दिनों में घूमने वालों की भीड़ बढ़ जाती है। बच्चों की स्कूल की छूट्टी के कारण लोग बड़ी संख्या में घरों से बाहर निकलते हैं। बारिश में घूमना आपको कष्ट दे सकता है। बारिश आपके घूमने के प्लान को कभी भी मिट्टी पलीत कर सकती है। हां, आप किसी ऐसी जगह जा रहे हैं जहां बारिश में ही मजा है तो बात अलग है। मुझे जब भी मानसून में घूमने जाना पड़ता है तो दो-चार दिनों का वेदर अपडेट साथ रखता हूं। देख लेता हूं कि जब मैं घूमने जा रहा हूं तब एक्स्ट्रीम वेदर तो नहीं है ना।  

घूमना आसान नहीं है लेकिन दुनिया का सबसे रोमांचित करने वाला शौक  है। 

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

चलते-चलते (सीरीज - 17 ) : मेरा अंतर्मुखी होेना मेरे लिए कैसे कष्टदायक साबित हुआ

 

आज मुझे नोएडा में रहते हुए 2 साल से भी ज्यादा हो गए हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि दिल्ली-एनसीआर में रहूंगा और एबीपी जैसे बड़े न्यूज चैनल में काम करने का मौका मिलेगा। साल 2018 में जब मेरा कैंपस सिलेक्शन हुआ तो मुझे ज्यादा खुशी नहीं हुई थी क्योंकि मन में कुछ और ही था। मन में जो था उसका यहां जिक्र नहीं करूंगा लेकिन कुछ-कुछ बातें जरूर कहूंगा। मुझे कैंपस सिलेक्शन से भले ही खुश नहीं थी लेकिन दुखी भी नहीं था। मेरा मन तो उन लोगों के लिग दुखी था जो आस लगाए बैठे थे कि एबीपी न्यूज आएगा और हमारा सिलेक्शन होगा। मेरे कुछ दोस्त तो इसके लिए वाकई लायक थे। कई के पास एक्सपीरियंस था तो कई टेक्नोलॉजी में आगे थे तो कई तेज-तर्रार थे। मैं अपने आपको रेस में कहीं भी नहीं गिनता ही नहीं था। 


जब मेरा एबीपी न्यूज में सिलेक्शन हुआ तो कुछ की सोच ऐसी थी कि इसका कैसे हो गया। ये है कौन ? इससे अच्छा तो वो था फिर भी उसका सिलेक्शन नहीं हुआ। मेरे बारे में तरह-तरह के विचार गढ़े जाते थे। मैं जानता था ऐसा होना लाजिमी था। इसका सबसे बड़ा कारण था मेरा अंतर्मुखी होना जिसे अंग्रेजी में Introvert कहते है। मैं ज्यादा लोगों से बात नहीं करता था। मुझे नए लोगों से मेलमिलाप में कठिनाई होती है। मैं थोड़ा रिजर्व तरह का इंसान हूं। मैं किसी से ज्यादा बात नहीं करता लेकिन जब मेरा कोई दोस्त बन जाता है तो मैं उससे खूब बातें करता हूं। यूनिवर्सिटी में जब मैंने एडमिशन लिया था तब मैं क्लास लेता था और सीधे अपने रूम पर चला जाता था। न किसी से मिलना, न किसी से बातचीत करना और न ही किसी को हैलो-हाय करना। जीवन में मुझे बहुत कुछ मिला है। 

जिसकी मैंने इच्छा भी नहीं की वो भी मुझे बड़े आराम से मिला। मैंने पहले सेमेस्टर में मैंने शायद ही किसी से बात की हो, हां ये जरूर है कि जरूरत पड़ने पर मैंने लोगों से बात की है। दूसरे सेमेस्टर में मेरा दायरा बढ़ा, मैंने लोगों से दोस्ती की। मेरी दोस्ती क्लास तक ही सीमित थी। वहीं तब तक मेरे क्लासमेट के फ्रेंड यूनिवर्सिटी के दूसरे डिपार्टमेंट के भी बन चुके थे। इसका सबसे बड़ा कारण ये हो सकता है कि मैं बहुत अकडू और अक्खड़ स्वभाव का था। मैं किसी से सीधे मुंह बात नहीं करता था। लोगों का मजाक मुझे पसंद नहीं था। धीरे-धीरे ये स्वभाव गुम होता चला गया और मेरे दोस्तों का दायरा बढ़ता चला गया। फर्स्ट सेमेस्टर की अपेक्षा सेकेंड सेमेस्टर में मेरे दोस्तों का दायरा बढ़ा। मैं उन लोगों के करीब आता गया जो मेरे टाइप के नहीं थे। जीवन बहुत कुछ सिखाता है।


तीसरे सेमेस्टर में वो सारी गतिविधियां होने लगीं जो मुझे अनैतिक लगती थीं। चाय की दुकान पर घंटों तक बैठना, कैंटीन में बैठकर गप्पे मारना, कॉलेज में फालतू बैठना, शॉपिंग मॉल जाना, घूमने जाना और रात में देर तक घूमना। सब कुछ धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा। कभी-कभी तो मन करता था कि ये मैं नहीं हूं। मैं कभी भी इस तरह से अपने आपको नहीं पाया था। चौथे सेमेस्टर तक यूनिवर्सिटी से इतना लगाव हो गया मन में केवल यूनिवर्सिटी समा गई। जीवन को सरल और सीधा देखने वाला इंसान आज इतना ज्यादा कॉम्प्लेक्स हो गया कि कई बार मैं अपने आपको देखकर सोचता था कि क्या ये सही है। कई बार तो ये भी होता था कि मैं और मेरे दोस्त रात में घूमने के लिए उज्जैन निकल जाते थे। भोपाल से रात 10 बजे निकलना और रात को 3 से 4 बजे तक पहुंचना फिर राम घाट में नहाना और फिर महाकाल मंदिर में जाकर दर्शन करना फिर दिन में भोपाल लौटना सबकुछ अलग अनुभव होता था। 


मैं खुद ट्रैवल लवर हूं। मुझे ट्रैवल करना पसंद है और ट्रेवलॉग लिखना पसंद है। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान भी मैं कहीं ना कहीं चले जाता था। घूमने का मतलब ये नहीं कि मैं चार लोगों को साथ लेकर जाऊं ऐसा नहीं होता था। मैं सोलो ट्रैवल पसंद करता था। उस यात्रा की व्याख्या अपने ब्लॉग से करना मुझे पसंद था। आज भी ये सिलसिला जारी है और रहेगा शायद। आज मुझे घर से बाहर रहते हुए 6 साल से ज्यादा हो गया है। इन 6 सालों में मैंने जितना जिया और जितना सीखा है, उतना शायद पहले कभी नहीं। मेरे 6 साल कभी न भूलने वाले रहेंगे क्योंकि इन 6 सालों में मैंने कई राज्यों और ढेर सारे शहरों की यात्राएं की। यात्राएं हमेशा सबक देती हैं और कुछ करने के लिए कहती हैं। मैंने इन यात्राओं से सीखा अलग-अलग जगहों पर जाने से भाषा, बोली और ट्रैवल एक्सपीरियंस को बहुत संजीदा तरीके से लिया है। 


आज मैंने Introvert वाली दीवार को तोड़ी है लेकिन एक पतली झिल्ली मुझे तुरंत रिएक्ट करने से रोकती है। मेरी झिझक मुझे एकदम से कुछ करने से रोक देती है। ये झिझक मुझे लोगों से दूर ले जाती है और मुझे कुछ सीखने से रोकती है। आज झिझक को अलग करना चाहता हूं क्योंकि ये मेरे आगे बढ़ने में बाधक है। इस झिझक में मुझे वर्कप्लेस पर काम करने से रोका और नया कुछ सीखने से रोका। एबीपी न्यूज में काम करने के दौरान मैंने सीखा की लोग बहुत निर्दयी होते है। आपको जीवन जीने के लिए इस निर्दयी दुनिया में हमें जीवित रहने के लिए लड़ना बहुत जरूरी है।

 

BY_vinaykushwaha   

रविवार, 6 सितंबर 2020

पुस्तक समीक्षा : दलाई लामा की आत्मकथा "मेरा देश निकाला" (FREEDOM IN EXILE : THE AUTOBIOGRAPHY OF THE DALAI LAMA)


तिब्बत के बारे में आपने पहले भी सुना होगा। आज भले ही तिब्बत चीन का हिस्सा है लेकिन एक समय था जब तिब्बत एक स्वतंत्र देश था। तिब्बत के कई देश के साथ राजनीतिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध थे। तिब्बत, चीन के दक्षिण में स्थित है जिसकी सीमा भारत, नेपाल और भूटान से लगती है। साल 1959 से पहले तक तिब्बत की अपनी सभ्यता और संस्कृति थी। यहां बौद्ध धर्म का अलग ही रंग देखने को मिलता था। चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो ने अपनी किताब "मेरा देश निकाला" में बताया है कि चीन ने कैसे सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर तिब्बत पर कब्जा कर लिया।

किताब "मेरा देश निकाला" चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो की आत्मकथा है। ये किताब अंग्रेजी में लिखी गई Freedom in exile : The Autobiography of the Dalai Lama का हिंदी अनुवाद है। इस किताब में दलाई लामा ने अपने दलाई लामा बनने, तिब्बत पर चीन ने कैसे कब्जा किया, बातचीत का लंबा दौर, निष्कासन और भारत में शरण कैसे मिली इसके में बारे में सारी जानकारी दी है। किताब केवल और केवल दलाई लामा को नहीं बताती बल्कि तिब्बत की संस्कृति, तिब्बत के रहन-सहन और खान-पान, वहां के लोगों के बारे में जानकारी देती है। मठ, मंदिर और ऊंचे-ऊंचे हिमालय के बारे में भी जानकारी देती है। किताब भाषा से लेकर राजधानी ल्हासा और तिब्बत की खूबसूरती के बारे में दिलचस्प जानकारी देती है। पहले तिब्बत में किसी भी देश का आम नागरिक जा सकता था लेकिन आज चीन का कब्जा होने के बाद ऐसा करना मुश्किल है क्योंकि वहां टूरिस्ट पर कई तरह की पाबंदियां लगाई जाती है। 

दलाई लामा ने किताब में लिखा है कि तिब्बत के कई राज्य थे। इन्हीं में से एक राज्य था आमदो। इसी राज्य में चौदहवें दलाई लामा का जन्म हुआ था। तिब्बत में दलाई लामा को चिन्हित करने की परंपरा है जिसमें पूर्व के दलाई लामा अगले दलाई लामा के बारे में जानकारी देते थे। तेरहवें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो ने ही तेनजिन ग्यात्सो का नाम सुझाया था। तेरहवें दलाई लामा की मृत्यु के बाद चौदहवें की खोज की गई उन्हें ल्हासा लाया गया। ल्हासा में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। ल्हासा के विशाल और भव्य पोटाला हाउस में रहते हुए तेनजिन ग्यात्सो ने अपनी सारी परिक्षाएं पास की थीं। 

जो लोग तिब्बत के विषय में जानना चाहते हैं और उत्सुक हैं उनको जरूर "मेरा देश निकाला" पढ़ना चाहिए। किताब  में तिब्बत के बारे में  ढेर सारी रोचक जानकारी दी गई हैं। कैसे तिब्बत में त्योहार मनाए जाते हैं? सबसे बड़ी जानकारी तो ये है कि दलाई लामा कैसे रहते है? क्या करते हैं? अपना समय कैसे व्यतीत करते हैं? सब कुछ है इस किताब में। बर्फ से ढंके पर्वत पर बसा तिब्बत बेहद शानदार देश था। दलाई लामा किताब में बताते हैं कि कैसे ठंड मौसम में पोटाला हाउस और गर्मियों के दिनों में नोबुलिंग्का हाउस में दलाई लामा दिन बिताते थे। किताब में दलाई लामा बताते हैं कि दलाई लामा के पास कोई दैवीय शक्ति (Super power) नहीं होती है। दलाई लामा भी आम इंसान की तरह होता है लेकिन लोगों की आस्था उसे बड़ा बनाती है। तिब्बतियों के लिए दलाई लामा सर्वोपरि हैं वे दलाई लामा को पहला व्यक्ति मानते हैं। चौहदवें दलाई लामा किताब में लिखते हैं कि तेरहवें दलाई लामा भविष्य के बारे में योजनाएं बनाते थे और आधुनिक वस्तुओं में यकीन रखते थे। 

किताब में दलाई लामा लिखते हैं कि चीन ने तिब्बत को सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर तबाह कर दिया। लाल क्रांति को सांस्कृतिक क्रांति का नाम देकर तिब्बत के मूल्यों (Value)को तोड़ा और तिब्बत के लोगों ने इसका विरोध किया तो उन पर अत्याचार किया गया। चीन ने तिब्बत को अंधेरे में रखकर 17 सूत्रीय योजना को लागू किया। तिब्बत सरकार की अनुमति के बिना नियमों को लागू किया गया। धीरे-धीरे तिब्बत में चीनी आर्मी को तैनात किया गया। चीनी आर्मी के अलावा चीनी लोगों को लाकर तिब्बत में बसाया गया। दलाई लामा लिखते हैं कि जब में बीजिंग दौरे पर गया तो मेरी मुलाकात सुप्रीम लीडर माओ से हुई। जब मैंने उनसे तिब्बत के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि तिब्बत की अनुमति के बिना कुछ भी नहीं होगा। जब माओ से विदा ली तो उसने कहा कि धर्म जहर है। 

तिब्बत की अनुमति के बिना काम होते रहे। दलाई लामा आगे बताते हैं कि तिब्बत की राजनीतिक नीतियों, सांस्कृतिक कार्यों में और धार्मिक कार्यों में दखल दी जाने लगी। विकास के नाम तेजी से तिब्बत में सड़क और पुल बनाए जाने लगे। दलाई लामा का कहना है कि ये पुल और सड़कें तिब्बत के विकास के लिए नहीं बल्कि चीन की सेना के सामान की आसान पहुंच के लिए बनाया गया था। जब तिब्बत में चीन का दखल बहुत अधिक हो गया तो दलाई लामा ने भारत समेत कई देशों से मदद मांगी लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। 

दलाई लामा आगे कहते है कि भगवान बुद्ध की 2500वीं जयंती के अवसर वे जब गया आए तो भारत सरकार से उन्होंने शरण मांगी जिसे भारत सरकार ने अस्वीकार कर दिया। भारत की इस इंकार का वे कारण बताते हैं कि साल 1954 में चीन और भारत के बीच एक समझौता हुआ था जिसे पंचशील सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। भारत ने इस सिद्धांत के वजह से चीन के किसी भी मामले में दखल नहीं दी। जब साल 1959 को तिब्बत से भागकर दलाई लामा भारत आए तो प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें शरण दी। तब केवल दलाई लामा को ही नहीं बल्कि लगभग 60 हजार लोगों को भारत में शरण दी। तिब्बतियों को शरण देने के साथ-साथ भारत सरकार ने शरणार्थियों को कामकाज की सुविधा भी मुहैया करवाई। 

तिब्बत पर चीन ने कैसे कब्जा किया? तिब्बत के लोगों पर अत्याचार करके तिब्बत में तिब्बतियों को ही अल्पसंख्यक बना दिया। यदि आप तिब्बत के बारे में, दलाई लामा के बारे में और चीन की कुचाल के बारे में जानना चाहते हैं तो आपको जरूर इस किताब से बहुत कुछ मिलेगा। 


BY_vianykushwaha 

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

शौर्य का स्मारक

भारत की रज का कण-कण भी  भारत माता की जय बोलता हैं जिसका साक्षात उदाहरण भोपाल में नवनिर्मित शौर्य स्मारक हैं । शौर्य स्मारक भारत  के उन सपूतों के लिए हैं जिन्होंने अपने प्राण भारत की आन, बान और शान की बलि वेदी पर न्यौछावर कर दिये । शौर्य स्मारक का निर्माण केवल सैनिक का जीवन दिखाने के लिए नहीं है बल्कि यह आमजन को भी जोडता हैं ।
                            शौर्य स्मारक का निर्माण अरेरा हिल्स पर किया गया है, जिसकी लागत लगभग41करोड़ हैं जो लगभग 13 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है । यह स्मारक भारत का एकमात्र सैनिकों को समर्पित स्मारक है । इस स्मारक में कई संरचनायें  हैं जो अदभुत एवम्  अद्वितीय हैं ।
                 सबसे पहले मुख्य प्रवेश द्वार के बायें ओर खुला रंगमंच तथा कैफ़ेटेरिया है तथा दाईं ओर मुख्य संरचना हैं । मुख्य संरचना में  सर्वप्रथम शौर्य वीथी में प्रवेश करते हैं,जिसकी शुरूआत एक गैलरी से होती हैं ,जिसके एक ओर दीवार पर भारत का इतिहास है जो हमें  महाभारत काल से लेकर आजादी  प्राप्त होने तक के दर्शन करा रही है तथा दूसरी ओर की दीवार पर राष्ट्रभक्ति की कवितायें पढ़ने मिलती हैं  । शौर्य वीथी में आगे जाने पर हमें अपने ध्वज का स्वरूप देखने मिलता है कि कैसे और कितने बदलाव आये जिनकी प्रदर्शनी देखने योग्य हैं । तीनों सेनाओं के प्रमुख अर्थात भारत के प्रथम व्यक्ति राष्ट्रपति के  चित्रों की प्रदर्शनी शोभायमान हैं जिसमें डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी है । थोड़ा आगे बढ़ने पर तीनों सेनाओं नौसेना, थलसेना और वायुसेना  तीनों के प्रमुखों के चित्रों की प्रदर्शनी लगी है ।
                         शौर्य वीथी में रणक्षेत्र को भी दर्शाया गया है जहाँ आसमान में हेलीकाप्टर और लड़ाकू विमानों को उडते हुए दिखाया गया है, वही रेगिस्तान में टैंको को अभ्यास करता दिखाया गया और समुद्र में जहाजों और एयरक्राफ्ट कैरियर को रणक्षेत्र में तरते हुए दिखाया गया है । शौर्य वीथी में शून्य डिग्री रूम भी है जो हमें सियाचिन में सैनिकों के योगदान को ध्यान दिलाता है । शौर्य वीथी में सबसे अनोखी बात यह थी कि मध्यप्रदेश के शहीद जवानो के गाँवों से मिट्टी को एक पात्र में इकटठा किया गया है जिसके कण - कण को शहीद के समान माना गया है ।
                          शौर्य वीथी से बाहर आने पर हम जीवन(LIFE) नामक संरचना में प्रवेश करते है, जिसका वातावरण बेहद ही शांत है । यह संरचना चौकोर बनी हुई है जिसमें चारों ओर सीढ़ियां बनी हुई हैं जो जीवन उतार -चढ़ाव को दर्शाती हैं । हरी घास सुख के पलो को और बहता हुआ जल सदैव आगे बढ़ने का मार्ग दिखलाता है । इसी प्रकार का जीवन सैनिक का भी है और आमजन का भी ।
                                     जीवन(LIFE) नामक संरचना से आगे बढ़ने पर युद्ध का मंच ( THEATRE OF WAR ) नामक संरचना आती है जोकि सैनिकों के जीवन में आई शत्रु चुनौतियों को दिखलाता हैं । इस संरचना को गोलाकार बनाया गया है तथा प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग किया गया है । इस संरचना में लाल प्रकाश का प्रयोग किया गया है जो युद्ध की विभीषिका को प्रदर्शित करता हैं ।
                                           युद्ध पर विजय पाने वालों को बहादुर तथा युद्ध करते - करते प्राण न्यौछावर करने वाले को शहीद कहा जाता है, इसी से जुड़ी है अगली संरचना जिसका नाम है मृत्यु (DEATH ) । मृत्यु सभी व्यक्तियों की अंतिम सीढ़ी है । मृत्यु पर विजय वही व्यक्ति पा सकता है जिसने देश के लिए कुछ किया हो जैसे सैनिक इनका जीवन मृत्यु पर विजय पा लेता है जिसे संरचना के माध्यम से दर्शाया जिसमें जलता हुई ट्यूब को आकाश की ओर दिखाया गया ।
       शौर्य स्मारक में इन संरचनाओं के अलावा बगीचा भी जिसमें भाँति -भाँति के पेड़ पौधे हैं । एक स्मारक है जिसे एक ओर से देखने पर रक्त की बूँद तथा दूसरी ओर से देखने पर बंदर दिखाई देता है । गुलाबों के बगीचे से होकर आगे जाने पर सामने आता है 62 फुट लंबा स्मारक जिसके आधार पर पानी भरा हुआ है जिसे नौसेना की संज्ञा दी गई है । काले ग्रेनाइट को थलसेना तथा सफेद ग्रेनाइट को वायुसेना की संज्ञा दी गई है । स्मारक के बिल्कुल सामने अमर जवान ज्योति जल रही हैं जिसे  अत्याधुनिक तकनीक होलोग्राफिक से जलाया जा रहा है । स्मारक के बाई ओर उल्टी बंदूकों पर टोपियाँ रखी हुई हैं तथा दाई ओर बूट और पीछे ग्लास प्लास्क पर मध्यप्रदेश के शहीद जवानों के नाम लिखें हुए हैं ।
                      यहीं  हैं हमारा पहला शौर्य स्मारक ।

जीवन और सिध्दांत

कहा से शुरू करूँ , ठीक है समाज में विषमतायें विद्यमान हैं परंतु व्यक्ति दूसरो की भावनाओ को भी तो समझें । जीवन में मोड़ अनेक हैं जिन्हें सकारात्मक लेना हमारी जिम्मेदारी हैं और उसे रचनात्मक कार्यो में परिणित करना और अधिक जरूरी है क्योकिं केवल सकारात्मक सोच से सारी उपलब्धियों को प्राप्त करना आसान नहीं हैं।
    व्यक्ति विशेष के अपने सिध्दांत होते हैं और वह जहाँ तक संभव हो सके तो निभाने की कोशिश करता हैं , परंतु आज व्यक्ति अपने आप को समझाने की जगह वह दूसरों पर अपने विचार थोपनें , सिध्दांतों को लादने और अपने आप को सामने वाले से अधिक श्रेष्ठ जताने की
कोशिश करता हैं ।
                      बड़ो का सम्मान करना अति आवश्यक हैं क्योंकि वे घर की शान होते हैं । बड़े बूढ़ो के आदर्श ,नियम - कायदे ,आचार- विचार, व्यवहार करने के तरीके होते हैं । इसलिए कहा भी गया हैं कि -

अभिवादन शीलस्य नित्यम् वृध्दोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्ध्दन्ते आर्युविद्यायशोबलम्।।

अर्थात् बड़ो का आशीर्वाद प्राप्त करने से आयु ,विद्या ,यश और बल में वृध्दि होती हैं । बड़ो से कुछ न कुछ हमेशा सीखने के लिए मिलता हैं ।
जीवन के मूल्य को हम उन्हीं से सीख सकते है जो हमारे मार्गदर्शक हो अर्थात् हमारे बडे़ । संस्कार भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते हैं जिसमें बड़े बूढ़ो का विशेष योगदान होता हैं ।
अनुशासन कभी भी विरासत में नहीं मिलता परंतु उसे सिखाया या पालन करवाया जा सकता हैं ।जीवन में  संस्कार एवं अनुशासन दोनों का महत्व है पर हमारे अग्रजो के बिना संभव नहीं है ।
           बड़ो का कार्य प्रमुखता से मार्गदर्शन हैजो वे करते है पर कभी कभी अति मार्गदर्शन भी गंभीर होता हैं क्योकि व्यक्ति अपनी शक्तियों को भूलकर केवल दिखाये गये मार्ग पर चलता है और अपने प्रयासों को करना भूल जाता है । सिध्दांतो का प्रयोग आजकल हथियार के रूप में किया जानें लगा हैं ।अपनी बात को मनवाने के लिए सिध्दांतो का हवाला दिया जाता हैं।
                                                   
"जीवन एक नदी हैं ,जो सदैव आगे बढ़ता हैं।"

धूप

धूप सहारा देती है, धूप किनारा देती है |
अविरल निर्झर झरने सी धूप सुहानी गिरती है |
मानव को मानवता के लिए सदैव अग्रसर करती है|धूप सहारा.....

तिमिर को भक्ष लेती है,दीपक को धन्यवाद करती है|
महान मानव निश्चिंत भाव से निज कर्म को पूर्ण करते है| क्योकिं धूप सहारा....

धूप का अपना स्व नहीं हैं ,परोपकार हैऔर ध्येय यही हैं|
जीवन में आशा भरती हैं, निराशा दूर करती हैं| क्योंकि धूप सहारा....

चलते - चलते ( श्रृंखला 5 )

यायावरी का अपना ही मजा होता है , कहाँ जाना है ? क्या करना हैं ? कुछ जानकारी नहीं होती हैं । रास्ता चाहे धूल से भरा हो , चाहे उबड़ खाबड़ , चाहे चिकना सपाट हो , बस चलते जाना है । चाहे बारिश का मौसम हो या बादलों से घिरा आसमां , बस घूमना ही उद्देश्य होता है । दोस्तों का साथ हो या ना हो बस घूमना ,घूमना , घूमना ....
                                    जब दोस्त भी यायावर मिल जाये तो फिर क्या पता काफिला कहा रुकेगा , किसी को भी नहीं पता । मनोरंजन , अल्हडपन , रोमांच , मौज - मजा , मस्ती सब कुछ होता है । यहां ज्ञान की बात करना मना होता है क्योकि ज्ञान यायावरी में दाल में कंकड़ की तरह होता है । चाय की चुस्की हो या पेटीस का स्वाद सब कुछ निराला लगता । बारिश की बौछार किसानों से लेकर सरकार तक को खुश कर देती है और यायावरों के लिए तो मानो सोने पर सुहागा हो ।
                                                              जिंदगी एक यात्रा की तरह है जिसमें सदैव चलते जाना ही काम है रुके तो समझो कुछ खो दिया । यायावरी भी कोह-ए- फिजा से शुरु होती हैं और दिलखुशाबाग होते हुए अशोका गार्डन पहुँच जाती है । मैं जिस यायावरी की बात कर रहा हूँ उसमें सिद्धार्थ , इंद्रभूषण और विनय शामिल हैं । जाना कहां है ? किसी को कुछ नहीं पता ,  केवल तीनों इतना जानते हैं कि घूमना है । सफर की शुरुआत एमपी नगर की चाय से होते हुए बड़ी झील के किनारे - किनारे चलते हुए वन विहार पहुंच जाती है। वन विहार के गेट पर ताले को देखकर हमें पता चल गया कि हमारी ठौर यहां नहीं है , अभी और उड़ना है ।
                                                                जाना था डीबी मॉल और हो लिये भोजपुर मंदिर के लिए । माता मंदिर होते हुए हमारा काफिला होशंगाबाद रोड़ पर चलता गया ग्यारह मील होते हुए चौराहे पर जाकर अटक गया मतलब प्लान चेंज । अब चले हम भीमबेटिका की ओर । मंडीदीप की धुंआ उगलती चिमनियों को पीछे छोड़ते हुए हम औबेदुल्लागंज होते हुए भीमबेटिका रॉक शेल्टर पहुंचे । यहां पहुंचने पर पता चला कि गेट बंद हो चुके है मतलब शटर डाउन । यहां आने पर पता चला कि बाघ नामक जीव होता है जिसे देखने पर इंसान भागता है इसलिए हमने " भागों बाघ आया " नारा बना दिया ।
                                       यायावरों का सफर इतनी जल्दी कैसे खत्म हो सकता है , हमने तय किया कि हम भोजपुर चलेगें । औबेदुल्लागंज होते हुए गौहरगंज के रास्ते हमारा सफर मुरुम और अधबनी सड़क पर चलते हुए हम भोजपुर जा पहुंचे। यहां अँधेरी रात उतनी ही भयावह लग रही थी जितना की सपने में ऊँचाई से गिरना । भले ही यायावर कही रुके या नहीं परंतु काफिला थोड़ा विराम तो लेता ही है और रचना नगर में डिनर के बाद प्रभात चौराहे पर अलविदा हुए कि फिर मिलते है । 

              यही तो यायावरी है ।                     
         

पुस्तक समीक्षा : मैं भारत हूं

        


        सप्त सुरों का बहता सरगम
                           पाञ्चजन्य का घोष हूं।
        अखिल विश्व का कल्याण करती
                          मां भगवतगीता का उद्घोष हूं।
         मैं भारत हूं , भाग्य विधाता हूं।।

यह पंक्तियां है "मैं भारत हूं" नामक काव्य संग्रह की है। इस कविता संग्रह को लोकेन्द्र सिंह जी ने लिखा है। प्रकाशन का कार्य संदर्भ प्रकाशन ने किया है। यह काव्य संग्रह केवल कविताओं का ही नहीं बल्कि भावनाओं, संवेदनाओं और अभिव्यक्ति का भी संग्रह है। कुल 42 कविताओं को इस संग्रह में शामिल किया गया है। इस काव्य संग्रह में विभिन्न मुद्दों पर लिखी कविताओं का संकलन है।

देशभक्ति,जनचेतना, देश प्रेम जैसे विषयों पर भी कविताओं को प्रमुखता दी गई हैं। कुछ विषयों पर यहां उदाहरण प्रस्तुत है। महान भारत के बारे में एक सुंदर कविता लिखी है जिसकी कुछ यहां पंक्तियां प्रस्तुत है:-

नक्सलवाद से छलनी/देखा है ह्रदय उसका
स्वसंतान के कारण उठे प्रश्नों में उलझते देखा है।
फिर भी, प्रति क्षण उसकी चमकती आंखों में
विश्व गुरु बनने का सपना भी देखा है
परम पूजनीयता के साथ
देखा है उसे प्रशस्त कर्मपथ पर बढ़ते हुए।

देह को झकझोर देने वाली देशभक्ति परक कविता के अलावा कवि ने सामाजिक ताने-बाने पर भी कविता लिखी है जिसमें मां पर लिखी कविता के अंश यहां लिख रहा हूं:-

लुका-छिपी के खेल में
जब तू छिप जाती है।
हवा में घुली तेरी खुशबू
मुझको तेरा पता बताती है।
मां तू जादू की पुड़िया है।
तेरा प्यार सबसे बढ़िया है।

मां जैसे मार्मिक विषय पर कविता लिखने के अलावा कवि ने अपने काव्य संग्रह में सामाजिक अन्याय जैसे भ्रूण हत्या पर भी कविता को शामिल किया है। जिसके अंश यहां प्रस्तुत है:-

सृष्टि की निरंतरता हेतु रणचण्डी बनकर
काल के क्रूर पंजों से मां मुझे बचा लो।

कवि ने यहां समाज में हो रहे अन्याय को उजगार करने की कोशिश की है जो कविता के माध्यम से साफ-साफ झलकता है। ऐसा कम ही होता है कि कोई अपने काव्य संग्रह में पिता को जगह दे लेकिन इस संग्रह में पिता जगह प्राप्त करने में सफल रहे है। पिता विषय पर कविता के कुछ भाग प्रस्तुत है:-

पिता पेड़ है बरगद का
सुकून मिलता है उसकी
छांव में
मुसीबत की भले बारिश हो
कोई डर नहीं , वो छत है
घर में।

पिता के अलावा इस कविता संग्रह में विभिन्न विषयों पर आधारित कविताओं का संग्रह है। सामाजिक बुराई जैसे भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दों पर भी कविता लिखी है। गांव से लेकर शहर तक , रिश्तों से लेकर दोस्ती तक हर विषय पर कविता लिखकर अपने विचार प्रस्तुत किए है। चाहे प्रकृति हो या भारत माता का वर्णन करना हो सभी नपे-तुले शब्दों में कविता के माध्यम से वर्णन किया गया है।

काव्य संग्रह की भाषा की बात करें तो भाषा सरल,सहज है। कविता को सूक्ष्मता के साथ परोसा गया है। कविता की तारतम्यता बनी रहती है जो कि पाठक को आनंद प्रदान करती है। इस संग्रह में हिंदी के अलावा उर्दू, देशज, इंग्लिश आदि शब्दों को आसानी से पढ़ा जा सकता है। कही-कही कठिन शब्दों का प्रयोग किया गया है परंतु शब्दों को समझने में कोई कठिनाई नहीं आती है। वीर,करुण,रौद्र,वात्सल्य आदि रसों को प्रधानता दी गई है।

सभी विषयों को एक माला में पिरोता हुआ यह काव्य संग्रह बहुत ही आनंददायक है । एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।

📃BY_vinaykushwaha


वैशाली


26 जनवरी 2018 को भारत अपना 69 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। गणतंत्र दिवस का यह त्यौहार 25 जनवरी की शाम राष्ट्रपति का देश के नाम संबोधन से शुरु होकर 26 जनवरी को राजपथ की परेड से होता हुआ 28 जनवरी की शाम विजय चौक पर बीटिंग द रिट्रीट के माध्यम से खत्म होता है। गणतंत्र दिवस एक राष्ट्रीय दिवस है जिसे हम बड़ी धूमधाम से मनाते है। यह गणतंत्र दिवस हमें यह याद दिलाता है कि हम भारत गणराज्य के नागरिक है।

किसी भी राष्ट्र की शासन एवं प्रशासन व्यवस्था चलाने के लिए उस राष्ट्र को एक पद्धति अपनानी पड़ती है। जो पद्धति हिटलर ने जर्मनी में अपनाई थी वो है तानाशाही। ऐसी राज्य व्यवस्था जहां केवल एक ही व्यक्ति की सत्ता कायम रहे उसे सर्वसत्तावाद (Totalitarianism) कहते है जिसमें हमें जोसेफ स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी जैसे शासक ध्यान में आते हैं। संघीय व्यवस्था(federalism) जिसमें राज्यों से मिलकर संघ या देश का निर्माण होता है जैसे संयुक्त राष्ट्र अमेरिका(USA)। जहां किसी देश में वहां के नागरिकों द्वारा देश की सरकार चुनी जाती है तो उसे लोकतंत्र (democracy) कहते है जैसे भारत। कई ऐसे देश भी है जहां लोकतंत्र तो है परंतु गणतंत्र नहीं है अर्थात् देश का आम नागरिक चुनाव के माध्यम से देश की सर्वोच्च पद को प्राप्त नहीं करता है। जैसे इंग्लैण्ड , यहां सर्वोच्च पद पर राजशाही परिवार का कोई व्यक्ति होता है। कई ऐसे देश भी है जहां एक ही परिवार के सदस्य मिलकर देश की शासन व्यवस्था को संभालते है इसे राजतंत्र (monarchy) कहते है। यह राजतंत्र व्यवस्था सउदी अरेबिया,कुवैत,ब्रुनई,कतर आदि देश है।

लोकतंत्र(democracy) एक ऐसा तंत्र है जिसमें देश के नागरिक देश की सरकार को चुनते है। लोकतंत्र एक प्राचीन व्यवस्था से आया है राजतंत्र जिसकी प्राथमिक सीढ़ी थी। लोकतंत्र कई प्रकार से होता है दो पार्टी या मल्टीपार्टी सिस्टम। केन्द्र सरकार का अलग चुनाव और राज्य सरकार का अलग चुनाव। कई ऐसे भी देश होते है जहां एक पार्टी पद्धति(single party system) है, जैसे चीन। भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य (democratic republic) है। भारत के अलावा अमेरिका आदि देश है। 26 जनवरी 1950 को भारत को गणराज्य के रुप में स्वीकारा गया। लेकिन आज से लगभग 3500 वर्ष पूर्व जब महाजनपद व्यवस्था थी। तब वज्जि महाजनपद में गणशासन व्यवस्था थी।

सोलह महाजनपद के समय वज्जि एक शक्तिशाली महाजनपद था। यह आज के समय में देखा जाए तो बिहार का हाजीपुर, वैशाली जिले आदि वाला भाग है। वैशाली को दुनिया का सबसे पुराना गणराज्य कहा जाता है। यहां जो राजा चुना जाता था उसे जनता में से ही चुना जाता था। वैशाली नगर वासियों का एक अहम योगदान था सरकार चुनने में। वैशाली , वज्जि महाजनपद की राजधानी थी। यह मात्र राजधानी ही नहीं बल्कि सत्ता का केन्द्र बिंदु था। ज्ञात स्त्रोतों के अनुसार वैशाली में लगभग 7707 सांसद चुने जाते थे जो कि अपना मुख्य सर्वेसर्वा चुनते थे। दुनिया का सबसे पुराना गणराज्य यदि भारत को कहा जाए तो इसमें कोई बहस नहीं होना चाहिए।

                          ।।जय हिंद।।

📃BY_vinaykushwaha


चलते-चलते (श्रृंखला 9)


तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद पेशवाओं को निष्कासित होकर बिठुर जाना पड़ा। महाराष्ट्र से उत्तर भारत जाना उनकी इच्छा नहीं थी बल्कि उन्हें मजबूरी में ऐसा करना पड़ा। पेशवाओं की इस हालत के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि आपसी सामंजस्य न होना था। बडौदा में गायकवाड़, महेश्वर और इंदौर में होलकर, नागपुर में भोंसले और ग्वालियर में सिंधिया का अलग होकर शासन चलाना ही था। शासन चलाना तो ठीक था लेकिन अंग्रेजों की नीतियों का समर्थन करना साथ ही उनकी गलत नीतियों और कार्यों का जमकर समर्थन भी किया गया।होलकर,सिंधिया,भोंसले और गायकवाड़ में कुछ राजा या रानी तो बहुत अच्छे हुए जिन्होंने जनता के हित और देश को सर्वोपरि समझा। तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध , कई युद्धों का परिणाम था। जिनमें से एक युद्ध था 'भीमा-कोरेगांव युद्ध'।

भीमा-कोरेगांव युद्ध भीमा नदी के तट  पर हुआ बहुत ही छोटा युद्ध था। यह युद्ध अंग्रेजों और पेशवाओं के बीच हुआ था जबकि यह अधूरा सत्य है। अंग्रेजों के तरफ से यह युद्ध महार जाति की ओर से लड़ा गया और पेशवाओं की ओर से अरबी लड़ाकों ने इस युद्ध को लड़ा। इतिहासकार यह कहते है कि इस युद्ध में अंग्रेजों की विजय हुई और आज तक इसी बात को सत्य माना जाता है। इसी विजय के उपलक्ष्य में महार जाति के लोग मराठाओं पर अपनी विजय को शान के रुप में दिखाते और प्रत्येक वर्ष सालगिरह के रुप में मनाते हैं।

मैं नहीं मानता कि भीमा-कोरेगांव युद्ध अंग्रेजों ने जीता था जिसके पीछे एक अंग्रेज अफसर का कथन बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। माउंटस्टुआर्ट एलफिंस्टन ने इस युद्ध के बारे में कहा कि यह मराठाओं की अंग्रेजी शासन के विरुद्ध छोटी-सी जीत है। इस कथन का क्या पर्याय निकाला जा सकता है। जब कोरेगांव का युद्ध हुआ तब पेशवाओं के ओर 5000 सैनिकों और एक तोप ने हिस्सा लिया जबकि अंग्रेजों के ओर से 700 सैनिकों और 5 तोपों ने हिस्सा लिया। यह आंकड़ा गलत भी है या सही भी  है क्योंकि इसका सही-सही आंकड़ा तत्कालीन ब्रिटिश गजेटियर में भी नहीं है।

एक बात है जिसमें अंग्रेज हुकूमत सफल हो गई वह यह कि उन्होंने निम्न जाति के लोगों को रियायत और शह देकर महार और मराठो के बीच विद्रोह करा दिया। यह बात अलग है कि मराठाओं ने महारों के साथ सभ्य व्यवहार नहीं किया। महार जाति के लोग जब बाजार में निकलते थे तो कमर पर झाडू और मुहं के पास बर्तन बांधकर निकलना पड़ता। उनकी जिंदगी दुरुह थी।

1857 की क्रांति में जब महार जाति ने जमकर देश के समर्थन में युद्ध किया तो अंग्रेजों ने इनका तिरस्कार करना शुरु कर दिया और सेना में केवल सैनिक पद तक ही सीमित कर दिया। महार रेजिमेंट आज भारतीय सेना में एक महत्वपूर्ण रेजिमेंट है जो कि उन देश भक्तों के कारण है जो कि ब्रिटिश हुकूमत के सामने नहीं झुके।अंग्रेजों ने महारों का उपयोग उन्हीं के बंधुओं को मारने के लिए किया। इससे यह सिद्ध तो होता है कि अंग्रेज केवल फूट पैदा करना चाहते थे। यह युद्ध तो जाति ने जीता न अंग्रेजों ने ना ही मराठों ने।


हिंदी या बिंदी

        

कुछ दिनों पहले लोकसभा में हमारे देश की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज और कांग्रेस के जाने-माने नेता शशि थरुर के बीच इस बात को लेकर बहस हो गई कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिकारिक भाषा बनाना चाहिए कि नहीं। 2014 में जब एनडीए नीत  नरेन्द्र मोदी सरकार आई तो निर्णय लिया कि सरकार विदेशी मंचों पर हिंदी भाषा का प्रयोग करेगी और जहां तक संभव होगा सरकारी कामकाज में भी हिंदी भाषा का उपयोग करेगी। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को अधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए एनडीए सरकार ने भरसक प्रयास किया है और कर रही है। इस पूरी प्रक्रिया में एक सबसे बड़ी समस्या है कि अधिकारिक भाषा के लिए सभी सदस्य देशों को लागत वहन करना पड़ता है। इसी बात के कारण पेंच अटका हुआ है।

लागत वहन करना ही नहीं भाषा आधारित बोझ बढ़ना भी एक बहुत बड़ी समस्या है जिसके कारण कई देश इस प्रक्रिया को पूर्ण नहीं होने देना चाहते। रुस जो हमारा मित्र देश कहा जाता है उसने भी संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में यह स्वीकार किया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिकारिक भाषा बढ़ने से कार्य बढ़ जाएगा। परिषद में भाषा-रुपांतर का कार्य भी बढ़ जाएगा साथ ही लागत वहन भी। भाषा को उनकी संख्या के आधार पर अधिकारिक भाषा घोषित नहीं किया गया बल्कि प्रभाव के आधार पर। अभी संयुक्त राष्ट्र संघ में छह भाषाएं इंग्लिश, फ्रेंच, अरेबिक, रसियन, मंडारिन,और स्पेनिच है लेकिन इंग्लिश और फ्रेंच ही सभी अधिकारिक कार्य किए जाते है। यदि संख्या के लिहाज से कहा जाए तो हिंदी विश्व की चौथी सबसे बड़ी भाषा है और रसियन,फ्रेंच और अरेबिक से भी बड़ी भाषा है।

भारत में भी हिंदी को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। 2010 में गुजरात हाईकोर्ट ने हिंदी भाषा के विषय में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए, यह निर्णय दिया कि  हिंदी भारत की अधिकारिक भाषा नहीं है। इसका इस्तेमाल सरकारी कामकाज के रुप में किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 में राजभाषा का दर्जा दिया है और हिंदी और इंग्लिश को सरकारी भाषा में उपयोग करने की बात कही गई है। राज्यों को अपनी अधिकारिक और सरकारी कामकाज करने के लिए स्वयं भाषा चुनने का अधिकार है। हिंदी न केवल भारत में बल्कि नेपाल, यूएसए, यूके, फिजी, गुएना, त्रिनिदाद, सूरीनाम, मॉरिशस आदि देशों में बोली जाती है। हिंदुस्तानी के रुप में हिंदी तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मालद्वीप आदि देशों में समझी और बोली जाती है। विश्व में हिन्दी बोलने वालों  की कुल संख्या लगभग 292 मिलियन है। फिजी, गुएना, सूरीनाम, मॉरिशस में तो हिंदी को अधिकारिक भाषा के रुप में स्वीकारा गया है।

शशि थरुर जी ने सदन में यह कहा कि यदि भविष्य कोई व्यक्ति यदि दक्षिण भारत से प्रधानमंत्री बनेगा तो वह अपनी मातृभाषा में संवाद करेगा। शशि जी बहुत विद्वान व्यक्ति है मैं उनकी बात को नहीं काट सकता। लेकिन मैं शशि जी को यह बताना चाहता हूं वर्तमान प्रधानमंत्री गुजरात से है और उनकी मातृभाषा गुजराती है। फिर भी वे भारत और विदेशी मंचों पर संवाद के लिए हिंदी भाषा का उपयोग करते है। वैसे प्रधानमंत्री भारत के किसी भी कोने से बने उसे संवाद करने लिए इंग्लिश या हिंदी को ही चुनना पड़ेगा चाहे उनकी मातृभाषा कुछ भी हो। भारत की लगभग 50 करोड़ आबादी हिंदी लिखती, पढ़ती और बोलती है।

हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए बहुत कार्य करने होगें। सर्वप्रथम उन देशों को मनाना पड़ेगा जो सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य देश है। चीन और रुस को खासकर क्योंकि चीन भारत का विश्व मंच पर सबसे बड़ा विरोधी देश है और रुस को इसलिए भी क्योंकि भारत जब से अमेरिका के करीबी मित्रों में शुमार हो गया है तब से रुस के दोस्ताने में परिवर्तन आ गया है। दूसरा, हमें उन देशों को एक मत करना होगा जिन देशों में हिंदी आम बोलचाल या अधिकारिक रुप से उपयोग की जाती है और लागत वहन करने पर एकजुट करना। तीसरा, सभी संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों को हिंदी को अधिकारिक भाषा बनाने के लिए एक मंच पर लेकर आना और जहां तक संभव हो कूटनीतिक ताकत का सहारा लेना।

हिंदी , संस्कृत भाषा से बनी एक प्यारी सी भाषा जिसे बचाए रखना और अगली पीढ़ी तक पहुंचाना जरुरी है। 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस घोषित करने या मनाने से हिंदी की सार्थकता पूर्ण नहीं होती है।

                           ।।जय हिंद।।

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चलते-चलते (श्रृंखला 8)

         

एक रेस्टॉरेंट में मां अपने बच्चे से कहती है कि बेटा गिलास में वाटर है जल्दी पिओ। वही उसके दूसरे दिन एक टीचर अपने छात्रों से कहती है कि talk in English otherwise I will punish all of you. यह सब क्या हो रहा है। माना कि इंग्लिश बहुत जरुरी है परंतु मजबूरी तो नही है। बच्चे की प्रथम पाठशाला बच्चे की मां होती है। यदि मां ही अपने बच्चे को बचपन से ही अंग्रेजीनुमा हिंदी सिखाएंगी तो क्या होगा उस बच्चे के विवेक का? वह तो केवल अंग्रेजी की चकाचौंध में गुम हो जाएगा और हिंदी को भुलाता जाएगा। धीरे-धीरे वह हिंदी को तुच्छ भाषा के रूप में समझने लगेगा। प्रथम पाठशाला से लेकर आखिरी पाठशाला जब सभी इंग्लिश से युक्त हो जाएगें तब निष्कर्ष आपको पता है।

हमारी मानसिकता आज इंग्लिश वाली हो गई है जो केवल इंग्लिश में  सोचने, बोलने और लिखने के लिए विवश करती है। आज का बच्चा प्राथमिक से ही या कहे तो प्ले स्कूल से ही इंग्लिश के माहौल में धकेल दिया जाता है या चला जाता है और घर में भी माहौल इंग्लिश वाला ही रहता है। समाचारपत्र, टीवी चैनल, किताबें, मैग्जीन, रेडियो चैनल आदि सबकुछ इंग्लिशमय हो गया है। इंग्लिश आज भारतीय मानसिकता में इस तरह घर कर गई है कि बिना इसके कुछ संभव ही न हो। मानाकि आज का दौर इंग्लिश वाला है। इंग्लिश एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है। चाहे व्यापार हो, शिक्षा हो, मनोरंजन हो आदि सभी जगह इंग्लिश ने अपने पैर पसार लिए है या हम यूं कह सकते है कि इंग्लिश अन्य भाषाओं के लिए बाधक बन गई है।

मैं तो केवल इतनी बात अच्छी तरह जानता हूं कि वही देश तरक्की कर सकता है जो अपनी मातृभाषा का सम्मान करता है। हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके कई उदाहरण देख सकते है। इजरायल ने हिब्रू को अपनी राष्ट्रभाषा स्वीकार की और आज अपनी भाषा को ताकत बनाकर बुलंदियों के शिखर पर काबिज है। इजरायल की तरह रूस, जर्मनी, जापान, फ्रांस आदि देशों ने भाषा के बल पर विकास किया जाता है,यह सिद्ध कर दिखाया है। चीन आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। मंडारिन भाषा को चीन ने अपनी पहचान बना ली और मंडारिन आज दुनिया की सबसे बड़ी सांकेतिक भाषा है। हिंदी दुनिया की चौथी सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है, इस पर हमें गर्व होना चाहिए। विश्व में हिन्दी बोलने वालों की संख्या लगभग 70 करोड़ है। हिन्दी भारत में ही नहीं मॉरिशस, गुएना, सेशेल्स आदि देशों में प्रमुखता से बोली जाती है। यूएन में आधिकारिक भाषा के रूप में हिन्दी को दर्ज कराने का प्रयास जारी है।

मानाकि भारत भाषाओं का देश है लेकिन हिंदी माध्यम भाषा की भूमिका अदा करती है। हिंदी की लिपि देवनागरी कई अन्य भाषाओं जैसे गुजराती, मराठी आदि में प्रयोग हो रही है। हिंदी एक समृद्ध भाषा होने के पीछे एक सतत् प्रक्रिया है जिसमें हमें आज की हिंदी दिखाई देती है।

समृद्ध हिन्दी को स्वीकार करने में क्या परेशानी है? आज यदि हम अपनी भावी पीढ़ी को हिन्दी और अपनी मातृभाषा के प्रति जागरुक नहीं करते है तो वे उस ज्ञान से वंचित हो जाएंगे। हिन्दी के जागरुकता के साथ-साथ प्रचार-प्रसार की जरुरत भी है। देश के सभी नागरिक की यह जिम्मेदारी बनती है कि हम अपनी मातृभाषा के प्रति सजग और जिज्ञासु बनें।

📃BY_ vinaykushwaha

मध्यप्रदेश


1 नबम्वर 1956 को जब एक राज्य अस्तित्व में आया जिसका नाम पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 'मध्यप्रदेश' रखा। सी पी और बरार से मध्यप्रदेश बन गया। आठ जिले महाराष्ट्र राज्य को दे दिया गया और सुनैल टप्पा तहसील  राजस्थान को दे दिया गया और सिरोंज तहसील को मध्यप्रदेश में मिला लिया गया और बन गया मध्यप्रदेश। मध्यप्रदेश का एक बार फिर से गठन किया गया और 1नबम्वर 2000 को मध्यप्रदेश के बरार वाले हिस्से को अलग करके एक नया राज्य बना दिया गया जिसका नाम था 'छत्तीसगढ'। कभी मध्यप्रदेश की गिनती सबसे बड़े राज्य में होती थी और आज दूसरे सबसे बड़े राज्य के रूप में होती है।

मध्यप्रदेश भारत के दिल में बसा हुआ है जो भारत के लिए धड़कता है। मध्यप्रदेश का कण-कण भारत के निर्माण में निस्वार्थ भाव से लगा हुआ है। मध्यप्रदेश के जन-जन की यही भावना है कि 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' और 'एक मध्यप्रदेश, श्रेष्ठ मध्यप्रदेश'। प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण यह राज्य भारत को और भी ज्यादा खूबसूरत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। विन्ध्याचल, सतपुडा , मैैकल आदि पर्वतश्रृंखलाएं भारत की इस धरा को सम्पन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मध्यप्रदेश की वन संपदा जो भारत में सर्वाधिक है, भारत की सुंदरता में चार चांद लगा रही है।

मध्यप्रदेश को नदियों का मायका कहा जाता है। भारत में सर्वाधिक नदियों का उद्गम स्थल मध्यप्रदेश में है। मध्यप्रदेश की लगभग 350 नदियां लगभग भारत की 15 करोड़ आबादी को पोषित कर रहीं है। भारत की सबसे पवित्र नदी और शिवतनया, शांकरी , मैकलसुता, रेवा, नामोदास आदि नामों से विख्यात नर्मदा करोड़ो लोगों को पोषित भी कर रही है और मां की तरह दुलार भी दे रही है। नर्मदा, चंबल, सोन, बेतवा, ताप्ती, माही, केन आदि नदियां पर बने बांध करोड़ो लोगों की आशा का सफलता सूचकांक है। गांधीसागर, ओंकारेश्वर, इंदिरासागर, हलाली, मांधाता, राजघाट, बाणसागर बांध मध्यप्रदेश के साथ-साथ देश के अनेक राज्यों को जगमग कर रहे हैं और साथ ही साथ खेतों को सिंचित भी कर रहे हैं।

मध्यप्रदेश का इतिहास कोई हजार साल पुराना नहीं है यह तो लगभग एक लाख साल पुराना है। यह तो भीमबेटिका के शैलाश्रय स्वयं ही प्रमाणित करते है। भारत में इंसान के अस्तित्व की सर्वप्रथम प्रमाणिकता भी मध्यप्रदेश में नर्मदा तट में ही देखने मिलती है। बुद्ध के उपदेश और उनकी शिक्षा की जानकारी हमें सांची, भरहुत(सतना), कसरावद के स्तूपों से मिलती है। भारत की सबसे पवित्र और पुरातन नगरी में से एक उज्जैन अपने वैभव से आज तक भारत को पल्लवित कर रहा है। महाकाल की नगरी उज्जैयिनी आज भी भस्म की भीनीं सुगंध से सुरभित हो रही है। बेतवा नदी के तट पर स्थित ओरछा अपने एकमात्र राम को राजा के रुप में समर्पित मंदिर को रुप में विख्यात है। खजुराहों को कौन नहीं जानता जिसकी स्थापत्य कला का आजतक कोई तोड़ नहीं है। धुंआधार जलप्रपात जिसका कोई सानी ही नहीं है। महेश्वर, ओंकारेश्वर, चंदेरी, मांडू, अमरकंटक, मैहर, उदयगिरि, भोजपुर, बाघ की गुफाएं आदि अनेक स्थान मध्यप्रदेश को श्रेष्ठ बना रहे है।

रुपनाथ(कटनी) और गुर्जरा(दतिया)आज सम्राट अशोक की गवाही देता है। मध्यप्रदेश के इतिहास में कई राजा रजवाड़ों का हाथ रहा है। मौर्य, गुप्त, शुंग, राष्ट्रकूट, पल्लव, चंदेल, चौहान, कल्चुरी, गौंड, मराठा, सिंधिया, होल्कर और मुगलों का योगदान रहा हैं। कई शहरों को बसाया तो कई स्मारक बनाई । अलग-अलग शैली की स्थापत्य कला की सहायता से संरचनाओं में जान फूंकने की कोशिश की है।

मध्यप्रदेश की धरा भारत के लिए है और इसका एक-एक कण मातृभूमि के लिए समर्पित है।
जय मध्यप्रदेश, जय भारत

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भारतीय वास्तुकला (श्रृंखला 3)


भारत प्राचीन काल से ही स्थापत्य कला में समृद्ध देश रहा है। भारत की समृद्ध विरासत की झलकियां आज भी देखने को मिलती है। पूर्व में हमने सिंधु घाटी की सभ्यता और वैदिक सभ्यता की स्थापत्य कला के बारे में जाना। अब हम और आगे बढ़ते हैं और चलते है मौर्य काल की ओर। मौर्य काल से पहले ही पक्के घरों का और अन्य महत्वपूर्ण संरचनाओं का निर्माण शुरू हो चुका था। मौर्य काल में भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया और भारतीय स्थापत्य कला को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

मौर्यों से पहले नंद वंश था जिसके बारे में कहा जाता था कि उसकी सेना सिकंदर महान से बहुत बड़ी थी। यही कारण था कि सिकंदर की सेना ने आगे और युद्ध करने से मना कर दिया। घनानंद भले ही विलासता का आदि राजा रहा हो परंतु उसका राज्य सदा ही बहुत ही संपन्न रहा था। यदि घनानंद स्वभाव से भी अच्छा होता तो वह सम्पन्नता के शिखर के साथ-साथ लोगों के दिलों को भी छूता।

घनानंद के अत्याचारों से बचाने के लिए चंद्रगुप्त मौर्य ने घनानंद को मार दिया और मौर्य वंश की नींव डाली। मौर्य वंश में तीन सबसे प्रतापी राजा हुए चंद्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार और सम्राट अशोक। मौर्य साम्राज्य इन तीनों के राज में वैभव के चरम सीमा पर पहुंच गया था। जनता अपना सुखी जीवन व्यतीत करती थी। सम्राट अशोक ने तो जनता से संचार के लिए शिलालेख का सहारा लिया ताकि राज्य की जनता उसकी बात को जान सके और समझ सके।

मौर्य के समय महल का निर्माण लकड़ी से किया जाता था। छत भी लकड़ी की बनाई जाती थी। छत को सहारा देने के लिए पत्थर के स्तंभ होते थे जो कलात्मक ढ़ंग से सजाए जाते थे। लकड़ी के महल में रहने का अधिकार केवल राजसी परिवार को था। रसोईघर, स्नान घर आदि की व्यवस्था की गई थी। राजा जहां दरबार लगाता था वह एक बड़ा सा हॉल होता था। लकड़ी के फर्श को ढ़कने के लिए शानदार कालीन का प्रयोग किया जाता था। दीवारों को सोने की परत से कलात्मकता के साथ मढ़ा जाता था।

भवन की आकृति चौकोर या आयताकार होती थी। महल में 2-3 मंजिल हुआ करती थी। अंदरूनी छत पर शानदार तरीके से सोने से सजावट की जाती थी।

महल के बाहर सुंदर बगीचों का निर्माण किया जाता था। जिसमें तरह-तरह के फलदार और फूल के पेड़-पौधे लगे होते थे। फव्वारों का प्रयोग बगीचों की सुंदरता बढ़ाने के लिए किया जाता था।

महल चारों ओर से दीवार से ढंका होता था जिसमें अंदर आने के लिए कई दरवाजें होते थे। दीवार के सहारे एक खाई का निर्माण किया जाता था जो कई सौ मीटर गहरी होती थी। यह खाई शत्रु को महल में आने से रोकने के लिए बनाई जाती थी। दरवाजें भी इस प्रकार हुआ करते थे कि उन्हें रस्सी के सहारे उठा लिया जाए। सैनिक गस्ती के लिए दीवार पर बुर्ज बनाए जाते थे। आज भी इसके साक्ष्य पटना के आस-पास मिलते है।

अशोक ने यही व्यवस्था अपनाई साथ ही साथ उसने बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए पहाड़ियो को काटकर गुफाओं का निर्माण करवाया। जनता से संचार बनाने के लिए शिलालेख,गुहालेख लिखवाए। स्तूपों के निर्माण का श्रेय भी सम्राट अशोक को जाता है।  सुंदरता से स्तूप बनाकर उन्हें गौतम बुद्ध की याद में शामिल कर दिया। जिसका सबसे सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है 'सांची'।

यही है मौर्यकालीन वास्तु कला।

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मैहर - जहां विराजे ज्ञान की देवी


सोने के लोटा गंगाजल पानी, माई दोई बिरिया।
अतर चढ़े दोई-दोई शीशियां, माई दोई बिरिया।
करें भगत हो आरती माई दोई बिरिया।।

मां के सम्मान में छोटी-सी भगत। भगतें बघेलखंड और बुंदेलखंड में मां के सम्मान गाए जाने वाले भजन है जो मुख्यतः बघेलखंड में गाया जाता है। उपरोक्त भगत मां शारदा के सम्मान में गाया गया है। मां शारदा को ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाता है।

नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुरवीसिनि ।
त्यामहं प्रार्थये नित्यमं विधाबुद्धि च देहि मे।।

उपरोक्त श्लोक मां सरस्वती को समर्पित है जिसमें मां सरस्वती को शारदा के रूप में संबोधित किया गया है। जिसमें विद्या और बुद्धि का वरदान मांगने की बात कही गई है।

भारत में वैसे तो मां शारदा के अनेकों मंदिर होगें परंतु मध्यप्रदेश के सतना जिले के मैहर में स्थित मां शारदा देवी का मंदिर अद्भुत, अनोखा और मन को शांति प्रदान करने वाला है। विन्ध्याचल पर्वत की गोद में बसा यह मंदिर प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण है। विन्ध्याचल पर्वत की 600 फुट ऊंची त्रिकूट पहाड़ी पर स्थित यह मंदिर सारे मनोरम को सिद्ध करने वाला है। यह एक शक्तिपीठ है।

इस मंदिर और मां शारदा देवी की यहां पर प्राण प्रतिष्ठा के पीछे  एक पौराणिक कहानी है। जब मां सती के विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से 51 टुकड़े कर दिया तो जहां-जहां मां सती के शरीर के भाग गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ का निर्माण किया गया। मैहर शहर का नाम मां सती के हार गिरने से हुई। मै का तात्पर्य माई और हर का तात्पर्य हार से है, जिसका संपूर्ण तात्पर्य हुआ माई के गले का हार अर्थात् मैहर।

मंदिर में स्थित मूर्ति की विधिवत प्राणप्रतिष्ठा संवत् 599 में की गई थी। अक्जेण्डर कनिघंम ने इस मंदिर पर गहरा शोध कर यह भी बताया कि यहां पशु बलि नियमित रूप से दी जाती थी, जिसे बाद में बंद करवा दिया गया। इस मंदिर में आदिगुरू शंकराचार्य के द्वारा पूजा करने का भी उल्लेख मिलता है।

मां की ड्योढ़ी पर तो सभी शीश झुकाते है परंतु नियमित रूप से प्रथम अधिकार आल्हा का है। वास्तविक रूप से मंदिर स्थापित करने का श्रेय आल्हा और ऊदल को दिया जाता है जो दोनों भाई थे। दोनों ने मां की इस प्रतिमा को खोजा तथा आल्हा ने बारह वर्ष तक मां की तपस्या की। मां ने प्रसन्न होकर आल्हा को अमरत्व का वरदान दिया। आज भी आल्हा द्वारा समर्पित गुड़हल के फूल मंदिर के प्रथम बार कपाट खुलने पर दिखाई देते हैं।

मां का दरबार सालभर भक्तों की भीड़ से लबालब रहता है परंतु नवरात्रि के पावन अवसर पर यहां की अनोखी छटा देखने  लायक होती है।

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