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सोमवार, 26 मार्च 2018

शिखण्डी : पुस्तक समीक्षा


ऋष्यश्रृंग:जिसने कभी किसी स्त्री को नहीं देखा, भागीरथी: जिसे दो औरतों ने मिलकर जन्म दिया, मान्धाता: जिसे पुरुष ने जन्म दिया, चुडाला: अपने पति को ज्ञान देने के लिए पुरुष बन गई, शिखण्डी: जो न तो नर था ना ही मादा और बहुचर: जो अपनी पत्नी को खुश नहीं कर सका जैसी प्राचीन भारतीय इतिहास की कहानियों को संजोए एक किताब 'शिखंडी और कुछ अनसुनी कहानियां'। यह किताब भारत के महान पौराणिक कहानी लेखक देवदत्त पट्टनायक ने लिखी है जिसका प्रकाशन राजपाल एण्ड सन्स ने किया है।

भारतीय इतिहास की कई ऐसी कहानियां जो कि आम नागरिकों के बीच प्रचलित नहीं है। ऐसी कहानियों को संजोकर एक पुस्तक के माध्यम से प्रकाशित किया गया है। लेखक ने विभिन्न स्त्रोतों से कहानियों को लिया है जिसमें महाभारत, रामायण, उडिया रामायण, तमिल लोककथा, पुराण आदि। इसमें सम्मिलित कहानियां सामाजिक सरोकार से जुड़ी हुई है। इसमें 30 कहानियों को सम्मिलित किया गया है। भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य के महान पात्रों को कहानी के माध्यम से बताने का प्रयास किया है जिनकी गूढ़ बातों से लोग अवगत नहीं है। इसमें जिस भी पात्र के बारे में कहानी बताई गई है  और साथ-साथ में कारण और संदर्भ भी दिया गया है।

आज के दौर में जिन विषयों पर चर्चा करना भी पाप माना जाता है और उनकी कल्पना या उपस्थिति को अपराध समझा जाता है ऐसे सभी क्रियाकलाप अतीत में उपस्थित थे। किन्नर, समलैंगिकता, असामान्य यौन प्रवृत्ति, असामयिक यौन प्रवृत्ति आदि की बातों को सहजता के साथ प्रस्तुत किया गया है। राम जिन्होंने हिजड़ों को भी अपने राज्य में शामिल किया, विष्णु जिन्होंने असुरों को सबक सिखाने के लिए मोहनी का रूप लिया, काली जिन्होंने गोपियों के साथ नृत्य करने के लिए कृष्ण रूप धारण किया जैसी चमत्कारिक कहानियों का एक विशाल सागर है।

पुस्तक में कहानी की शुरुआत शिखण्डी नामक अतिपरिचित पात्र के साथ शुरू होती है। महाभारत का यह पात्र न तो स्त्री था न पुरुष। पुस्तक खुली मानसिकता के साथ वीर्य, कामुकता, यौन आचरण के विषय में चर्चा होती है परंतु किसी भी प्रकार की अश्लीलता का प्रदर्शन नहीं होता है। जीवन में अनेकों उतार-चढ़ाव आते है और उनके साथ कैसे निबाह करना है यह इसमें अच्छी तरह बताया गया है। यह पुस्तक शानदार और रोचक कहानियों से भरी हुई है जिसका रसास्वादन जरूर लेना चाहिए।


रविवार, 25 मार्च 2018

यूपी की फिज़ा


दूर-दूर तक फैला पठारी इलाका जिसमें पेड़ों की संख्या न तो बहुत ज्यादा है न ही बहुत कम। जमीन भी ऐसी कि कही थोड़े उंचे पहाड़ है तो कही समतल जमीन है। जहां समतल जमीन वहां जमीन के अंदर से स्वयंभू शिव की तरह निकली हुई चिमनियां है जिनसे धुआं तो नहीं निकल रहा लेकिन नीचे भट्टी में ईंट पक रही है। विन्ध्य की महक आने लगी है। बेशक यह यूपी है। मध्यप्रदेश के उत्तरी भाग को पार करते ही यूपी का दक्षिणी छोर कुछ इसी प्रकार दिखाई देता है। यह गंगा का मैदान का दक्षिणी भाग भी है।

यूपी कहे या उत्तरप्रदेश या उत्तमप्रदेश सभी तो श्रेष्ठ है। यदि ऐसा कहा जाए कि राज्यों में सर्वश्रेष्ठ या यूं कहे राज्यों का राजा। मैंने उत्तर प्रदेश  की यात्रा कई बार की है और हर बार मैंने यहां कुछ नया ही पाया है। हवा में घुली पेडे की मिठास हो या अध्यात्म की हवन वेदी से उठती खुशबू हो सभी कुछ तन-मन को उत्साहित कर देती है। इलाहाबाद की धरा पर कदम रखने का सौभाग्य कई बार मिला परंतु पहले उस फिज़ा में घुली ताज़गी का आनंद नहीं लिया जो इस बार मिला है। इलाहाबाद कोई आम जगह नहीं है यह तो सभी जानते है।

पूर्वांचल का सबसे प्रमुख शहर जिसके बिना पूर्वांचल की कल्पना पूरी नहीं हो सकती है। गंगा और यमुना का संगम तो पहले भी कई बार देखा है लेकिन इस इसमें कुछ नयापन देखने को मिला। यमुना नदी का श्याम जल हो या गंगा नदी का हरित जल इस बार इसमें कुछ नयापन है। हिमालय से मां गंगा और यमुना के द्वारा लाई गई रेत एक नए संसार का निर्माण कर रही है। संगम के जल में जाते हाथ केवल कंकण स्नान के लिए ही नहीं बल्कि अर्घ्य के लिए भी उठते है। तेज बहाव वाली गंगा हो या शांत यमुना दोनों श्रद्धालुओं को उतना ही मौका दे रही है जितना वे चाहते हैं।

श्रद्धा के दीपक आज कुछ अलग ही छटा बिखेर रहे हैं। फूलों की लड़ी हो या नावों का जमावड़ा सब कुछ देखा हुआ है फिर भी अनोखा है। बरसों पहले जब पहली बार आया था तब भी किले की दीवार यूं ही सीना ताने खड़ी थी और आज भी लेकिन इनकी रंगत में चटकपन-सा आ गया है। लाई बताशा की सजी दुकाने हो या फूलों से सजे दौने, पंडों की मडई हो या गोताखोरी की टोली नया न होते हुए भी कुछ अलग है। पानी की लहरों पर गोता खाते गोताखोर हो या पानी में उतरते नौसिखिया सब पहले भी तो देखा है लेकिन इस बार अंदाज अलग लग रहा है।

नाव का कालिंदी की लहरों के साथ कलाबाजियां करना हो या मछलियों का पैरों को छूकर जाना पहले भी देखा है लेकिन ऐसी अनुभूति पहली बार हुई है। संगम के जल को छूकर तन को छूती पवन से पहले भी कई बार सुखमय अनुभूति हुई है लेकिन इस बार इसमें कुछ शीतलता ज्यादा ही है। रेत के टीले पर दूर-दूर तक आशा का दीपक पहले भी दीप्तमान थे आज भी हैं। साइबेरियन गल्स होवर की उड़ान और पानी में खेल तो कई देखा है परंतु इनकी अठखेलियां में कुछ आज अनोखा पन है।

इलाहाबाद कोई मुसाफिरों का शहर नहीं है बल्कि यह तो शांति से अपने अंदाज में जीने वालों का शहर है। इस शहर को पहले भी कई बार देखा है लेकिन इसमें नयापन पहली बार देखा है।

📃BY_vinaykushwaha


सोमवार, 19 मार्च 2018

गांव चलें हम


शहर में रहकर गांवों की कल्पना करना बेमानी ही है। मैं तो यह मानता हूं कि जिस प्रकार एक घर छोटी-छोटी ईंटों से मिलकर बनता है ठीक उसी प्रकार एक देश गांवों से मिलकर बनता है। गांव और शहर को अलग-अलग इकाईयां कहना सही नहीं होगा क्योंकि गांव से ही शहर का निर्माण होता है। दोनों मिलकर देश का निर्माण करते हैं। जिन्होंने कभी गांव नहीं देखा उन्हें यह देखना जरूरी है कि जीवन को दूसरे तरीकों से कैसे जीया जाता है। शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी में कही वह पल खो जाता है जो ग्रामीण परिवेश में लोग खुलकर जीते हैं।

मेरा अपना अनुभव यह रहा है कि गांव जैसा बेहतर कोई स्थान नहीं होता है। जहां पारिवारिक मूल्य को समझा जाता जिसके कारण संयुक्त परिवार का उदाहरण आज भी देखने को मिलता है। जीवन को जीने की कला समस्याएं होने के बाद भी तनाव और विषाद से मुक्त होकर मस्त रहना। गांव में प्रदूषण से मुक्त वातावरण में रहकर जिस प्रकार की आप अनुभूति आप प्राप्त करते हैं शहर में तो इसकी कल्पना करना भी असंभव है। मिलावट नाम के शब्द की गांवों में कोई जगह नहीं है चाहे सबंधों की बात करें या दैनिक संसाधनों की। सभी कुछ शुद्ध रहता है। गांव ही वो जगह है जहां मंदिरों की परम्परा आज भी जीवित है।

बैतूल जिले के हिवरखेड़ी गांव में रहकर मैं इतना तो बता ही सकता हूं कि ग्रामीण परिवेश शहरी परिवेश से सर्वश्रेष्ठ है। गांव के परिवेश ने मेरा तो मन मोह लिया। जीवन के असली संघर्ष को देखना है तो गांव के दर्शन के बिना संभव नहीं है। चौपाए का चलते-चलते धूल उड़ाना सूर्य के प्रकाश में ऐसा लगता है कि किसी ने  सोने के चूर्ण को हवा में फेंक दिया हो। गांव की सुबह की तुलना तो परमआनंद के साथ ही हो सकती है। सूर्यास्त से पूर्व क्षितिज में छाई लालिमा और पक्षियों का चहचहाना सुबह को शानदार बना देता है। रास्ते पर खेलते नन्हें मुन्ने बचपन सड़क के सूनेपन को खत्म कर देता है। साइकिल के घूमते पहिए मानो ऐसा लगता है कि विश्व को घुमाने वाले हो। ट्रेक्टर की घड़घड़ाती  आवाज अच्छी तो नहीं परंतु गांव का फील देती है।

हल्की धुंध भरी सुबह जिसमें मनमोहक खुशबू और ज्यादा रोमांचक बना देती है। खप्पर और कबेलु वाले घर से निकलता चूल्हें का धुआं संकेत देता है कि खाना पक रहा है। चूल्हें में लकड़ी और कंडे की आंच पर पके खाने की बात ही क्या कहना यदि उस पर गुड़ वाली चाय मिल जाए तो सोने पर सुहागा हो जाता है। घी में डूबी रोटी या गक्कड़ को गुड़ के साथ खाने का अपना अलग ही मजा है। शुद्ध गन्ने का रस हो या गन्ने के रस से बनी खीर हो सब कुछ लाजबाव है। गांव की एक थाली शहर की सौ थाली के बराबर होती है कम से कम मेरा स्वाद तो यही कहता है।

महुआ की खुशबू हो या धूप तापते महुआ दोनों की अपनी ही चमक है। कच्ची कैरी का हरापन हो या पकी इमली का खट्टापन दोनों मुंह में पानी ला देने वाला ही है। गन्ना की मिठास हो या हरे चने का हल्का खट्टापन भूक को बढ़ाने वाले है। खेत में लहलहाती सोने जैसी गेहूं की बालियां अपनी ओर आकर्षित करती हैं। गगनचुम्बी पेड़ हो या भुट्टे के छोटे पौधे हो मन को मोह लेने वाले हैं।

ग्रामीण जीवन की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि यहां सभी लोग मिलकर रहते है। सुख-दु:ख का बंटवारा करते हैं। व्यवहार की बात की जाए तो गांव वाले इस मामले में अव्वल नज़र आते हैं। पड़ोसी से लेकर बाहरी व्यक्ति से ठीक उसी प्रकार बोलचाल, खान-पान , रहन-सहन होता है जिस प्रकार घर वालों के साथ होता है। असलियत में अतिथि देवो भव को गांव वाले ही सार्थक करते है। आवभगत में इनका कोई सानी नहीं है। भले ही आपकी भाषा को कम जानते हो परंतु वे आपकी मदद करने के लिए तत्पर रहते है। जब बात आती है भोजन की तो वे पहले अतिथि के लिए भोजन की व्यवस्था करते हैं फिर स्वयं की पेट पूजा करते हैं। यदि गांवों में पीने के लिए पानी भी दिया जाता है तो इतने सम्मान से दिया जाता है कि उस पानी में भी शरबत का स्वाद आता है।

गोबर से लिपे-पुते घरों में भले ही आधुनिकता प्रवेश कर गई हो परंतु अभी भी शहरी और ग्रामीण जीवन में लाख गुने का अंतर है। छुई की किनारी और गोबर से लिपे फर्श की जगह भले ही सीमेंट से बने फर्श ने ले ली हो परंतु अभी भी शीतलता का आनंद बरकरार है। पटौंहा की जगह भले ही रैक ने ले ली हो फिर भी राहत बरकरार है। भले ही छानी वाली छत की जगह सीमेंटेड छत ने ले ली हो परंतु अभी भी वो छाया बरकरार है। मांडना का आकार छोटा हो गया हो या रंगोली की आकृति में बदलाव आया हो परंतु सुंदरता बरकरार है। शहनाई की आवाज अभी भी सुनाई देती है क्योंकि यह गांव है।

कपड़ों की शालीनता तो गांव से सीखना चाहिए उनकी तो मजबूरी है फटे कपड़े पहनना जो शहरों में फैशन बन गया है। संस्कृति के सच्चे वाहक तो गांव वाले ही है जो कि संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते हैं। कुएं का शीतल जल हो या छूले के नारंगी फूल अतिअनांद देने वाले है। बारी में लगी सब्जियां हो या मिश्रित फसल का दृश्य अनोखा होता है। दूर-दूर तक फैले खेत को देखकर मानों ऐसा लगता है जैसे बस निहारते रहो। धन्य हो गांव, धन्य।

📃BY_vinaykushwa


शनिवार, 17 मार्च 2018

अनुभूति : गांव चलें हम (तृतीय दिवस)


अनुभूति : गांव चलें हम कार्यक्रम हिवरखेड़ी में तीसरे  दिन की शुरुआत बड़ी जोरदार हुई। अन्य दो दिन की तरह यह तीसरा दिन भी रोमांचित और शिक्षित करने वाला है। तीसरे दिन की शुरुआत योग और प्राणायाम से हुई। माननीय अभिषेक पांडेय और मुकेश चौरासे सर के निर्देशन में यह संभव हुआ। प्राणायाम एवं योग के बाद  कुछ समय का विराम लिया गया। सुबह प्राणायाम और योग के बाद बौद्धिक हुआ।

बौद्धिक के माध्यम से टीम को प्रोत्साहित किया गया। बौद्धिक के पश्चात् थोड़ा विराम लिया गया। बौद्धिक के पश्चात् सायंकाल में नुक्कड़ नाटक का आयोजन किया गया। नुक्कड़ नाटक के माध्यम से गांव में शिक्षा को प्रोत्साहन की बात किया गया। गांव में गली-गली जाकर नुक्कड़ नाटक के माध्यम से लोगों को जागरुक किया ।

नुक्कड़ नाटक के पश्चात् भोजनावकाश टीम के सदस्यों के बीच अनुभव को साझा किया गया। दिन भर में हुई सारी गतिविधियों के अनुभव एक-दूसरे से साझा किए गए। इसी तरह तीसरे दिन की समाप्ति हुई।


शुक्रवार, 16 मार्च 2018

अनुभूति : गांव चलें हम (द्वितीय दिवस)


16 मार्च दिन शुक्रवार को अनुभूति : गांव चलें हम का दूसरा दिवस शुरु हुआ। दूसरे दिवस की शुरुआत सुबह प्रभातफेरी से शुरु हुई। प्रभातफेरी में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविधालय भोपाल की बालक वर्ग की टीम ने हिवरखेड़ी गांव का भ्रमण किया। प्रभातफेरी में टीम ने सारे गांव में भ्रमण कर गांव में अपने गीत के स्वर से समां को गुंजायमान कर दिया। प्रभातफेरी के बाद बौद्धिक के माध्यम से टीम को विभिन्न विषयों पर जागरुक किया गया।

बौद्धिक के बाद टीम ने गांव का दौरा किया जिसमें घर-घर जाकर विभिन्न मुद्दों पर बात की। इन मुद्दों में रहन-सहन, सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति, सरकारी योजनाओं, सांस्कृतिक विषयों पर राय ली गई। गरीबों और अमीरों में भेद न करते हुए सभी से उनकी दैनिक दिनचर्या से लेकर शैक्षिक और राजनैतिक विषय पर राय लिया गया

गांव भ्रमण के बाद टीम ने हिवरखेड़ी के समीप स्थित गांव चौकी का भ्रमण किया। हिवरखेड़ी से चौकी तक पैदल चलकर गांव के वातावरण को महसूस किया गया। चौकी गांव पहुंचकर वहां के लोगों के बारे में जाना  और वहां की शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक, व्यासायिक, सांस्कृतिक संबंधी आंकड़ों को इकट्ठा किया गया।

दिन के अंतर्गत में अनुभव साझा करने के बाद इस कार्यक्रम का समापन किया गया।


गुरुवार, 15 मार्च 2018

अनुभूति : गांव चलें हम


शहरी विद्यार्थियों को गांव की जीवन शैली से अवगत कराने के लिए विकासार्थ विद्यार्थी द्वारा एक कार्यक्रम का आयोजन कराया जा रहा है जिसका नाम है अनुभूति : गांव चलें हम। इस कार्यक्रम में कॉलेज और विश्वविधालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों को गांवों का दर्शन कराया जाना है। इसका मुख्य उद्देश्य  ग्रामीण दर्शन है। यह कार्यक्रम 15-18 मार्च 2018 को मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों के गांवों में आयोजित किए जा रहा है। विद्यार्थियों को ऐसे गांव में ले जाया जा रहा है जो उनके जिले का ना हो।

इस कार्यक्रम का उद्देश्य केवल ग्रामीण व्यवस्था से अवगत कराना ही नहीं बल्कि वहां के लोग को जानना भी है। इसके तहत गांव के लोगों से मिलना, वहां की परिस्थितियां से अवगत होना और साथ ही वहां के पारिस्थितिकी के बारे में जानना भी है। कॉलेज या विश्वविधालय से विद्यार्थियों की टीम किसी गांव जाएंगी और विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में भाग लेगी। इन गतिविधियों में सांस्कृतिक, सर्वेक्षण, प्रभात फेरी, बौद्धिक आदि शामिल है।

ऐसा ही एक कार्यक्रम बैतूल जिले के गांव भडूस और हिवरखेड़ी में सम्पन्न होने जा रहा है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविधालय भोपाल की दो टीम बालक और बालिका का चयन हुआ। बालकों की टीम का यह कार्यक्रम हिवरखेड़ी में शुरु हुआ। इस कार्यक्रम की शुरुआत 15 मार्च को परिचय से शुरू हुआ और संध्याकाल में बौद्धिक के साथ सम्पन्न हुआ। यह कार्यक्रम 15-18 मार्च तक होगा।


रविवार, 4 मार्च 2018

जॉर्डन और भारत


एक ऐसा देश जो जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर अपना निष्पक्ष रुख रखता हो, भारत की संयुक्त राष्ट्र परिषद के सुरक्षा परिषद में अस्थाई सदस्यता का सदैव समर्थन करता हो, ऐसा देश जो इस्लामिक देश होने के बाद भी मॉर्डन लाइफ जीता हो .... तो ऐसा देश भारत का समकक्ष कैसे नहीं हो सकता। मैं बात कर रहा हूं जॉर्डन की। जॉर्डन मध्य पूर्व में बसा एक छोटा-सा देश है, जिसका क्षेत्रफल मात्र  लगभग 90 हजार वर्ग किमी और आबादी 98 लाख है। जॉर्डन एक इस्लामिक देश है जिसकी गिनती मिडिल ईस्ट में स्थित सबसे समझदार और उदार देशों में की जाती है। यह देश सीरिया, इराक और इजरायल से घिरा हुआ है।

जॉर्डन का नाम जॉर्डन नदी पर पड़ा है। जॉर्डन को दुनिया के सबसे सूखाग्रस्त देशों(driest Country) में गिना जाता है। यह दुनिया का आठवां सबसे बड़ा जैतून(olive) उत्पादक देश है। यहां की मॉर्डन लाइफ एक तरफ तो पश्चिमी देशों की याद दिलाती है क्योंकि यहां जो आजादी लोगों के पास है वो और किसी मुस्लिम देश में नहीं है। मध्य पूर्व का एक ऐसा देश जिसकी अर्थव्यवस्था कच्चे तेल और गैस पर नहीं टिकी हैै बल्कि सेवा(service sector) पर आधारित है।

जॉर्डन, विश्व को अपनी ओर खींचने में सफल रहा है क्योंकि यहां कि जिंदादिली पर्यटकों को पसंद आती है। जॉर्डन स्थित पेट्रा(petra) को कौन नहीं जानता। यह दुनिया के सात अजूबे में से एक है। इसकी गिनती यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल में होती है। यह लगभग दो हजार साल पुरानी कलाकृति है। यह जॉर्डन की विरासत है। जॉर्डन पर ओटोमन साम्राज्य, क्रुसेडर, ग्रीक, रोमन और मुस्लिम शासकों ने राज किया जिसकी झलक साफ-साफ देखी जा सकती है। यह बहुत ही कम लोग जानते होंगे कि पहले जॉर्डन इसाई धर्म का पालन करता था लेकिन आज यहां 90 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम है।

भारत और जॉर्डन पुराने दोस्त रहे हैं। मध्य पूर्व में जो देश उदारवादी विचारों का परिचायक है साथ ही भारत के विचारों से सहमत है वह जॉर्डन है। लोग कहते है कि भारत एक ऐसे देश की ओर हाथ क्यों बढ़ा रहा है जिसके पास न तो कच्चा तेल है और न ही गैस। भले जॉर्डन के पास दोनों प्राकृतिक संसाधनों की कमी हो या रिक्तता हो फिर भी उसकी भौगोलिकता मायने रखती है। जॉर्डन ही मिडिल ईस्ट में एक ऐसा देश है जो सीरिया और इराक से आ रहे शरणार्थियों को शरण दे रहा है। भारत, जॉर्डन के केवल उदार मुस्लिम होने पर कायल नहीं है बल्कि जॉर्डन उन दो देशों में से एक जिसने इजरायल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया है।

जॉर्डन एक शांतिप्रिय देश है। छह दिन के युद्ध के बाद आज तक जॉर्डन से किसी का युद्ध नहीं हुआ है। जॉर्डन, भारत का एशिया में महत्व समझता है। भारत एक बड़ा देश है जो उसकी जरुरत को पूरा कर सकता है। जॉर्डन के शाह अब्दुल्ला द्वितीय बिन अल हुसैन जब नई दिल्ली आए तो भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनका स्वागत गर्मजोशी के साथ किया। अब्दुल्ला यहां केवल द्विपक्षीय वार्ता के लिए ही नहीं आए बल्कि इस्लामिक हेरिटेज जैसे महत्वपूर्ण विषय पर भाषण देने के लिए बुलाया गया। अब्दुल्ला भारत में आए तो उन्होंने भारत सरकार के साथ 12 विषयों पर एमओयू साइन किया। इन एमओयू में स्वास्थ्य, दवाइयां, वीसा, ह्यूमन रिसोर्स, मीडिया जैसे विषय शामिल है।

पाकिस्तान और जॉर्डन की घनिष्ठ मित्रता रही है या यूं कहे कि मिडिल ईस्ट में पाकिस्तान के दो परम मित्र देश थे सउदी अरब और जॉर्डन। आज यह दोनों देश भारत के सगे हो गए। यह सबक है उन देशों के लिए जिनके घर में कलह मची हो और वे दूसरे देशों से संबंध अच्छे करने निकले हैं। पाकिस्तान की अंदरुनी हालत कौन नहीं जानता है? बहरहाल जॉर्डन एक प्राकृतिक संसाधनों के मामले में शून्य है और उसे ऐसे क्षेत्र में निवेश करना है जो उसे बढ़ावा दे सके। जॉर्डन भारत के साथ टेक्नोलॉजी, सर्विस, मीडिया आदि के साथ आगे बढ़ने को तैयार है। एक और क्षेत्र में जॉर्डन और भारत साथ आ रहे हैं वो है पर्यटन। जॉर्डन ने भारत के आगरा और जॉर्डन के पेट्रा के बीच समझौता किया गया है।

जॉर्डन ही वही देश है जिसने मोदी को अपने आर्मी हेलिकॉप्टर से फिलीस्तीन भेजा था। आम्मान और नई दिल्ली के रिश्तें सदा परवान चढ़े मेरी तो यही कामना है। खैर यदि आपको किसी सागर में बिना डूबे तैरना है तो आप जॉर्डन जाकर डेड सी की लहरों की सवारी कर सकते हैं।

                           ।।जय हिंद।।

📃BY_vinaykushwaha


अंबेडकर और संघ


मैं जानता हूं कि वामपंथी संसदीय लोकतंत्र पर विश्वास नहीं करते यह मेरा नहीं बल्कि बाबासाहब भीमराव अंबेडकर का कहना है। अंबेडकर जी अपनी तमाम उम्र उन कुरीतियों से लड़ते रहे जिन्हें इस समाज और देश में होना ही नहीं चाहिए था। वे हमेशा एकता, अखंडता, समरसता, भेदभाव और छुआछूत से रहित समाज की कामना करते थे। उन्होंने अपने देश के प्रति सदा समर्पण का भाव रखा। भारत की क्षति को अपनी क्षति स्वीकार किया है। वे तब भी आहत हुए थे जब भारत का विभाजन किया जा रहा था और तब जब इस देश में छुआछूत और भेदभाव जैसे से असामाजिक मुद्दे व्याप्त थे।

अंबेडकर एक प्रतिभावान, कुशाग्र बुद्धि के धनी थे वे चाहते तो आसानी से किसी उच्च पद नौकरी करते परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया सदैव अपने समाज,धर्म और इस देश के लिए आंदोलन किया ताकि देश की आन-बान-शान को नुकसान न पहुंचे।डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय के खंड 5 में लिखा है, 'डॉ. अंबेडकर का दृढ़ मत था कि मैं हिंदुस्तान से प्रेम करता हूं। मैं जीऊंगा तो हिंदुस्तान के लिए और मरूंगा तो हिंदुस्तान के लिए। मेरे शरीर का प्रत्येक कण और मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण हिंदुस्तान के काम आए, इसलिए मेरा जन्म हुआ है।

अंबेडकर जी हमेशा से कुरीतियों जिनमें छुआछूत और भेदभाव था इसके खिलाफ थे जो हिन्दु धर्म को कलुषित कर रहा था। वे हमेशा से ही दलित के लिए संघर्ष में इस बात को उठाते रहे कि उन्हें सार्वजनिक पेयजल स्त्रोतों पर जाने की स्वतंत्रता हो, मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति हो। संघ भी इसी विषय पर कार्य कर रहा है 'एक मंदिर, एक कुंआ, एक श्मशान'। इस विचारधारा के साथ समाज को सदैव आगे बढ़ाया जा सकता है साथ ही साथ समरसता की भावना को समाज में बनाया जा सकता है।

आज से लगभग 70 साल पहले अंबेडकर जी ने अनुच्छेद 370 को हटाने की बात कही थी परंतु किसी ने भी उनकी इस विषय पर ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे कि यह देश अखंड रहे ताकि इस देश के सभी नागरिक सुरक्षित रहे। आज 2018 में भी इसी बात को लेकर बहस जारी है कि हमें 370 को हटाना चाहिए। संघ भी देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए इस प्रकार की कामना करता है।

सीधे-सीधे तौर पर देखा जाए तो संघ और अंबेडकर जी के बीच में एक समानता जरूर दिखाई देती है। छुआछूत, भेदभाव और जाति व्यवस्था को खत्म करना। जिस प्रकार संघ किसी प्रकार से जाति को मानने से इंकार करता है ठीक उसी प्रकार अंबेडकर जी जातिप्रथा के विरोधी थे। वे हिन्दु धर्म के किसी भी प्रकार से विरोधी नहीं थे। यदि वे हिंदु धर्म के विरोधी होते तो वे बौद्ध धर्म को क्यों चुनते जबकि उनके सामने इसाइयत और मुस्लिम धर्म के विकल्प खुले थे। उन्होंने अपने जितने भी आंदोलन किए सभी असामाजिक मुद्दों को लेकर किए गए थे।

संविधान में एक समान सिविल संहिता की बात कही गई है जिसमें सभी नागरिकों समान अधिकारों दिए जाने का वादा है। यह सब संभव हो सका है डॉ अंबेडकर के कारण वे चाहते थे कि देश के हर वर्ग तक अधिकार पहुंचे। इसी कारण उन्होंने समाज के पिछड़े लोगों को बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रावधान की बात कही है। संघ भी यूनिफार्म सिविल कोड की बात करता है।

आज संस्कृत का लोहा पूरा विश्व मान रहा। संस्कृत के विषय में नई-नई रिसर्च सामने आ रही है किसी संस्कृत को कम्प्यूटर की सरलतम भाषा के रूप में बताया है तो कोई इस भाषा सर्वाधिक वैज्ञानिक बताता है। बाबासाहब को भी संस्कृत से लगाव था।10 सितंबर 1949 को डॉ. बीवी केस्कर और नजीरूद्दीन अहमद के साथ मिलकर बाबा साहब ने संस्कृत को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन वह पारित न हो सका। यह तो हमारे देश की विडंबना है कि सारी भाषाओं की जननी का ही सम्मान नहीं हो रहा है। संघ भी चाहता है कि हमारे देश की भाषा संस्कृत हो जो हमें और ज्यादा सुसंस्कृत कर सके।

                            ।।जय हिंद।।

📃BY_vinaykushwaha


शनिवार, 3 मार्च 2018

अंबेडकर और बौद्ध धर्म

          

दीक्षाभूमि नागपुर गवाह है कि कैसे? डॉ भीमराव अंबेडकर जी ने अपने लगभग 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। यह दुनिया का सबसे बड़ा धर्म परिवर्तन कहा जाता है क्योंकि इससे पहले इतिहास में कभी इतनी संख्या में किसी ने एक साथ धर्म परिवर्तन नहीं किया था। 14 अक्टूबर 1956 को हिन्दु धर्म छोड़ते हुए बौद्ध धर्म अपना लिया। यह धर्म परिवर्तन कोई दबाव में की गई प्रक्रिया नहीं थी बल्कि यह तो अव्यवस्था को लेकर किया गया एक समूह निर्णीत एक कार्य था जिसका प्रतिनिधित्व डॉ भीमराव अंबेडकर ने किया था।

अंबेडकर महार जाति में जन्में एक महान व्यक्तिव्य थे।  जन्म से ही छुआछूत और भेदभाव का दंश झेला था। यद्यपि उनके माता-पिता या परिवार में कोई हिन्दु धर्म के खिलाफ नहीं थे बल्कि उनके माता-पिता तो सदैव उन्हें धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे। इसी कारण अंबेडकर जी ने बचपन में महाभारत, रामायण आदि समेत धर्म ग्रंथों का अध्ययन कर लिया था। अंबेडकर कभी भी हिन्दु धर्म या इसके पद्धति के खिलाफ नहीं थे बल्कि वे तो ब्राह्मणवाद और उनके द्वारा की जा रही कुरीतियों के सख्त खिलाफ थे। डॉ अंबेडकर एक प्रतिभावान व्यक्ति थे उन्होने लगभग 51 पुस्तकें लिखी। वे भारत के पहले व्यक्ति है जिन्होंने अपनी पीएचडी इकोनोमिक्स से पूरी की थी।

अंबेडकर का धर्म परिवर्तन एकाएक हुई कोई घटना नहीं है बल्कि यह सतत् सामाजिक प्रक्रिया की देन है।बचपन में जहां उन्हें सामान्य बच्चों के साथ कक्षा में बैठने की अनुमति नहीं थी, पानी या पानी के पात्र को छूने की अनुमति नहीं थी। वही जब वे थोड़े आगे बढ़े और बडौदा रियासत में नौकरी किया करते थे तो प्यून उन्हें फाइलें फेंककर देते थे। यह सब देखकर उनका मन विचलित हो गया था। सबसे बड़ी घटना तो तब हुई जब वे आंदोलन करते हुए खानदेश पहुंचे और वहां उन्हें दलित होने के कारण तांगें वाले ने बैठाने से ही मना कर दिया। यह सब धर्म परिवर्तन का कारण बना।

हिन्दु धर्म में इस छुआछूत और भेदभाव को मिटाने के लिए अंबेडकर ने कई प्रयास किए। महाड सत्याग्रह जैसे प्रयासों को नहीं भुलाया जा सकता है। कालेराम मंदिर, नासिक में कई हजार समर्थकों के साथ प्रवेश किया जो केवल कुरीतियों को तोड़ने वाला ही था। उनके जीवन की एक घटना जब उनकी पत्नी ने कहा कि वे पंढ़रपुर जाना चाहती है लेकिन उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि वहां दलितों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है। यही इच्छा उनकी पत्नी की आखिरी इच्छा बनी जो कभी पूरी नहीं हो सकी थी।

हिंदु धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने से पूर्व उन्होंने हर धर्म का गहन अध्ययन किया था। मुस्लिम धर्म की ओर आकर्षित हुए परंतु जब उन्होंने वहां व्याप्त कुरीतियों को देखा तो उनका मोहभंग हो गया। यहां भी ऊंची जातियों के द्वारा नीची जातियों से दुर्व्यवहार किया जाता था। मुस्लिम धर्म में सबसे बड़ी बात जो अंबेडकर को नगबार गुजरी वह थी कि स्त्रियों की कोई भूमिका और सम्मान न होना। फिर कुछ समय बाद उन्होंने सिक्ख धर्म का रुख किया लेकिन यहां भी उन्हें कुरीतियां दिखाई दी। यहां दलितों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। जिसके कारण उन्होंने सिक्ख धर्म को अपनाने की बात टाल दी। अंत में बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए और इसका अध्ययन किया । इसी कारण उन्होंने कई किताबें बुद्ध और धम्म के विषय में लिखी थी।

अन्त्वोगत्वा उन्होंने बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।

                        ।।जय हिन्द।।

📃BY_vinaykushwaha