जम्मू कश्मीर के लद्दाख को अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता है। हिमालय की ऊंची-ऊंची पर्वतश्रृंखला, बौद्ध मठ और दूर-दूर तक फैली शांति सभी को लद्दाख आकर्षित करती है। लद्दाख की चीन की सीमा से करीबी सुरक्षा की दृष्टि से डर पैदा करता है। लद्दाख में इस डर का सबसे पहले जिक्र कुशोक बकुला रिम्पोछे ने किया था। कुशोक बकुला रिम्पोछे को आधुनिक लद्दाख का निर्माता कहा जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने लद्दाख में एयरपोर्ट का उद्घाटन किया तो उन्होंने कुशोक बकुला रिम्पोछे को आधुनिक लद्दाख का निर्माता कहा था। कुशोक बकुला रिम्पोछे का जन्म 19 मई 1917 में लद्दाख में हुआ था। कुशोक बकुला का असली नाम लोबजंग थुबथन छोगनोर था। असलियत में कुशोक बकुला को भगवान बुद्ध के सोलह अर्हतों में से एक माना जाता है। बकुला भगवान बुद्ध के समकालीन थे और उन्हें बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए स्वयं भगवान बुद्ध ने कहा था। बकुला के उन्नीसवें अवतार को कुशोक बकुला रिम्पोछे के नाम से जाना जाता है।
कुशोक बकुला की शिक्षा-दीक्षा तिब्बत में हुई थी। तिब्बत में कुशोक ने चौदह वर्षों तक बौद्ध धर्म का अध्ययन किया और शिक्षा पूरी की। लद्दाख के साथ-साथ उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार विदेशों में भी किया। लद्दाख के गांव-गांव में जाकर उन्होंने बुद्ध और उनकी शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया। भारत के विभिन्न हिस्सों में जाकर उन्होंने बुद्ध के बचनों को लोगों तक पहुंचाया। मंगोलिया जाकर बकुला ने बौद्ध धर्म को फिर से जागृत करने का काम किया। मंगोलिया को ईसाई धर्म के मिशनरियों से बचाकर उन्होंने बौद्ध धर्म की पताका मंगोलिया में लहराने दी। 1996 में ब्रिटेन में मजहबों और पर्यावरण संरक्षण सम्मेलन में भारत से कुशोक बकुला रिम्पोछे और स्वामी चिदानंद गए थे। कुशोक ने इस सम्मेलन में ईसाई मिशनरियों के बारे में काले सच को उजागर किया कि कैसे ईसाई मिशनरी लोगों से जबरन धर्म परिवर्तन करा रहे हैं और ईसाई धर्म कबूल करवाने पर मजबूर कर रहे हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से निवेदन किया की भगवान बुद्ध के दो शिष्यों सारिपुत्त और महामोदगलायन के अस्थि अवशेषों को लद्दाख लाया जाए। इस निवेदन को जवाहर लाल नेहरू ने स्वीकार और महाबोधि सभा की देखरेख में लेह में ले जाया गया। यहां ढ़ाई महीने तक लोगों ने अस्थि अवशेषों के दर्शन किए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से गतिविधियां बढ़ गईं तो उन्होंने इस पर चिंता जाहिर की। पंडित जवाहर लाल नेहरू से इस बात को साझा किया। तत्कालीन जम्मू कश्मीर के राजा डॉ हरिसिंह के निर्णय के खिलाफ कुशोक ने नाराजगी जताई थी। हरिसिंह ने जम्मू कश्मीर को अलग देश बनाने की मांग रखी थी। जम्मू कश्मीर को जब भारत का अंग बनाया गया तब कुशोक बकुला ने यह आशंका जताई थी कि पाकिस्तान के कबीले और सेना जम्मू कश्मीर को अस्थिर करने की कोशिश करेंगे। उन्होंने कारगिल को बेहद संवेदनशील इलाका कहा था और लद्दाख को मुख्य धारा से जोड़ने की बात कही थी। कुशोक बकुला लद्दाख की आधारभूत संरचना(fundamental development)बारे में कहते थे। जब वे लद्दाख से विधायक बने तो केवल विधायक ही नहीं बने बल्कि उन्होंने लद्दाख को वो सबकुछ देने की कोशिश की जो एक पिता करता है। शेख अब्दुल्ला की सरकार में उन्हीं की पार्टी से विधायक होते हुए उन्होंने लद्दाख को दी जा रही धनराशि के बारे में प्रश्न उठाया। जम्मू कश्मीर की विधानसभा में उन्होंने लद्दाख को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए आधारभूत संरचना को मजबूत करने, आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू करने, विश्वविद्यालय और कॉलेज खोलने की बात कही। इसके साथ-साथ उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को कभी बाधक नहीं बनने दिया।
लद्दाख में बोली जाने वाली भोटी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए संघर्षरत रहे। जम्मू कश्मीर सरकार में विधायक रहते हुए उन्होंने सरकारी कामकाज की भाषा अंग्रेजी और उर्दू का विरोध किया। उनका कहना था कि अंग्रेजी और उर्दू दोनों कश्मीर की भाषा नहीं हैं इसकी जगह पर डोगरी,कश्मीरी या भोटी को शामिल किया जाना चाहिए। कुशोक बकुला कहते थे कि भोटी भाषा लद्दाख से अरुणाचल तक बोली जाती है और इस भाषा को बोलने वालों की संख्या 5 लाख है। अरुणाचल सरकार ने बाद में भोटी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए एक प्रस्ताव भी पारित किया था। ऐसा नहीं था कि उन्होंने और प्रयास नहीं किए। जब वे सांसद बने तो उन्होंने संसद में इस मुद्दे के साथ-साथ लद्दाख के विकास के मुद्दे को भी उठाया था। संसद के सदन में कुशोक बकुला ने उन रुपयों का जिक्र भी किया जो लद्दाख के विकास के लिए भेजे जाते थे। उनका कहना था कि लद्दाख के लिए जो धनराशि जारी की जाती है वो धनराशि लद्दाख तक पहुंचती नहीं है।
तिब्बत के जनसामान्य के बीच दलाई लामा का जितना महत्व है ठीक उसी तरह लद्दाख वासियों के लिए कुशोक बकुला रिम्पोछे का महत्व था। कुशोक बकुला के जीवन में तिब्बत का विशेष स्थान था। तिब्बत में उन्होंने शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की और जीवन जीने की कला भी उन्होंने तिब्बत से ही सीखी थी। कुशोक बकुला, चौदहवें दलाई लामा के बारे में चिंतित रहते थे। सन 1956 में भारत सरकार ने भगवान गौतम बुद्ध की 2500वीं जयंती मनाने का निर्णय लिया। इस अवसर पर भारत सरकार ने एक प्रतिनिधिमंडल का गठन किया। इस प्रतिनिधिमंडल का काम था तिब्बत जाकर दलाई लामा और पंचेन लामा का समारोह के लिए आमंत्रित करना। इस प्रतिनिधिमंडल का अध्यक्ष कुशोक बकुला रिम्पोछे को बनाया गया। कुशोक हमेशा से ही तिब्बत की सलामती के बारे में सोचते थे। कुशोक बकुला तिब्बत को एक राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। उनका कहना था कि यदि तिब्बत एक राष्ट्र के रूप में उभरता है तो यह चीन और भारत के बीच बफर जोन की तरह काम करेगा। वे हमेशा चीन की तरफ से आने वाले संकट की ओर इशारा करते थे। शायद उन्हें पहले ही ज्ञात हो गया था कि चीन ,भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ कर कायराना हरकत करेगा। सन् 1959 में तिब्बत में हालात बेहद नाजुक हो गए थे। चीन सरकार जबरदस्ती तिब्बत वासियों को नास्तिकता की ओर धकेल रही थी। इसी समय चौदहवें दलाई लामा को भारत लाया गया।
दलाई लामा और उनके साथ आए अनुयायियों को बसाने की जिम्मेदारी कुशोक बकुला ने अपने हाथ ले ली थी। सरकार की तरफ से तिब्बतियों को बसाने के लिए 1200 एकड़ जमीन दी गई। कुशोक बकुला रिम्पोछे ने तिब्बतियों को जल्द से जल्द बसाने का काम करने के लिए उन्होंने भारत सरकार को पत्र लिखा। कुशोक बकुला, दलाई लामा के साथ कई बौद्ध समारोह में हिस्सा लिया। दलाई लामा और कुशोक बकुला साथ में मंगोलिया भी गए थे। दलाई लामा ने वहां पर ईसाई मिशनरी द्वारा किए जा रहे कार्य की सराहना की लेकिन कुशोक बकुला इस व्यक्तव्य के साइड इफेक्ट को समझ गए थे। उन्हें पता था कि दलाई लामा की बात का ईसाई मिशनरी फायदा उठाएंगे। ऐसा इसलिए था क्योंकि साम्यवादी विचारों को मंगोलिया पर थोपा जा रहा था। चीन, मंगोलिया को ईनर मंगोलिया कहकर चीन का हिस्सा का बताता था।
जब मंगोलिया के वे राजदूत बने तो उन्होंने अपने आपको दूसरा भिक्खू कहकर संबोधित किया। भारत से पाकिस्तान और चीन के रिश्ते हमेशा ठीक नहीं रहे। सन् 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण करके लद्दाख का कुछ हिस्सा छीन लिया। इस हिस्सा को चीन, अक्साई चीन कहता है। कुशोक बकुला ने हमेशा से चीन तरफ से आने वाले संकट की ओर इशारा किया था। वहीं वे आतंरिक शांति पर जोर देते थे। कुशोक बकुला का कहना था कि शांत रहकर बड़े से बड़ा काम किया जा सकता है। शेख अब्दुल्ला की सरकार में विधायक रहते हुए उन्होंने जम्मू कश्मीर विधानसभा में लद्दाख के संदर्भ में जोरदार भाषण दिया। कुशोक बकुला का भाषण भोटी भाषा में था। इस भाषण का सदन के कई सदस्यों ने भाषण की भाषा को लेकर सवाल उठाया। कुशोक बकुला ने इस भाषण में लद्दाख के विकास को लेकर शेख अब्दुल्ला सरकार को जो लताड़ लगाई उससे तो स्वयं शेख अब्दुल्ला को बगले झांकने पर मजबूर होना पड़ा। शेख अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर में एक कानून बनाया जिसमें कोई भी 22 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं रख सकता था। इस कानून का कुशोक बकुला ने विरोध किया। इस कानून से मोनेस्ट्री का नुकसान होता।
भगवान गौतम बुद्ध की 2545वीं जयंती पर लद्दाख में कार्यक्रम का आयोजन किया गया। पूरे देश से लोग कुशोक बकुला से मिलने और आशीर्वाद लेने आए। अपनी आखिरी मंगोलिया यात्रा के दौरान उन्हें निमोनिया हो गया। मंगोलिया में ट्रीटमेंट और अस्पताल की ठीक व्यवस्था ना होने के कारण उन्हें एयर एंबुलेंस से चीन की राजधानी बीजिंग ले जाया गया। बीजिंग में कुशोक बकुला की तबीयत सुधरने के जगह और बिगड़ने लगी। कुशोक बकुला को बीजिंग से नई दिल्ली लाया गया और एम्स अस्पताल में भर्ती कराया गया। समय को जो मंजूर होता है वही होता है। दिल्ली आने के बाद भी कुशोक बकुला की तबीयत सुधरी नहीं और चीवरधारी यह प्रखर व्यक्तिव्य इस दुनिया को छोड़कर चले गया।
📃BY_vinaykushwaha
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