फिल्में समाज को सीख देती है। समाज को सामाजिक, धार्मिक,सांस्कृतिक,वैचारिक रुप से सुदृढ़ रखने में मदद करती हैं। सौह्यार्द्र की भावना को कायम करने में मदद करती है। फिल्मकारों के बीच फिल्मों को समाज का दर्पण कहा जाता है। दर्पण कहना सही भी है क्योंकि व्यक्ति समाज में रहकर सीखता है और अपनी जिंदगी में वही उतारता है। फिल्मकारों का यह कहना कि समाज में जो हो रहा है हम वही दिखा रहे है, यह बिल्कुल गलत है। समाज केवल व्यक्ति विशेष की सोच से नहीं चलता। समाज चलता है विचारों या यूं कहे कि सुविचारों से। आजकल कुछ फिल्मकार फिल्म को प्रसिद्धि दिलाने के लिए अव्यवहारिक बातों को बढ़ावा देते हैं।
हाल ही में रिलीज हुई फिल्म पद्मावत पर हुए विवाद से यही बताया जा सकता है। समाज और देश की जनता के बीच इतना क्रोध एक फिल्म के प्रति कभी नहीं देखा गया। आप किसी भी वर्ग विशेष की भावना को ठेस पहुंचाकर फिल्म बना तो सकते है परंतु फिल्म को रिलीज करवाना आपके गले की फांस बन जाएगा। पद्मावत का विवाद कोई आम विवाद नहीं था। यह सरासर इतिहास के साथ छेड़छाड़ थी। इतिहास से छेड़छाड़ मतलब कि लोगों की भावनाओं से खिलवाड़। समाज केवल क,ख, ग,घ से नहीं चलता बल्कि यह तो प्रेम और भावनाओं के विश्वास से भी चलता है। पद्मावती का नाम पद्मावत होने तक इस फिल्म ने कई विवादों को जन्म दिया गया। मलिक मोहम्मद जायसी रचित पद्मावत एक महान महाकाव्य जिसकी फिल्म निर्माता ने छवि बिगाड़ने की कोशिश की है।
भारत की फिल्म इंडस्ट्री में कई महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्माण हुआ है। इस इंडस्ट्री ने कई महान फिल्मों को जन्म दिया है। मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, पाथेर पांचाली, अंकुर, डॉ कोटनिस की कहानी जैसी फिल्मों ने समाज को बहुत कुछ दिया है। इन फिल्मों के माध्यम से दर्शक दीर्घा तालियां बजाने के साथ-साथ खुद को फिल्म से जोड़े बिना नहीं रह पाया। लेकिन हालिया कुछ फिल्मों ने इस छवि को मिट्टी पलीत कर दिया मतलब नाम मिट्टी में मिला दिया। फिल्म के नाम से लेकर स्टोरी तक आजकल एक क्रिएटिविटी नहीं बल्कि एक सोच को अंजाम देना या फिर कहे कि जानबूझकर तंग(tease) किया जा रहा है।
दक्षिण भारत में निर्मित फिल्में एक बड़ा परिदृश्य लेकर लोगों के सामने आती है। कई फिल्में है जिन्होंने सीख दी है साथ-साथ टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में अहम भूमिका अदा की है। कई फिल्में ऐसी है जिनमें सीन को इस तरह फिल्माया जाता है जो बेहद आपत्तिजनक लगते है। फिल्मकार यह बोलकर अपना तल्ला छुड़ाना चाहते है कि यह समाज की जरुरत है। परंतु यह फिल्में समाज की जरुरत नहीं बल्कि सेक्स उत्सुकता बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं करती है। दक्षिण ही क्यों बॉलीवुड से लेकर भोजपुरी सिनेमा तक जमकर अश्लीलता परोसी जा रही है।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां हमें वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है। सभी को कहने, बोलने की आजादी के साथ-साथ किसी भी कृति को व्यक्त करने की आजादी है। इसी बात का फायदा उठाकर कई फिल्मकार धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाकर अपनी फिल्म रिलीज करते हैं। कई ऐसी फिल्में बनी है जिन्होंने किसी धर्म विशेष पर हमला करते हुए लोगों की भावनाओं को बहुत ठेस पहुंचाया है। हिन्दुओं की भावना को विशेष रुप से ठेस पहुंचाया है। ऐसा किसी देश में नहीं है कि वहां कि बहुलता वाली आबादी को टारगेट किया जाए। लेकिन ऐसा भारत में सहज ही होता है।
फिल्मकारों और समाज एवं दर्शकों को यह समझना होगा कि यह क्या हो रहा है?
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