भारत में ऐसा बहुत कम होता है कि ओपिनियन पोल, एक्जिट पोल और चुनाव का नतीजा बिल्कुल एक जैसा हो। इस बार कर्नाटक के परिप्रेक्ष्य में यह सही साबित हुआ। सभी नतीजों में बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में दिखाया जा रहा था वही कांग्रेस को दूसरे नंबर पर और जेडीएस को तीसरे नंबर पर दिखाया जा रहा था। लेकिन इन सब के बीच किसी पार्टी को बहुमत नहीं दिया जा रहा था जो अन्त्वोगत्वा सही निकला। इस चुनाव भले ही बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में दिखाया जा रहा हो लेकिन वह इस हालत में नहीं है कि वह कर्नाटक में सरकार बना सके। बीजेपी ने इस चुनाव 104 सीटों विजय हासिल की। वही कांग्रेस ने 77, जेडीएस ने 37 और अन्य को 3 सीटें मिली।
एक चौंका देने वाली बात यह है कि बहुजन समाज पार्टी को भी एक सीट मिली। दक्षिण भारत के राज्य बीएसपी का चुनाव जीतना चौंका सकता है लेकिन यह पहला मौका नहीं है जब बहुजन समाज पार्टी कर्नाटक में चुनाव लड़ रही है। 2013 में भी बीएसपी ने चुनाव लड़ा था और लगभग 1.5 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किए थे। इस बार सबसे बड़ी बात यह है कि बीएसपी का वोट शेयर घटा हैं जो 0.3 प्रतिशत तक जा पहुंचा हैं। इसके बावजूद बीएसपी को एक सीट पर कब्जा करने में कामयाबी मिली है।
इस चुनाव में बीएसपी और मायावती की चर्चा हो रही है। पहला कारण तो बीएसपी का एक सीट पर कब्जा करना और दूसरा कारण मायावती की पार्टी बीएसपी का पूर्व प्रधानमंत्री एच डी दैवेगौडा की जेडीएस की पार्टी का गठबंधन। यह गठबंधन चुनाव पूर्व किया गया था। मायावती का जेडीएस की चुनावी रैली में दिखना आम बात थी। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण मायावती का दैवेगौडा का फोन करके कांग्रेस के साथ कर्नाटक में सरकार बनाने की बात कहना। क्या यह कहा जा सकता है कि मायावती के कहने पर दैवेगौडा, कांग्रेस के साथ कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए राजी हुए हैं।
कांग्रेस और जेडीएस ने मिलकर कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला के सामने सरकार बनाने का प्रस्ताव रखा है। कांग्रेस ने एच डी दैवेगौडा के सुपुत्र कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया है। कांग्रेस और जेडीएस (77+37=114) के जादूई आंकडें को छू लिया है। इन सबके अलावा यह सवाल करना सही रहेगा कि क्या यह सरकार कितने दिनों तक काबिज रहेगी? अभी बगावती सुर बुलंद हो गए हैं। वोक्कालिंगा, लिंगायत और कुरबा अलग-अलग जातियों से आने वाले विधायकों ने अपनी-अपनी को विरोध के रूप में कहने का प्रयास किया है। जेडीएस के कुछ विधायक सिद्धारमैया को स्वीकार नहीं करना चाहते क्योंकि वे कुरबा जाति से आते है।
एक और बात सामने आती है कि क्या दैवेगौडा सिद्धारमैया को सरकार में स्वीकार करेंगे? यह वही सिद्धारमैया है जिन्होंने बगावत करते हुए जनता दल (एस) को तोड़ने की कोशिश की थी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि क्या दैवेगौडा, सिद्धारमैया को अपने से ऊपर देखना चाहेंगे क्योंकि सिद्धारमैया कभी दैवेगौडा के शिष्य रह चुके हैं। उन्हीं के सानिध्य में सिद्धारमैया ने राजनीतिक गुर सीखें हैं। कर्नाटक की सरकार में मुख्यमंत्री के रूप में रहते हुए सिद्धारमैया पर कई आरोप लगे जिनमें मंहगी वस्तुओं का उपयोग करना, भ्रष्टाचार और सबसे बड़ा आरोप है कि लिंगायत समाज को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता देना। सिद्धारमैया को इसका खामियाजा सरकार की बलि देकर चुकाना पड़ा।
इस चुनाव सर्वाधिक वोट प्रतिशत कांग्रेस का 37.9 प्रतिशत रहा जबकि सर्वाधिक सीट लाने बीजेपी का वोट प्रतिशत 36 प्रतिशत रहा। सीटों की बात कही जाए तो बीजेपी ने तटीय कर्नाटक में शानदार प्रदर्शन किया में 21 में से 18 जीतकर कांग्रेस को तीन सीटों पर समेट दिया। बीजेपी उन जगह सबसे अच्छा प्रदर्शन किया जहां लिंगायत समुदाय जनसंख्या ज्यादा है। यह कांग्रेस की नाकामयाबी का नतीजा है जिसका फायदा बीजेपी ने उठाया है। बंगलुरू रीजन में भी बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहा।
किसी पार्टी को बहुमत न मिलने से नतीजा त्रिशंकु आया। देखना होगा कि कौन सरकार बनाने की रेस में पहले नंबर पर होगा। कही कांग्रेस का हाल मणिपुर और गोवा की तरह न हो जाए या ऐसा भी कह सकते है कि बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी सरकार न बना सके। कांग्रेस ने बीजेपी से सबक लेते हुए जल्दी से एक्शन लिया है। अपने दो कद्दावर नेता गुलाम नबी आजाद और अशोक गहलोत को बंगलुरू भेजकर सरकार बनाने की बात कही। वही सिद्धारमैया राज्यपाल से मिलने में देरी नहीं की। इसके साथ ही कुमारस्वामी ने भी राज्यपाल से मुलाकात की।
कांग्रेस ने बीजेपी से एक ज्ञान नहीं लिया कि कैसे सोशल इंजीनियरिंग की जाती है? गुजरात चुनाव की तरह कर्नाटक में कांग्रेस ने जनता से संपर्क साधना में देर कर दिया जिसका नतीजा उसे भुगतना पड़ा। संघ की बदौलत आज बीजेपी इतनी उझल रही है यदि संघ का स्वयंसेवक जमीन पर न उतरता तो स्थिति कुछ और होती।
सरकार जिसकी भी बने स्थिर रहे। भ्रष्टाचार मुक्त रहे। कावेरी और महादयी जैसे मुद्दे सुलझाने में कामयाब रहे। भाषा को लेकर विरोध की राजनीति न हो।
📃BY_vinaykushwaha