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सोमवार, 20 मई 2019

आम और ये मैंगो पीपुल!


आज जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं तो 2019 का आम चुनाव खत्म हो चुका है। आम चुनाव खत्म होने के साथ ही देश भर में चुनाव प्रचार का शोर थम चुका है। अब सबकी नजर 23 मई को आने चुनाव के नतीजे पर हैं। यह पोस्ट नॉन पॉलिटिकल है जिस तरह प्रधानमंत्री का इंटरव्यू नॉन पॉलिटिकल था। अभिनेता अक्षय कुमार के सवाल का जवाब देते पीएम बड़े ही मासूम नजर आ रहे थे। आम की कहानी तो उन्होंने इस तरह बताई की मुझे अपने बचपन के दिन ध्यान आ गए क्योंकि हम भी लग्जरी में पले-बढ़े नहीं हैं। पत्रकार रवीश कुमार को तो बाकायदा प्राइम टाइम ही आम करना पड़ा। आम सफेदा हो या लंगड़ा, बादाम हो या दशहरी यही बताना पड़ा। गर्मी के मौसम में आम और आम से बने जूस आदि का आनंद हर व्यक्ति उठाता है। मैंने बचपन से लेकर आजतक बादाम, केसरी, तोतापरी, नीलम, लंगड़ा, दशहरी, चौसा, मोती, कल्मी, गोविंदगढ़ का आम खाया है। बचपन में हमने भी आम तोड़कर खाया है। हम भी प्रधानमंत्री बने तो कोई हमसे पूछे कि क्या आप भी आम खाते हैं? मेरा जवाब तैयार होगा हां, हमारी फैमिली में ऐसी कोई लक्जरी तो नहीं कि हम आम खरीद कर खा पाएं।

मैं नहीं जानता कितने लोगों ने अपनी जिंदगी गांव में बिताई है या गांव में रहकर गांव के जीवन को करीब से देखा है। मेरे पिताजी गांव से निकलकर शहर में नौकरी करने चले गए। शहर का जीवन मैंने जीया है लेकिन गांव को मैंने करीब से देखा है। गर्मी में स्कूल के छुट्टी के दरम्यान हम (हम मतलब मम्मी, भइया और मैं) गांव का रुख करते थे। सीधी-सीधी बात कहूं तो गांव का जीवन चले जाते थे। चूल्हे पर पकी चाय का सौंधापन क्या शानदार लगता था। मैंने चाय बेची नहीं है। हंडी में पकी दाल और हाथों से पोई रोटी का स्वाद जो गांव के खाने में था आज मैं याद करता हूं। उस खाने को भुलाया नहीं जा सकता है। आकाश तले रात गुजारना और दिन में बिजली आने का इंतजार करना दोनों का एक सुखद अनुभव था। गर्मी के दिनों में खाट पर सोना और कुत्तों के भौंकने की तेज आवाज आज भी याद आती है। खेत के किनारे खाट डालकर सोने का अनुभव तो और भी शानदार था। रात में फसल को छूकर आने वाली हवा गर्मी की उजाले वाली रात को और भी ठंडा कर देती थी।

मेरे गांव के घर में एक बारी थी। जो लोग बारी के बारे में कुछ नहीं जानते तो उनको बताता चलूं कि बारी एक ऐसी जगह होती है जिसे हम छोटा-सा बगीचा कह सकते हैं। गांव वाली बारी में एक छोटा-सा घर था जिसमें दादा-दादी रहते थे। इसी घर से दो कदम की दूरी पर एक बड़ा-सा कुंआ था। गर्मियों में इसी कुंए से पानी निकालकर हम ठंडा-ठंडा पानी पिया करते थे। गांव की बारी में कटहल (jack fruit), करौंदा, नींबू, सीताफल (custard apple) और आम के पेड़ थे। हम जब भी गांव जाते थे तो आम के पेड़ पर चढ़कर आम खाते थे क्योंकि हमारे पास कोई लक्जरी तो थी नहीं। दादी अक्सर खटिया पर अमावट बनाती थी। अमावट को शायद ही आजकल के लोग जानते हों। अमावट पके हुए आम का गूदा निकालकर उसे खटिया में चादर बिछाकर एक परतदार के रूप में आकार दिया जाता है। मैं बघेली हूं और हमारे यहां आम और आम से बनीं चीजों का बहुत इस्तेमाल किया जाता है। आम चाहे कच्चा हो या पका दोनों का इस्तेमाल बराबर होता है।

मैं जब छोटा था तो मई-जून के महीने में तूफान बारिश होने पर कैरियां गिर जाती थीं। मैं और मेरे दोस्त कैरियां अपनी टी-शर्ट में भरकर घर ले जाते थे। कई बार तो पत्थर मारकर,बांस की लग्गी बनाकर कैरी तोड़ी हैं क्योंकि हमारे पास कोई लक्जरी तो थी नहीं। कैरी बड़े काम का फल है। बघेली लोग कैरी की सब्जी, कैरी की कढ़ी, कैरी की चटनी, कैरी का पना, कैरी से आचार, कैरी को सुखाकर अमचूर बनाते हैं। कैरी से बने कई सारे पाकवान के बारे में लोग जानते हैं लेकिन डिश जो बघेली बड़े चाव से खाते हैं वो है 'बगजा'। बगजा, कैरी से बनता है। कैरियों को उबाला जाता है। कैरी का गूदा निकाला जाता है। इस गूदे में गुड़ मिलाया जाता है इसके साथ नमक,भुना जीरा मिलाया जाता है। इसके बाद बेसन का घोल तैयार करके सेंव बनाया जाता है। गूदे को सरसों के तेल में खड़ी लाल मिर्च, जीरा, खड़े मसाले के साथ छौंक लगाया जाता है। इस छौंक में सेंव को मिलाया जाता है, इसे कहते हैं 'बगजा'। बघेली इस डिश को बड़े चाव से खाते हैं और मैं भी क्योंकि हमारे पास कोई लक्जरी तो थी नहीं।

जैसे-जैसे बड़े होते गए तो आम खाने का तरीका बदलता गया। पहले तो हमें केवल रीवा के गोविंदगढ़ का आम और दशहरी पता था। जैसे-जैसे बड़े होते गए वैसे-वैसे आम के नए-नए नाम भी पता चलते गए। मैं मध्यप्रदेश से हूं। एमपी से यूपी तक आते-आते आम का राजा भी बदल गया। एमपी में जहां बादाम आम का राजा था तो वहीं यूपी आने के बाद आम का राजा सफेदा हो गया। आम रस तो बचपन में भी पीते थे। आमरस के साथ दाल की रोटी खाने का आनंद तो सच्चा बघेली ही जान सकता है। बचपन में आम का रस निकालकर हम उसमें काजू,किशमिश,बादाम, दूध और थोड़ी शक्कर मिलाकर फ्रिज में जमने के लिए रख देते थे। यही हमारे लिए आइसक्रीम थी। अब तो केवल दुकानों में ही मैंगो फ्लेवर वाली आइसक्रीम खाना होता है। आम रस के नाम पर बाजार में दस-पांच रुपये में मिल रहे मैंगो जूस को पीकर अपने आप को तृप्त करते हैं।

आम को फलों का राजा कहा जाता है। आम सच में फलों का राजा होने लायक है भी क्योंकि आम खाने के लिए किसी प्रकार की लक्जरी की जरूरत नहीं है। एक आम इंसान से लेकर अमीर तक आम को खाता है। मैंने आज तक आम खाने के लिए किसी व्यक्ति को कहते हुए नहीं सुना कि हमारे पास लक्जरी तो थी नहीं, सिवाय एक के। आम के लिए अब तो एक मौसम विशेष तक रुकने की जरुरत भी नहीं है क्योंकि अब आम बारहमासी हो गया है। जब मन करे आम खरीदो और खाओ। आम की टक्कर आज कीवी, ड्रेगन फ्रूट, आवोकाडो से हो गई है। मेरे लिए तो आम ही 'द बेस्ट' है जिसके लिए लक्जरी की जरुरत नहीं पड़ती है। हां मैंने आज तक मैंगो लस्सी का स्वाद नहीं चखा है। मैंगो लस्सी का स्वाद तो मैं कभी चख लूंगा लेकिन इसके लिए मैं लक्जरी को दोष नहीं दूंगा। मैंगो लस्सी के एवज में मैंने मैंगो फ्लेवर वाली टॉफी जरूर खाई है। पता नहीं और क्या बाकी है और क्या नहीं लेकिन मेरे हिसाब भारत का कोई भी वर्ग हो उसे आम खाने के लिए लक्जरी की जरुरत नहीं है।  आम की तरह हम भी तो मैंगो पीपुल(mango people) हैं।

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