यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 31 मई 2019

सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र



लोकसभा चुनाव आखिरकार खत्म हुआ। सात चरणों में लोकसभा चुनाव का 23 मई को समापन हो गया। इस बार कई लोगों के लिए आंकड़े चौंकाने वाले रहे तो कई लोगों को सुकून देने वाले। इस बार एग्जिट पोल की भविष्यवाणी सच साबित हुई, यदि कुछ एग्जिट पोल को छोड़ दिया जाए तो। लगभग इस बार सभी एग्जिट पोल ने एनडीए को 350 के पार पहुंचाया था। एग्जिट पोल की डगर पर चलते हुए लोकसभा के नतीजे भी सच साबित हुए। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह समेत पार्टी के तमाम नेता कहते थे कि पिछले बार मोदी लहर थी लेकिन इस बार मोदी की सुनामी है। अमित शाह स्वयं कहते थे कि बीजेपी 300 से अधिक सीटें लेकर आएगी और एनडीए 350 सीटें जीतेगी। बीजेपी ने 2014 को दोहराते हुए 2019 में एक बड़े आंकड़े तक पहुंच बनाई। इस बार के आम चुनाव के नतीजों में बीजेपी अपनी दम पर 303 सीटें लेकर आई है तो वहीं एनडीए का आंकड़ा 350 के पार पहुंच गया है।

2019 के आम चुनाव में मोदी इतनी सीटें लाने में कैसे सफल रहे? क्या मोदी के खिलाफ कोई एंटी इंकम्बेंसी नहीं थी? लोगों में मोदी के खिलाफ गुस्सा नहीं था? क्या मोदी से बड़ा नेता आज भारत में कोई नहीं है? विपक्ष इतना कमजोर है कि मोदी का मुकाबला कर पाने में सक्षम नहीं है? इस पूरे परिदृश्य में जो चीज उभरकर सामने आती है वो यह है कि इस बार पॉलिटिकल पंडितों की सारी भविष्यवाणियां फेल हो गईं है। मैं इस लेख में बीजेपी की जीत पर प्रकाश डालूंगा। तथ्यों को सामने लाने की कोशिश करूंगा।

सबसे पहले मैं बात करूंगा नरेंद्र मोदी की छवि की। मोदी की छवि के कारण कहीं ना कहीं बीजेपी को फायदा मिला है। 2014 के बाद मोदी और बड़ी छवि बनकर उभरे हैं। आज के समय में कहा जाए तो मोदी से बड़ा नेता देश में कोई दूसरा नहीं है। केंद्र में सरकार बनाने के बाद नरेंद्र मोदी ने कई ऐसे काम किए जिसने मोदी की छवि बदलने का काम किया। मोदी के इन कामों में सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक, अभिनंदन की रिहाई, मसूद अजहर को ग्लोबल आंतकी घोषित करवाना, स्वच्छ भारत अभियान, 21 जून को योग दिवस घोषित करवाना जैसे मुद्दे शामिल हैं। इन कामों ने मोदी की छवि को बड़े से और बड़ा कर दिया। नरेंद्र मोदी की बोलने की कला और भाषण के दौरान लोगों से जुड़ने की कला, मोदी को लोगों के नजदीक लेकर गई। मोदी देश के जिस भी हिस्से में जाते हैं वहां की भाषा के शब्दों को अपने भाषण में शामिल करते हैं। पीएम नरेंद्र मोदी ने 5 साल के दौरान हर महीने के आखिरी रविवार को मन की बात करते हुए लोगों से उन्होंने जुड़ाव बनाए रखा। इसके अलावा शिक्षक दिवस के दिन छात्रों से बात करते थे।

नरेंद्र मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 146 रैलियां की। पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक पीएम ने रैलियां की। मेरठ से अपनी चुनावी सभा की शुरूआत करके एमपी के खरगोन में अपनी चुनावी अभियान को विराम दिया। कांग्रेस का 'चौकीदार चोर है' वाले बयान को लेकर पीएम ने अपनी हर रैली में कांग्रेस पर चौकीदार नाम का बम फोड़ा। ट्विटर पर अपने नाम के आगे चौकीदार लगाकर चौकीदार वर्ग का वोट समेट लिया। कांग्रेस के साथ-साथ महागठबंधन और टीएमसी को इस चुनाव में मोदी ने आड़े हाथों लिया। जहां महागठबंधन को महामिलावट कहा तो वहीं ममता बनर्जी को स्पीड ब्रेकर कहा। इन सब में सबसे बड़ी बात यह रही की इस बार बीजेपी कांग्रेस से भी ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ रही थी। बीजेपी ने 2019 का आम चुनाव 435 सीटों पर लड़ा। बीजेपी ने भले ही 435 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन प्रत्याशी केवल एक ही था वो है 'मोदी'। बीजेपी ने पिछला आम चुनाव मोदी लहर के नाम पर लड़ा था लेकिन यह चुनाव बीजेपी ने मोदी के नाम पर लड़ा। बीजेपी नेता कहते भी थे कि पिछले चुनाव में मोदी लहर थी तो इस बार मोदी की सुनामी है।

विपक्ष हमेशा कहता था कि पीएम मोदी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं करते, इंटरव्यू नहीं देते, पीएम हमेशा वन-वे कम्यूनिकेशन करते हैं। पीएम नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में इंटरव्यू के साथ-साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टीवी से लेकर प्रिंट तक सभी को इंटरव्यू दिया। आखिरी चरण के चुनाव प्रचार के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की। इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने पॉलिटिकल इंटरव्यू के साथ-साथ नॉन-पॉलिटिकल इंटरव्यू भी दिया। इसके अलावा मोदी ने कई रोड शो भी किए जिसमें काशी में किया रोड शो भव्य था।

बीजेपी की इस शानदार जीत के पीछे एक बहुत बड़ा कारण है मोदी-शाह की जोड़ी। पिछले आम चुनाव की तरह इस चुनाव में भी मोदी-शाह की जोड़ी ने कमाल कर दिखाया। पॉलिटिकल पंडित कहते थे कि बीजेपी को सरकार बनाने के लिए दूसरे दलों की जरुरत पड़ेगी। दोनों की जोड़ी ने इस बात को नकार दिया। अमित शाह को बीजेपी का चाणक्य कहा जाता है। अमित शाह ने शिवसेना को मनाने का काम किया, जेडीयू को फिर से एनडीए में लाने का श्रेय भी अमित शाह को जाता है। अमित शाह ने नरेंद्र मोदी से 17 रैलियां ज्यादा करके लोगों तक पहुंच बनाई। बूथ मैनेजमेंट और लोगों को बीजेपी से जोड़ने का काम अमित शाह ने किया। नरेंद्र मोदी की बिजनेस मैन, फिल्मी सितारों के साथ बैठक आदि भी अमित शाह के दिमाग की उपज है। बीजेपी ने राजस्थान, बिहार, उत्तरप्रदेश, झारखंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन किया। तमिलनाडु को यदि छोड़ दिया तो बाकी राज्यों में बीजेपी ने अच्छा प्रदर्शन किया। अमित शाह की रणनीति के काऱण आज बंगाल में बीजेपी 18 सीटें लाने में सफल रही है। इस चुनाव में बीजेपी का फोकस यूपी और बिहार ना होकर पश्चिम बंगाल और ओडिशा था। इन दोनों राज्यों में बीजेपी ने अच्छा प्रदर्शन किया। बीजेपी अध्यक्ष होने के नाते अमित शाह ने बीजेपी को सशक्त बनाया बल्कि एनडीए को भी और ज्यादा मजबूत किया। बीजेपी की इस धुंआधार जीत के पीछे प्रचार-प्रसार का अहम योगदान रहा। इसमें कोई शक नहीं है कि बीजेपी ने इस चुनाव में प्रचार में सबसे ज्यादा पैसे खर्च किए हैं। सोशल मीडिया से लेकर ग्राउंड जीरो तक बीजेपी ने खूब पैसे बहाए। इस चुनाव में बीजेपी का चुनाव प्रचार विवाद का विषय रहा। नमो टीवी को लेकर विपक्ष बहुत आक्रामक रहा। व्हाट्सएप ग्रुप से लेकर फेसबुक और व्यक्तिगत रूप से फोन करके लोगों को बीजेपी के पक्ष में लाने का प्रयास बीजेपी ने किया। बीजेपी के साथ अपार जनसमर्थन जुड़ने के पीछे एक कारण और भी है।

सरकार की योजनाओं को घर-घर तक पहुंचाना और उनका प्रचार-प्रसार करना। उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय का निर्माण करवाना। जिन परिवारों के पास ये सारी सुविधाएं नहीं थी यदि उऩको यह सब मिलता है तो व्यक्ति-व्यक्ति का लाभ पहुंचाने वालों को ही जाएगा।
कमजोर विपक्ष का होना भी बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित हुआ। 2014 के अपेक्षा बीजेपी 2019 में और बड़ी पार्टी बनकर उभरी। 2014 में बीजेपी को अपने दम पर जहां 282 सीट मिली थीं तो वहीं 2019 में बढ़कर 303 हो गईं। विपक्ष और कमजोर हो गया। ऐसा कहना गलत वहीं होगा कि विपक्ष ने कोई प्रयास ही नहीं किया। मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को 2014 के आम चुनाव में 44 सीटें मिली थीं तो 2019 में यह मामूली बढ़त के साथ 52 हो गईं। इन सबमें सबसे बड़ी बात यह है कि देश के सबसे बड़े सियासी सूबे में कांग्रेस सिमटकर एक पर आ गई।  17 राज्यों में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई। बिहार जैसे राज्य में एनडीए ने 40 में से 39 सीटें जीतने में कामयाब रही। पश्चिम बंगाल में बीजेपी दो से 18 सीटों वाली बनी तो वहीं ओडिशा में बीजेपी एक से आठ पर पहुंच गई।  कई राज्यों में बीजेपी क्लीन स्वीप करने में कामयाब रही जिनमें राजस्थान, गुजरात, हिमाचल, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़ जैसे राज्य शामिल हैं। 2019 का आम चुनाव कई दिग्गजों की हार वाला चुनाव रहा जिसमें दिग्विजय सिंह, शरद यादव,  राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुशील कुमार शिंदे, नबाम टुकी जैसे बड़े-बड़े नाम धराशायी हो गए। 

विपक्ष ने मेहनत की या नहीं की इसका कोई मतलब नहीं क्योंकि बीजेपी ने बाजी मार ली है। नरेंद्र मोदी में एक बात बहुत खास है कि वे विपक्ष के मुद्दे को कैच कर लेते हैं।  2017 के गुजरात चुनाव में मणिशंकर अय्यर ने पीएम मोदी को नीच कहा था।  इस बयान को पीएम मोदी ने इतना प्रचार किया कि कांग्रेस को इसका भुगतान भुगतना पड़ा। 2019 के आम चुनाव में राहुल गांधी ने चौकीदार चोर है नारा लगवाया तो नरेंद्र मोदी ने ट्विटर हैंडल पर अपना बदल कर चौकीदार नरेंद्र मोदी कर दिया। राहुल गांधी के द्वारा उठाए गए भष्ट्राचार के मुद्दे को पलटकर बोफोर्स तक ले गए।  सैम पित्रोदा के सिख दंगों पर दिए हुआ तो हुआ वाले बयान पर पीएम ने आधी जंग ही जीत ली।

कहते हैं कि चुनाव में जातीय समीकरण मायने रखते हैं। पार्टियां अपने उम्मीदवारों को जातीय आधार पर उतारती है।  इस चुनावी में सारे जातीय समीकरण लोधी-कुर्मी, एम-वाय, सवर्ण-दलित सभी समीकरण फेल हो गए। इस बार राष्ट्रवाद का मुद्दा हावी रहा। राष्ट्रवाद के साथ-साथ आतंकवाद का मुद्दा हावी रहा। सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक ने इसे और हवा दी। 

जिस तरह सुनामी में सब कुछ तबाह हो जाता है ठीक उसी तरह मोदी नाम की सुनामी में 2019 में विपक्ष बह गया। 
BY_vinaykushwaha

सोमवार, 20 मई 2019

आम और ये मैंगो पीपुल!


आज जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं तो 2019 का आम चुनाव खत्म हो चुका है। आम चुनाव खत्म होने के साथ ही देश भर में चुनाव प्रचार का शोर थम चुका है। अब सबकी नजर 23 मई को आने चुनाव के नतीजे पर हैं। यह पोस्ट नॉन पॉलिटिकल है जिस तरह प्रधानमंत्री का इंटरव्यू नॉन पॉलिटिकल था। अभिनेता अक्षय कुमार के सवाल का जवाब देते पीएम बड़े ही मासूम नजर आ रहे थे। आम की कहानी तो उन्होंने इस तरह बताई की मुझे अपने बचपन के दिन ध्यान आ गए क्योंकि हम भी लग्जरी में पले-बढ़े नहीं हैं। पत्रकार रवीश कुमार को तो बाकायदा प्राइम टाइम ही आम करना पड़ा। आम सफेदा हो या लंगड़ा, बादाम हो या दशहरी यही बताना पड़ा। गर्मी के मौसम में आम और आम से बने जूस आदि का आनंद हर व्यक्ति उठाता है। मैंने बचपन से लेकर आजतक बादाम, केसरी, तोतापरी, नीलम, लंगड़ा, दशहरी, चौसा, मोती, कल्मी, गोविंदगढ़ का आम खाया है। बचपन में हमने भी आम तोड़कर खाया है। हम भी प्रधानमंत्री बने तो कोई हमसे पूछे कि क्या आप भी आम खाते हैं? मेरा जवाब तैयार होगा हां, हमारी फैमिली में ऐसी कोई लक्जरी तो नहीं कि हम आम खरीद कर खा पाएं।

मैं नहीं जानता कितने लोगों ने अपनी जिंदगी गांव में बिताई है या गांव में रहकर गांव के जीवन को करीब से देखा है। मेरे पिताजी गांव से निकलकर शहर में नौकरी करने चले गए। शहर का जीवन मैंने जीया है लेकिन गांव को मैंने करीब से देखा है। गर्मी में स्कूल के छुट्टी के दरम्यान हम (हम मतलब मम्मी, भइया और मैं) गांव का रुख करते थे। सीधी-सीधी बात कहूं तो गांव का जीवन चले जाते थे। चूल्हे पर पकी चाय का सौंधापन क्या शानदार लगता था। मैंने चाय बेची नहीं है। हंडी में पकी दाल और हाथों से पोई रोटी का स्वाद जो गांव के खाने में था आज मैं याद करता हूं। उस खाने को भुलाया नहीं जा सकता है। आकाश तले रात गुजारना और दिन में बिजली आने का इंतजार करना दोनों का एक सुखद अनुभव था। गर्मी के दिनों में खाट पर सोना और कुत्तों के भौंकने की तेज आवाज आज भी याद आती है। खेत के किनारे खाट डालकर सोने का अनुभव तो और भी शानदार था। रात में फसल को छूकर आने वाली हवा गर्मी की उजाले वाली रात को और भी ठंडा कर देती थी।

मेरे गांव के घर में एक बारी थी। जो लोग बारी के बारे में कुछ नहीं जानते तो उनको बताता चलूं कि बारी एक ऐसी जगह होती है जिसे हम छोटा-सा बगीचा कह सकते हैं। गांव वाली बारी में एक छोटा-सा घर था जिसमें दादा-दादी रहते थे। इसी घर से दो कदम की दूरी पर एक बड़ा-सा कुंआ था। गर्मियों में इसी कुंए से पानी निकालकर हम ठंडा-ठंडा पानी पिया करते थे। गांव की बारी में कटहल (jack fruit), करौंदा, नींबू, सीताफल (custard apple) और आम के पेड़ थे। हम जब भी गांव जाते थे तो आम के पेड़ पर चढ़कर आम खाते थे क्योंकि हमारे पास कोई लक्जरी तो थी नहीं। दादी अक्सर खटिया पर अमावट बनाती थी। अमावट को शायद ही आजकल के लोग जानते हों। अमावट पके हुए आम का गूदा निकालकर उसे खटिया में चादर बिछाकर एक परतदार के रूप में आकार दिया जाता है। मैं बघेली हूं और हमारे यहां आम और आम से बनीं चीजों का बहुत इस्तेमाल किया जाता है। आम चाहे कच्चा हो या पका दोनों का इस्तेमाल बराबर होता है।

मैं जब छोटा था तो मई-जून के महीने में तूफान बारिश होने पर कैरियां गिर जाती थीं। मैं और मेरे दोस्त कैरियां अपनी टी-शर्ट में भरकर घर ले जाते थे। कई बार तो पत्थर मारकर,बांस की लग्गी बनाकर कैरी तोड़ी हैं क्योंकि हमारे पास कोई लक्जरी तो थी नहीं। कैरी बड़े काम का फल है। बघेली लोग कैरी की सब्जी, कैरी की कढ़ी, कैरी की चटनी, कैरी का पना, कैरी से आचार, कैरी को सुखाकर अमचूर बनाते हैं। कैरी से बने कई सारे पाकवान के बारे में लोग जानते हैं लेकिन डिश जो बघेली बड़े चाव से खाते हैं वो है 'बगजा'। बगजा, कैरी से बनता है। कैरियों को उबाला जाता है। कैरी का गूदा निकाला जाता है। इस गूदे में गुड़ मिलाया जाता है इसके साथ नमक,भुना जीरा मिलाया जाता है। इसके बाद बेसन का घोल तैयार करके सेंव बनाया जाता है। गूदे को सरसों के तेल में खड़ी लाल मिर्च, जीरा, खड़े मसाले के साथ छौंक लगाया जाता है। इस छौंक में सेंव को मिलाया जाता है, इसे कहते हैं 'बगजा'। बघेली इस डिश को बड़े चाव से खाते हैं और मैं भी क्योंकि हमारे पास कोई लक्जरी तो थी नहीं।

जैसे-जैसे बड़े होते गए तो आम खाने का तरीका बदलता गया। पहले तो हमें केवल रीवा के गोविंदगढ़ का आम और दशहरी पता था। जैसे-जैसे बड़े होते गए वैसे-वैसे आम के नए-नए नाम भी पता चलते गए। मैं मध्यप्रदेश से हूं। एमपी से यूपी तक आते-आते आम का राजा भी बदल गया। एमपी में जहां बादाम आम का राजा था तो वहीं यूपी आने के बाद आम का राजा सफेदा हो गया। आम रस तो बचपन में भी पीते थे। आमरस के साथ दाल की रोटी खाने का आनंद तो सच्चा बघेली ही जान सकता है। बचपन में आम का रस निकालकर हम उसमें काजू,किशमिश,बादाम, दूध और थोड़ी शक्कर मिलाकर फ्रिज में जमने के लिए रख देते थे। यही हमारे लिए आइसक्रीम थी। अब तो केवल दुकानों में ही मैंगो फ्लेवर वाली आइसक्रीम खाना होता है। आम रस के नाम पर बाजार में दस-पांच रुपये में मिल रहे मैंगो जूस को पीकर अपने आप को तृप्त करते हैं।

आम को फलों का राजा कहा जाता है। आम सच में फलों का राजा होने लायक है भी क्योंकि आम खाने के लिए किसी प्रकार की लक्जरी की जरूरत नहीं है। एक आम इंसान से लेकर अमीर तक आम को खाता है। मैंने आज तक आम खाने के लिए किसी व्यक्ति को कहते हुए नहीं सुना कि हमारे पास लक्जरी तो थी नहीं, सिवाय एक के। आम के लिए अब तो एक मौसम विशेष तक रुकने की जरुरत भी नहीं है क्योंकि अब आम बारहमासी हो गया है। जब मन करे आम खरीदो और खाओ। आम की टक्कर आज कीवी, ड्रेगन फ्रूट, आवोकाडो से हो गई है। मेरे लिए तो आम ही 'द बेस्ट' है जिसके लिए लक्जरी की जरुरत नहीं पड़ती है। हां मैंने आज तक मैंगो लस्सी का स्वाद नहीं चखा है। मैंगो लस्सी का स्वाद तो मैं कभी चख लूंगा लेकिन इसके लिए मैं लक्जरी को दोष नहीं दूंगा। मैंगो लस्सी के एवज में मैंने मैंगो फ्लेवर वाली टॉफी जरूर खाई है। पता नहीं और क्या बाकी है और क्या नहीं लेकिन मेरे हिसाब भारत का कोई भी वर्ग हो उसे आम खाने के लिए लक्जरी की जरुरत नहीं है।  आम की तरह हम भी तो मैंगो पीपुल(mango people) हैं।

मंगलवार, 14 मई 2019

लद्दाख के निर्माता - कुशोक बकुला रिम्पोछे



जम्मू कश्मीर के लद्दाख को अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता है। हिमालय की ऊंची-ऊंची पर्वतश्रृंखला, बौद्ध मठ और दूर-दूर तक फैली शांति सभी को लद्दाख आकर्षित करती है। लद्दाख की चीन की सीमा से करीबी सुरक्षा की दृष्टि से डर पैदा करता है। लद्दाख में इस डर का सबसे पहले जिक्र कुशोक बकुला रिम्पोछे ने किया था। कुशोक बकुला रिम्पोछे को आधुनिक लद्दाख का निर्माता कहा जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने लद्दाख में एयरपोर्ट का उद्घाटन किया तो उन्होंने कुशोक बकुला रिम्पोछे को आधुनिक लद्दाख का निर्माता कहा था। कुशोक बकुला रिम्पोछे का जन्म 19 मई 1917 में लद्दाख में हुआ था। कुशोक बकुला का असली नाम लोबजंग थुबथन छोगनोर था। असलियत में कुशोक बकुला को भगवान बुद्ध के सोलह अर्हतों में से एक माना जाता है। बकुला भगवान बुद्ध के समकालीन थे और उन्हें बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए स्वयं भगवान बुद्ध ने कहा था। बकुला के उन्नीसवें अवतार को कुशोक बकुला रिम्पोछे के नाम से जाना जाता है।

कुशोक बकुला की शिक्षा-दीक्षा तिब्बत में हुई थी। तिब्बत में कुशोक ने चौदह वर्षों तक बौद्ध धर्म का अध्ययन किया और शिक्षा पूरी की। लद्दाख के साथ-साथ उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार विदेशों में भी किया। लद्दाख के गांव-गांव में जाकर उन्होंने बुद्ध और उनकी शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने का काम किया। भारत के विभिन्न हिस्सों में जाकर उन्होंने बुद्ध के बचनों को लोगों तक पहुंचाया। मंगोलिया जाकर बकुला ने बौद्ध धर्म को फिर से जागृत करने का काम किया। मंगोलिया को ईसाई धर्म के मिशनरियों से बचाकर उन्होंने बौद्ध धर्म की पताका मंगोलिया में लहराने दी। 1996 में ब्रिटेन में मजहबों और पर्यावरण संरक्षण सम्मेलन में भारत से कुशोक बकुला रिम्पोछे और स्वामी चिदानंद गए थे। कुशोक ने इस सम्मेलन में ईसाई मिशनरियों के बारे में काले सच को उजागर किया कि कैसे ईसाई मिशनरी लोगों से जबरन धर्म परिवर्तन करा रहे हैं और ईसाई धर्म कबूल करवाने पर मजबूर कर रहे हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से निवेदन किया की भगवान बुद्ध के दो शिष्यों सारिपुत्त और महामोदगलायन के अस्थि अवशेषों को लद्दाख लाया जाए। इस निवेदन को जवाहर लाल नेहरू ने स्वीकार और महाबोधि सभा की देखरेख में लेह में ले जाया गया। यहां ढ़ाई महीने तक लोगों ने अस्थि अवशेषों के दर्शन किए।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से गतिविधियां बढ़ गईं तो उन्होंने इस पर चिंता जाहिर की। पंडित जवाहर लाल नेहरू से इस बात को साझा किया। तत्कालीन जम्मू कश्मीर के राजा डॉ हरिसिंह के निर्णय के खिलाफ कुशोक ने नाराजगी जताई थी। हरिसिंह ने जम्मू कश्मीर को अलग देश बनाने की मांग रखी थी। जम्मू कश्मीर को जब भारत का अंग बनाया गया तब कुशोक बकुला ने यह आशंका जताई थी कि पाकिस्तान के कबीले और सेना जम्मू कश्मीर को अस्थिर करने की कोशिश करेंगे। उन्होंने कारगिल को बेहद संवेदनशील इलाका कहा था और लद्दाख को मुख्य धारा से जोड़ने की बात कही थी। कुशोक बकुला लद्दाख की आधारभूत संरचना(fundamental development)बारे में कहते थे। जब वे लद्दाख से विधायक बने तो केवल विधायक ही नहीं बने बल्कि उन्होंने लद्दाख को वो सबकुछ देने की कोशिश की जो एक पिता करता है। शेख अब्दुल्ला की सरकार में उन्हीं की पार्टी से विधायक होते हुए उन्होंने लद्दाख को दी जा रही धनराशि के बारे में प्रश्न उठाया। जम्मू कश्मीर की विधानसभा में उन्होंने लद्दाख को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए आधारभूत संरचना को मजबूत करने, आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू करने, विश्वविद्यालय और कॉलेज खोलने की बात कही। इसके साथ-साथ उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार को कभी बाधक नहीं बनने दिया।

लद्दाख में बोली जाने वाली भोटी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में  शामिल करने के लिए संघर्षरत रहे। जम्मू कश्मीर सरकार में विधायक रहते हुए उन्होंने सरकारी कामकाज की भाषा अंग्रेजी और उर्दू का विरोध किया। उनका कहना था कि अंग्रेजी और उर्दू दोनों कश्मीर की भाषा नहीं हैं इसकी जगह पर डोगरी,कश्मीरी या भोटी को शामिल किया जाना चाहिए। कुशोक बकुला कहते थे कि भोटी भाषा लद्दाख से अरुणाचल तक बोली जाती है और इस भाषा को बोलने वालों की संख्या 5 लाख है। अरुणाचल सरकार ने बाद में भोटी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए एक प्रस्ताव भी पारित किया था। ऐसा नहीं था कि उन्होंने और प्रयास नहीं किए। जब वे सांसद बने तो उन्होंने संसद में इस मुद्दे के साथ-साथ लद्दाख के विकास के मुद्दे को भी उठाया था। संसद के सदन में कुशोक बकुला ने उन रुपयों का जिक्र भी किया जो लद्दाख के विकास के लिए भेजे जाते थे। उनका कहना था कि लद्दाख के लिए जो धनराशि जारी की जाती है वो धनराशि लद्दाख तक पहुंचती नहीं है।

तिब्बत के जनसामान्य के बीच दलाई लामा का जितना महत्व है ठीक उसी तरह लद्दाख वासियों के लिए कुशोक बकुला रिम्पोछे का महत्व था। कुशोक बकुला के जीवन में तिब्बत का विशेष स्थान था। तिब्बत में उन्होंने शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की और जीवन जीने की कला भी उन्होंने तिब्बत से ही सीखी थी। कुशोक बकुला, चौदहवें दलाई लामा के बारे में चिंतित रहते थे। सन 1956 में भारत सरकार ने भगवान गौतम बुद्ध की 2500वीं जयंती मनाने का निर्णय लिया। इस अवसर पर भारत सरकार ने एक प्रतिनिधिमंडल का गठन किया। इस प्रतिनिधिमंडल का काम था तिब्बत जाकर दलाई लामा और पंचेन लामा का समारोह के लिए आमंत्रित करना। इस प्रतिनिधिमंडल का अध्यक्ष कुशोक बकुला रिम्पोछे को बनाया गया। कुशोक हमेशा से ही तिब्बत की सलामती के बारे में सोचते थे। कुशोक बकुला तिब्बत को एक राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। उनका कहना था कि यदि तिब्बत एक राष्ट्र के रूप में उभरता है तो यह चीन और भारत के बीच बफर जोन की तरह काम करेगा। वे हमेशा चीन की तरफ से आने वाले संकट की ओर इशारा करते थे। शायद उन्हें पहले ही ज्ञात हो गया था कि चीन ,भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ कर कायराना हरकत करेगा। सन् 1959 में तिब्बत में हालात बेहद नाजुक हो गए थे। चीन सरकार जबरदस्ती तिब्बत वासियों को नास्तिकता की ओर धकेल रही थी। इसी समय चौदहवें दलाई लामा को भारत लाया गया।

दलाई लामा और उनके साथ आए अनुयायियों को बसाने की जिम्मेदारी कुशोक बकुला ने अपने हाथ ले ली थी। सरकार की तरफ से तिब्बतियों को बसाने के लिए 1200 एकड़ जमीन दी गई। कुशोक बकुला रिम्पोछे ने  तिब्बतियों को जल्द से जल्द बसाने का काम करने के लिए उन्होंने भारत सरकार को पत्र लिखा। कुशोक बकुला, दलाई लामा के साथ कई बौद्ध समारोह में हिस्सा लिया। दलाई लामा और कुशोक बकुला साथ में मंगोलिया भी गए थे। दलाई लामा ने वहां पर ईसाई मिशनरी द्वारा किए जा रहे कार्य की सराहना की लेकिन कुशोक बकुला इस व्यक्तव्य के साइड इफेक्ट को समझ गए थे। उन्हें पता था कि दलाई लामा की बात का ईसाई मिशनरी फायदा उठाएंगे। ऐसा इसलिए था क्योंकि साम्यवादी विचारों को मंगोलिया पर थोपा जा रहा था। चीन, मंगोलिया को ईनर मंगोलिया कहकर चीन का हिस्सा का बताता था।

जब मंगोलिया के वे राजदूत बने तो उन्होंने अपने आपको दूसरा भिक्खू कहकर संबोधित किया। भारत से पाकिस्तान और चीन के रिश्ते हमेशा ठीक नहीं रहे। सन् 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण करके लद्दाख का कुछ हिस्सा छीन लिया। इस हिस्सा को चीन, अक्साई चीन कहता है। कुशोक बकुला ने हमेशा से चीन तरफ से आने वाले संकट की ओर इशारा किया था। वहीं वे आतंरिक शांति पर जोर देते थे। कुशोक बकुला का कहना था कि शांत रहकर बड़े से बड़ा काम किया जा सकता है। शेख अब्दुल्ला की सरकार में विधायक रहते हुए उन्होंने जम्मू कश्मीर विधानसभा में लद्दाख के संदर्भ में जोरदार भाषण दिया। कुशोक बकुला का भाषण भोटी भाषा में था। इस भाषण का सदन के कई सदस्यों ने भाषण की भाषा को लेकर सवाल उठाया। कुशोक बकुला ने इस भाषण में लद्दाख के विकास को लेकर शेख अब्दुल्ला सरकार को जो लताड़ लगाई उससे तो स्वयं शेख अब्दुल्ला को बगले झांकने पर मजबूर होना पड़ा। शेख अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर में एक कानून बनाया जिसमें कोई भी 22 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं रख सकता था। इस कानून का कुशोक बकुला ने विरोध किया। इस कानून से मोनेस्ट्री का नुकसान होता।

भगवान गौतम बुद्ध की 2545वीं जयंती पर लद्दाख में कार्यक्रम का आयोजन किया गया। पूरे देश से लोग कुशोक बकुला से मिलने और आशीर्वाद लेने आए। अपनी आखिरी मंगोलिया यात्रा के दौरान उन्हें निमोनिया हो गया। मंगोलिया में ट्रीटमेंट और अस्पताल की ठीक व्यवस्था ना होने के कारण उन्हें एयर एंबुलेंस से चीन की राजधानी बीजिंग ले जाया गया। बीजिंग में कुशोक बकुला की तबीयत सुधरने के जगह और बिगड़ने लगी। कुशोक बकुला को बीजिंग से नई दिल्ली लाया गया और एम्स अस्पताल में भर्ती कराया गया। समय को जो मंजूर होता है वही होता है। दिल्ली आने के बाद भी कुशोक बकुला की तबीयत सुधरी नहीं और चीवरधारी यह प्रखर व्यक्तिव्य इस दुनिया को छोड़कर चले गया।


📃BY_vinaykushwaha