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सोमवार, 29 अप्रैल 2019

चुनाव आयोग की लाठी में आवाज नहीं होती है...




भारत में चुनाव आयोग एक महत्वपूर्ण संस्था है। चुनाव आयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के तहत काम करता है। संविधान के तहत काम करने के कारण न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को चुनाव आयोग की बातों पर गौर करना होता है। चुनाव आयोग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य देश में समय-समय पर चुनाव करवाना और राजनीतिक दलों को चुनाव चिन्ह देने के साथ-साथ उन्हें राष्ट्रीय,क्षेत्रीय और राज्य की राजनीतिक पार्टियों में विभाजित करना है। चुनाव आयोग को लोग कई बार बिना दांत का शेर कह देते हैं क्योंकि चुनाव आयोग दहाड़ तो देता है लेकिन कार्रवाई नहीं करता है। चुनाव के समय चुनाव आयोग का महत्व बढ़ जाता है। ये काफी हद सही है। 2019 आम चुनाव में चुनाव आयोग की कार्रवाई को देखकर तो बिल्कुल नहीं लगता कि चुनाव आयोग बिना दांत का शेर है।

चुनाव आयोग ने 2019 के आम चुनाव में बता दिया कि उसके पास क्या अधिकार हैं और वह क्या कर सकता है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन पर बनी फिल्म पर चुनाव आयोग ने रोक लगी दी। चुनाव आयोग का कहना था कि इससे एक पार्टी विशेष को फायदा होगा। जब फिल्म पर रोक लगाई गई तो फिल्म के निर्माता सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट में निर्माताओं ने यह दलील दी की चुनाव आयोग ने बिना फिल्म देखे फिल्म पर रोक लगा दी। इस पर सु्प्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा कि आपको फिल्म देखना चाहिए। चुनाव आयोग के अधिकारियों ने फिल्म देखी और फिल्म के कुछ डायलॉग पर आपत्ति जता दी। आखिरकार परिणाम क्या हुआ? फिल्म पर बैन बरकरार है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि चुनाव आयोग द्वारा फिल्म पर रोक लगाई है इसमें कोई दखल नहीं दे सकते। यानि फिल्म अब 19 मई के बाद ही रिलीज होगी।

बात केवल फिल्म की नहीं है बल्कि वेब सीरीज और ऑनलाइन टीवी की भी है। चुनाव आयोग ने तमाम वेबसाइट पर उपलब्ध प्रधानमंत्री से संबंधित फिल्म जो वेबसाइट पर हैं उन पर भी बैन लगा दिया है। इसके अलावा नमो टीवी पर आंशिक बैन लगा दिया। इस टीवी  में लाइव प्रोग्राम का प्रसारण किया जा सकता है लेकिन मतदान से 48 घंटे पहले तक किसी भी प्रकार के रिकॉर्डेड प्रोग्राम का प्रसारण नहीं कर सकते। नमो टीवी एक ऑनलाइन टीवी चैनल है जिस पर प्रधानमंत्री के भाषण और बीजेपी से जुड़ी जानकारियां प्रसारित की जाती हैं। इन सब पर बैन लगाकर जता दिया की चुनाव आयोग क्या कर सकता है? इसके अलावा ममता बनर्जी पर बनी फिल्म 'बाघिनी' के ट्रेलर पर चुनाव आयोग ने रोक लगा दी। ममता बनर्जी पर बनी फिल्म का ट्रेलर पांच वेबसाइट पर रिलीज होना था।

हाल ही में आयकर विभाग ने दिल्ली और मध्यप्रदेश के कई ठिकानों पर आयकर छापेमारी की। इसे विपक्षी दल कांग्रेस ने बदले की कार्रवाई कहा। चुनाव आयोग ने इस पर संज्ञान लेते हुए आयकर विभाग से कहा कि किसी भी छापेमारी से पहले चुनाव आयोग को इस बाबत जानकारी दे। इस पर आयकर विभाग ने कहा कि हमें इस बात की जानकारी है कि आदर्श आचार संहिता के दौरान चुनाव आयोग को लूप में लिया जाना है। इस पर चुनाव आयोग ने कहा कि जब आपको जानकारी थी तो आपने इसका पालन क्यों नहीं किया?

चुनाव आयोग इस बार सख्ती बरतने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। सोशल मीडिया पर होने वाले प्रचार पर भी चुनाव आयोग की गिद्ध दृष्टि है। चुनाव आयोग का कहना है कि राजनीतिक पार्टियों द्वारा सोशल मीडिया पर प्रचार के लिए खर्च की गई राशि को भी जोड़ा जाएगा। ऐसा करना चुनाव आयोग ने अनिवार्य कर दिया है। यदि कोई राजनीतिक पार्टी या राजनेता चुनाव आयोग का कहना नहीं मानते तो उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। चुनाव आयोग ने 628 कंटेंट सोशल मीडिया से हटाए। इन कंटेंट में सबसे ज्यादा 574 फेसबुक पेज हैं। गूगल, फेसबुक, व्हाट्एप चुनाव प्रचार के लिए प्राथमिकता की सूची में हैं। चुनाव आयोग ने भी इन सोशल साइट्स को भी निर्देश दिया है कि ऐसी किसी भी प्रकार का कंटेंट अपनी साइट्स में ना रखें जिससे चुनाव प्रचार के साथ-साथ वैमनस्यता फैलाई जा रही हो।

तेलंगाना के 62 उम्मीदवारों ने अपनी संपत्ति का सही ब्यौरा नहीं दिया तो चुनाव आयोग ने उनका नामांकन ही रद्द कर दिया। नामांकन में विसंगतियां पाए जाने के बाद चुनाव आयोग ने कई उम्मीदवारों के नामांकन रद्द कर दिए हैं। नामांकन रद्द करने के पीछे कारण केवल चुनाव आयोग द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज कराना नहीं है बल्कि चुनाव प्रक्रिया को 'स्पष्ट और निष्पक्ष' बनाना है। चुनाव आयोग ने cVIGIL नाम से गूगल प्ले स्टोर पर एक एप उपलब्ध कराई है। इस एप की सहायता से आप जिस निर्वाचन क्षेत्र में रहते हैं उस निर्वाचन क्षेत्र के बारे में शिकायत कर समाधान पा सकते हैं। यदि आपके क्षेत्र में किसी उम्मीदवार ने आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन किया है तो उसकी फोटो खींचकर या वीडियो बनाकर चुनाव आयोग को सूचित कर सकते हैं। यदि आपको किसी भी प्रकार की सहायता या शिकायत करनी है तो आप चुनाव आयोग के नंबर 1950 पर कॉल कर सकते हैं। भारत के आम चुनाव कोई आम चुनाव नहीं होते बल्कि यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का पर्व होता है। चुनाव आयोग इस चुनाव को वोटर फ्रेंडली बनाना चाहता है।

कई बार कहा जाता है कि अक्सर बड़ी मछलियां जाल में नहीं फंसती हैं, हमेशा छोटी मछलियों को ही त्याग करना पड़ता है। चुनाव के दौरान जितनी बदजुबानी होती है शायद ही और कभी होती हो। चुनाव के दौरान बड़े-बड़े नेता कुछ भी बोलकर निकल लेते थे। इस बार चाहे मछली छोटी हो या बड़ी सभी पर शिकंजा कसा है। इस बार चुनाव आयोग ने बीजेपी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के नेताओं की बोलती बंद की है। चुनाव आयोग ने मायावती, मेनका गांधी, आजम खान, नवजोत सिंह सिद्धू, जया प्रदा, सतपाल सिंह
सत्ती, योगी आदित्यनाथ, मिलिंद देवड़ा आदि पर कार्रवाई की। आयोग ने केवल कार्रवाई ही नहीं की बल्कि 48 से 72 घंटे का बैन लगाकर बता दिया की चुनाव आयोग क्या कर सकता है। बैन के दौरान इन नेताओं को रैली करने, प्रेस कॉन्फ्रेंस करने, सोशल मीडिया में प्रचार करने, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से प्रचार करने पर रोक थी। चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के अणुव्रत मंडल को नजरबंद करने का आदेश दे दिया। अणुव्रत को नजरबंद करने के पीछे केवल इतना कारण था कि वह एक बाहुबली नेता है और मतदान के समय अड़चनें पैदा कर सकता है।

भारत में चुनाव आयोग को मामूली सा विभाग समझ लिया जाता है। आज के परिदृश्य में देखें तो चुनाव आयोग और मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को धन्यवाद कहना चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त ने अपनी गरिमा के अनुसार काम किया है। सुनील अरोड़ा ने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन की याद को ताजा कर दिया। शेषन ने चुनाव आयुक्त के पद पर रहते हुए बहुत से सुधार किए और कई बेहतरीन मिसालें पेश की। शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त रहते 17 सूत्रीय मांग भारत सरकार के सामने रखी। शेषन ने साफ-साफ कहा कि देश में तब तक चुनाव नहीं होंगे जब तक 17 सूत्रीय मांग पूरी नहीं कर ली जाती हैं। शेषन ने तो चुनाव आयोग को भारत सरकार का अंग मानने से मना कर दिया था। शेषन कहते थे कि अब मुख्य चुनाव आयुक्त कानून मंत्री के ऑफिस के बाहर मीटिंग के लिए समय की आशा में नहीं बैठेगा।   


📃BY_vinaykushwaha

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

ये चुनावी बदजुबानी....



बोया पेड़ बबूल का आम कैसे फरें? ये कहावत हम बचपन से सुनते हुए आ रहे हैं। भारतीय राजनीति में सबकुछ बहुत जल्दी बदल जाता है। नेता अपने वादों से मुकर जाते हैं और उनकी नीयत पार्टी से बदल जाती है। चुनाव आते ही सारे नेता जुबानी जंग में इस तरह तैयार होकर निकलते हैं जैसे उन्हें किसी किले को फतह करना हो। किला फतह हो ना हो पर एक बात उनके साथ अच्छी हो जाती है कि वे फेमस हो जाते हैं। फेमस हैं तो और फेमस हो जाते हैं। प्रधानमंत्री से लेकर छोटे से उम्मीदवार तक जुबानी जंग इतनी बदजुबानी हो जाती है कि लगता है कि ये नेता एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राहुल गांधी को नामदार  के नाम से बुलाते हैं। जब एक इंटरव्यू में उनसे पूछा जाता है कि वे राहुल गांधी को उनके नाम से क्यों नहीं बुलाते हैं? प्रधानमंत्री की ओर से जवाब मिलता है कि इससे आपको क्या तकलीफ है? सर हमें तकलीफ क्यों होगी? हम पत्रकार की जमात हैं। हमें सवाल पूछने की आदत है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महागठबंधन को महामिलावटी तक कहते हैं। यूपी में बीएसपी, एसपी और आरएलडी का गठबंधन हुआ तो पीएम मोदी ने इसे संक्षिप्त रूप से 'सराब' कहा। सराब को उन्होंने कही ना कही शराब से जो़ड़ना चाहा। इस जुबानी जंग में अकेले प्रधानमंत्री नहीं हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है।

राहुल गांधी तो एक कदम आगे निकलते हुए प्रधानमंत्री को चोर ही कह दिया। राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’  का नारा गढ़ा। राहुल गांधी  अपनी हर रैली में मंच से खड़े होकर बोलते है कि चौकीदार, जनता के बीच से आवाज आती है कि चोर है। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका जवाब ऐसे दिया कि वे मंच से बोलते है कि फिर एक बार, जनता के बीच से आवाज आती है ‘मोदी सरकार’।

राजनीति में दोस्ती और रिश्तेदारी कितने दिन टिकेगी ये कहना मुश्किल होता है। कांग्रेस प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी कुछ दिन पहले तक बीजेपी और शिवसेना के खिलाफ खुलकर बोलती थीं। आज शिवसेना में शामिल होकर राजनीति में ताल ठोक रही हैं। आजम खान और जया प्रदा राजनीति के आकाश में तब नजर आए जब आजम खान ने जया प्रदा के बारे में ऐसे शब्द बोले कि मैं यहां लिख नहीं सकता। मर्यादा कहा रह गई है। ये वही आजम खान हैं जिन्हें जया प्रदा को राजनीति में लाने का श्रेय जाता है।

हिमाचल प्रदेश के बीजेपी अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती भी इतनी महान आत्मा है कि चुनावी मंच से गाली देने में नहीं डरते। इतनी अश्लील भाषा का उपयोग करते हैं कि मैं वो शब्द यहां लिख नहीं सकता। राहुल गांधी को गाली सूचक शब्दों से पुकारना या कहना कितना सही है?

केंद्र सरकार में मंत्री महेश शर्मा तो व्ययंग में विश्वास रखते हैं। प्रियंका गांधी के राजनीति में पदार्पण करने और कांग्रेस की उपाध्यक्ष बनने पर ऐसा कुछ कह दिया कि सुर्खियां बन गईं। महेश शर्मा ने कहा- अभी तक राजनीति में पप्पू था अब पप्पू की पप्पी भी आ गई। यह कहना उचित है? मेरे हिसाब से तो बिल्कुल उचित नहीं है।

उदाहरणों की कमी मेरे पास तो नहीं है। महागठबंधन के फतेहपुर सीकरी से प्रत्याशी गुड्डू पंडित भी किसी से पीछे नहीं हैं। गुड्डू पंडित कहते हैं कि राज बब्बर के .....और उसकी नचनियां को दौड़ा-दौड़ाकर चप्पलों से पीटूंगा, यदि समाज में झूठ फैलाया तो गंगा मां की सौगंध चप्पलों से पीटूंगा।

भोपाल से बीजेपी प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा कहती हैं कि मुंबई हमले में शहीद हेमंत करकरे को मेरा श्राप लगा इसलिए मारे गए। साध्वी प्रज्ञा ने बाद में सफाई दी कि हेमंत करकरे ने मुझे जेल में प्रताड़ित किया इसलिए मैंने ऐसा कहा। बिहार के बक्सर से सांसद और फिर से बीजेपी उम्मीदवार अश्विनी चौबे भी गजब करते हैं। लालू यादव की पत्नी और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी को कहते हैं कि, राबड़ी जी भाबी हैं उन्हें घूंघट में रहना चाहिए। इस पर राबड़ी देवी ने जवाब दिया कि उनकी पार्टी की कितनी महिला नेता घूंघट में रहती हैं, पहले उन्हें घूंघट में रहने के लिए बोलिए। अश्विनी चौबे बयानवीर हैं। उनका एक और बयान हवा में तैर रहा है कि मुझे कलेक्टर का बुखार उतारना आता है। इन बयानों से क्या होगा? राजनीति में थोड़ी प्रसिद्धि जरूर मिल जाएगी लेकिन बाद में आप एक दागदार की तरह दिखने लगेंगे। ना तो आप कामदार रह जाएंगे और ना ही नामदार।

मेरठ से बीजेपी उम्मीदवार राजेंद्र अग्रवाल कहते हैं कि शहीद हेमंत करकरे कैसे ATS चीफ थे जो बिना तैयारी के आतंकियों से लड़ने गए। बाद में सफाई देते हुए कहते हैं कि मेरे ट्विटर हैंडल का दुरुपयोग करके किसी ने ट्वीट किया। एक कहावत है प्यार और जंग में सब कुछ जायज है। आज नेताओं ने राजनीति को लड़ाई का अखाड़ा बना दिया है। इस अखाड़ा में धर्म को हथियार बनाकर लड़ा जाता है। इस चुनाव में भगवान हनुमान को राजनीति में लाकर खड़ा कर दिया। एक तरफ भगवान हनुमान की जाति बताई जाती है वहीं दूसरी ओर जाति के आधार पर वोट मांगा जाता है। बेगूसराय से बीजेपी प्रत्याशी गिरिराज सिंह SP नेता आजम खान से
कहते हैं कि एक बार बेगूसराय का चुनाव खत्म हो जाए फिर हम रामपुर आकर बताएंगे कि हनुमान क्या हैं? भगवान के नाम पर डराया जाता है।

आजम खान के किस्से यहीं खत्म नहीं होते। आजम खान तो मतदाताओं को गद्दार कहने से नहीं चूकते। आजम खान की की भाषा में विपक्षी जो उन पर बयानबाजी करते हैं वे गंदगी खाने के बराबर वाला काम करते हैं। वे कहते हैं कि यदि गंदगी खाना है तो चांदी का वर्क लगाकर मत खाओ, गंदगी खाना है तो सीधे खाओ। आजम खान के सुपुत्र तो और आगे निकलकर कहते है कि, ‘हमें अली भी चाहिए और बजरंगबली भी चाहिए लेकिन अनारकली नहीं चाहिए’। ऐसी कौन सी राजनीति है जो इस तरह की भाषा बोलने पर मजबूर करती है।

आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तरह-तरह की उपमाओं से नवाजा जाता है। कांग्रेस और उसके सहयोगी दल तरह-तरह के शब्दों का उपयोग करते हैं। हिटलर, हत्यारा, और चोर आदि तक की संज्ञा दी गई। बीजेपी ने तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मौन-मोहन तक कहा। एक कांग्रेस नेता ने तो MODI का नया मतलब M = मसूद अजहर, O = ओसामा, D = दाउद, I = आईएसआई बताया। यह मतलब किस हद तक सही है। यह तय करना जनता का काम है। जहां तक बदजुबानी की बात है तो जनता का निर्णय सर्वोपरि होता है। चुनाव नेताओं के बीच होता है लेकिन जीत उसी की होती है जिसे जनता पसंद करती है।

 मैंने इस लेख की शुरुआत में एक कहावत लिखी थी कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कैसे फरें। इस कहावत के लिखने का मतलब था कि आप अपने उम्मीदवार का चयन सावधानी से करें ताकि बाद में आपको पछताना ना पड़े।

BY_vinaykushwaha

सोमवार, 1 अप्रैल 2019

जाति का विनाश कितना जरूरी है?

जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो।समाज के प्रवाह को नयी दिशा में मोड़ दो। यह उद्बोधन जेपी ने अपने आंदोलन के समय दिया था। जात-पात तोड़ दो, यह बात सबको आकर्षित करती है क्योंकि भारत में निम्न जाति के लोगों ने कभी न कभी जातिवाद का दंश झेला ही है। मैंने कुछ समय पहले एक किताब पढ़ी थी जिसका नाम "जाति का विनाश" है। यह किताब "Annihilation of caste" का हिंदी रूपांतरण है। इस किताब को बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने लिखी है। दरअसल यह एक किताब की शक्ल में भाषण का संकलन है। इस किताब में उसी भाषण का जिक्र किया गया है जिसे जात-पात तोड़क मंडल ने उन्हें देने नहीं दिया। जात-पात तोड़क मंडल का कहना था कि आंबेडकर जी का भाषण जाति व्यवस्था के बहिष्कार से ज्यादा हिंदू धर्म का अपमान है। जब कार्यक्रम रद्द हो गया तो आंबेडकर ने अपने भाषण को किताब की रूपरेखा में ढ़ाल  दिया। उन्होंने बताया कि उन्हें क्यों भाषण देने नहीं दिया गया? उनका कहना था कि जब मुझे अपने शब्दों को कहने की आजादी नहीं है तो मैं भाषण देने क्यों जाऊं?

जाति का विनाश किताब में बताया गया है कि कैसे जाति और जाति व्यवस्था हिंदू धर्म और मानने वाले लोगों के लिए अभिशाप है। उच्च जाति के लोग किस तरह निम्न जाति के लोगों पर कहर बरपाते हैं। आंबेडकर ने अपनी किताब में बताया कि कैसे जाति व्यवस्था भारत में आया और अब जड़ों तक समा चुका है। वैदिक सभ्यता के समय इस तरह के साक्ष्यों को पहली बार देखा गया था। उत्तर वैदिक काल में निम्न जाति को वेद आदि पढ़ने की अनुमति नहीं थी। जहां ऋग्वैदिक काल में व्यक्ति अपनी सुविधानुसार अपनी जाति बदल सकता था वहीं उत्तर वैदिक काल में यह व्यवस्था बदल गई। वैदिक काल में चार वर्णों वाली व्यवस्था अस्तित्व में आई थी उसने और विकराल रूप धारण कर लिया। वैदिक काल के बाद धीरे-धीरे जातीयता अन्य मुद्दों पर हावी होने लगी। ब्राह्मणवाद का विस्तार हिन्दू धर्म की नींव का हिलाने वाला था। किताब मैं बताया गया है कि वर्ण व्यवस्था में तिरस्कार केवल शूद्र को ही उठाना पड़ा है। किताब में महार जाति के बारे में बताया गया है कि कैसे उनके साथ गलत व्यवहार किया जाता था? जब महार जाति का कोई व्यक्ति  सड़क से निकलता था तो उसे कमर में झाड़ू बांधने और गले में एक मटका बांधने की सख्त हिदायत दी जाती थी। इस तरह की हिदायत देने का मतलब यह था कि सड़क गंदगी न हो। लेकिन इन सबके पीछे मुख्य कारण अपने वर्ण को सर्वश्रेष्ठ साबित करना था।

आंबेडकर ने अपनी आपबीती बताते हुए लिखा है कि कैसे  उनके साथ बचपन से लेकर नौकरी के समय तक छुआछूत किया जाता था। जहां बचपन में उन्हें स्कूल में अन्य बच्चों के साथ बैठने नहीं दिया जाता था और दिनभर उन्हें प्यासा रखा जाता था। जब उनकी नौकरी वडोदरा में लगी तो वहां नौकर उन्हें फाइल्स फेंक कर देता था और दिनभर प्यासा रखा जाता था। किताब में उन्होंने विभिन्न प्रकार के आंदोलन का जिक्र किया जिसमें सबसे महत्वपूर्ण महाड़ सत्याग्रह था। इसमें उन्होंने गांव के शूद्र जाति के लोगों के साथ जाकर तालाब के पानी को पिया और आचमन किया। किताब में एक मंदिर, एक कुंआ की बात लिखी हुई है। यह बात दर्शाती है कि कैसे निम्न जाति के लोगों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता था।

किताब में केवल जाति व्यवस्था जैसी कुरीति पर जमकर कटाक्ष किया गया है। इस किताब में पूना पैक्ट 1932 के बारे में जिक्र किया गया है। यह समझौता महात्मा गांधी और आंबेडकर के बीच हुआ था। इस समझौते में आंबेडकर ने महात्मा गांधी की बात मानी और "Depressed class" (दमित वर्ग) को चुनाव में दिए जाने वाले आरक्षण को वापस ले लिया। इससे आंबेडकर दुखी हुए क्योंकि वे दलितों को उनका हक दिलाना चाहते थे। इस किताब में कई संदर्भ दिए गए हैं जब आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच तीखी बहस होती थी। महात्मा गांधी  अपने समाचार पत्र हरिजन में जाति व्यवस्था पर लेख लिखते थे। इन्हीं लेखों की आलोचना आंबेडकर पत्र व्यवहार के माध्यम से करते थे। इस पत्र का जवाब महात्मा गांधी भी मूकनायक में प्रकाशित लेख को आधार बनाकर देते थे। आंबेडकर अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों को "Depressed class" कहते थे जबकि महात्मा गांधी हरिजन शब्द का उपयोग किया करते थे। इस किताब से स्पष्ट होता है कि कहीं न कहीं अनुसूचित जाति को अधिकार प्राप्त न होने के पीछे महात्मा गांधी को जिम्मेदार मानते थे।

आंबेडकर ने जहां अपनी किताब में आर्य समाज और स्वामी दयानंद सरस्वती की तारीफ की है। इसके अलावा उन्होंने राजा राममोहन राय की तारीफ की है क्योंकि उन्होंने समाज को कुरीतियों से मुक्त कराने लिए बहुत से काम किए। आंबेडकर ने दूसरी ओर हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों छुआछूत, बाल-विवाह, सती प्रथा, अंतर जातीय विवाह पर प्रतिबंध के मामले पर जमकर लताड़ लगाई। किताब में डॉ आंबेडकर ने तो यहां तक लिख दिया कि हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था की वजह से भारत में अन्य धर्मों में जाति व्यवस्था के बीज फूट पड़े हैं। किताब में एक जगह यह भी लिखा है कि जातिवाद और वर्ण व्यवस्था का आरोप मनु पर नहीं लगा सकते हैं क्योंकि उसने तो जाति की एक व्यवस्था तैयार की थी

अपनी किताब में डॉ आंबेडकर ने विदेशी लोगों को भी नहीं छोड़ा उन्होंने उनकी भी जमकर खिंचाई की। रंगभेद में उनसे आगे कोई नहीं है। वे काले और गोरे में भेद करते हैं। ऐसा कहना था डॉ बाबासाहेब आंबेडकर का।
आपत्ति:- डॉ आंबेडकर ने जाति व्यवस्था जैसी कुरीति को केवल हिन्दू धर्म के साथ जोड़ा जबकि यह आधा सत्य है। अन्य धर्मों में भी जाति और वर्गों की प्रधानता है। ईसाई धर्म कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, एवनजीलक, आर्थोडॉक्स आदि शाखाओं में बंटा हुआ है। इन सभी के अलग-अलग चर्च होते हैं और ये एक-दूसरे के चर्च में नहीं जाते। यही हाल मुस्लिम धर्म का भी है। बौद्ध धर्म भी मुख्यतया दो भागों में विभाजित है हीनयान और महायान। जातिवाद का सारा दोष हिन्दू धर्म पर मढ़ना गलत है। 
एक बार जरूर इस किताब को पढ़ें और निष्कर्ष पर पहुंचें।
BY_vinaykushwaha