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बुधवार, 29 अप्रैल 2020

कोरोना के संकटकाल में खाने का कैसे प्रबंध करें...


रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए ना ऊबरै , मोती, मानस, चून ।। रहीम ने आज से लगभग 500 साल पहले बताया था कि पानी का क्या महत्व है। पानी के बिना जीवन कितना अधूरा है। पानी को सहेजना होगा क्योंकि मानव (Human) से लेकर मोती (Pearl) तक सबकुछ पानी से ही है। पानी ही सबकुछ है लेकिन कोरोना के संकटकाल में लोगों को पता चल गया कि केवल पानी ही सबकुछ नहीं है। जीवन जीने के लिए और जीवित रहने के लिए हमें सूखे खाने को भी इकट्ठा करने की जरूरत है।

इतिहास बताता है कि आक्रमणकारी कई दिनों की यात्रा करके एक स्थान से दूसरे स्थान जाया करते थे। इनकी विशाल सेना में हाथी, घोड़े, शस्त्र-अस्त्र के अलावा ढेर सारा खाना भी होता था। वे ऐसा खाना लेकर चलते थे जो आसानी से खाया जा सके। जब किसी जगह पडाव होता था तो वहां के स्थानीय फसल और शिकार का इस्तेमाल किया जाता था। ये आक्रमणकारी अपने साथ फल, सूखे मेवे जैसे खाने के सामान लेकर चलते थे। इतना ही नहीं ये लोग अपने साथ मसाले भी ले जाया करते थे।

भारतीय पाक कला हजारों साल पुरानी है। इसमें कोई संदेह  नहीं है कि आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों से चावल के प्रमाण मिले हैं जो ये बताता है कि वे केवल पशुपालन पर निर्भर नहीं थे। सिंधु घाटी सभ्यता के समय भारत का व्यापार मिस्त्र (Egypt), मेसोपोटामिया जैसी सभ्यताओं से रहा था। भारतीय व्यापारी इन सभ्यताओं को अनाज और कपास निर्यात करते थे बदले में ये सभ्याताएं मसाले और रत्न, कीमती धातु देते थे। धीरे-धीरे व्यापार का स्वरूप बदलता गया। मौर्य साम्राज्य के समय यूनान (Greece) के साथ व्यापारिक संबंध अच्छे थे।

ग्रीस मौर्य दरबार में अपने राजदूत नियुक्त करते थे। इसके बदले में भारत को सूखे मेवे जैसे खूबानी और इसके अलावा शराब आयात की जाती थी। व्यापारी जब एक जगह से दूसरी जगह जाते थे तो कई दिनों का सफर तय करते थे। इन कई दिनों के सफर में ऐसा खाना ले जाते थे जो हल्का हो जिससे वजन ना बढ़े और जल्दी खराब ना हो। गुजरात और राजस्थान के व्यापारियों में इस तरह के प्रमाण मिलते है कि वे अपने साथ बेसन से बने खाद्य पदार्थ के अलावा अचार भी ले जाया करते थे।

आज भी दोनों राज्यों के खानपान पर बेसन का प्रभाव साफ-साफ दिखाई देता है। गुजरात के व्यापारियों के खाने से लेकर अचार तक में शक्कर का इस्तेमाल किया जाता था। इसके पीछे एक  कारण था कि शरीर में ग्लूकोज की मात्रा में कमी ना हो। शक्कर खाने में होने से व्यापारियों को अलग से मीठे खाद्य पदार्थ लेने की आवश्यकता ही नहीं थी। राजस्थान में तो इसके उलट खाने में लाल मिर्च का इस्तेमाल किया जाता है। राजस्थान के व्यंजनों में लाल मिर्च डालने का सबसे बड़ा कारण शरीर से विषाक्तता निकलना। लाल मिर्च का सेवन करने से पसीना आता था और इससे शरीर से अनावश्यक पदार्थ बाहर निकल जाते थे।

भारत में हर क्षेत्र की अपनी एक विशेषता है। यही विशेषता खाने में साफ-साफ दिखाई देती है। दक्षिण भारत में चावल की अधिक  पैदावार होती है जो वहां के खाने में दिखाई देती है। इडली, डोसा, पुतरेकू, अवियल जैसे खाने तो सामान्य तौर पर खाते ही हैं लेकिन चावल से बने सूखे पदार्थ को लंबे समय तक खाने के लिए रखा जाता है। दक्षिण भारत में जून से सितंबर तक भारत की सबसे ज्यादा बारिश वाला समय होता है तब ये काम आता है।

मैं मध्यप्रदेश का रहने वाला हूं जहां हर मौसम की एक फसल होती है। यहां बारिश का मौसम तेज बरसात वाला और लंबा होता है जिस कारण हरी सब्जियां मिलना मुश्किल होता है। बरसात के मौसम में खाने में बड़ी (बरी) और बिजौरे का होता है। ठंड के समय कद्दू और उड़द की दाल से बनी बरी और तिल के साथ बनने वाले बिजौरे काम आते हैं। एमपी में सोयाबीन की पैदावार अच्छी होने के कारण यहां सोयाबीन की बरी खाने का प्रचलन है। सूखे खाद्य पदार्थ जो ऐसे समय काम आते हैं जब आपको हरी सब्जियां उपलब्ध नहीं होती हैं।

भारत में ठंड का मौसम हरी सब्जियों वाला होता है। इस मौसम में सब्जियां बहुतायत में पैदा होती हैं। मेथी (Fenugreek), पालक (Spinach) जैसी हरे पत्तेदार सब्जियां होती हैं। इन्हें सुखाकर बरसात के समय खाने में इस्तेमाल किया जाता है। पहाड़ी इलाकों में राजमा, चने, चौले, मटर जैसी सब्जियां होती है  जो सालभर खाने में सब्जी के रूप में इस्तेमाल की जाती है। खाना समुचित पोषक तत्व से भरपूर हो इसके लिए भारत में हमेशा से इसका ध्यान रखा जाता है। ठंड के समय तिल, राजगीर, लाई, गुड के लड्डू बनाए जाते हैं जो पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। पूर्वी एमपी और छत्तीसगढ़ में चावल की पैदावार जमकर होती है यही चावल ठंड के समय लड्डू बनाने के काम भी आता है।

जम्मू कश्मीर में आए दिन लॉकडाउन और बंद का सामना करना पड़ता है। लॉकडाउन और बंद के अलावा यहां सर्दियां कटीली और कष्टदायक होती है। इसी वजह से यहां सूखे खाद्य पदार्थ को इकट्ठा करने की विशेषता रही है। यहां राजमा, काबुली चने, सूखे मेवे का इस्तेमाल किया जाता है। ठंड के समय में चाय बनाने के लिए समोवार का इस्तेमाल किया जाता है जिसमें चायपत्ती की जगह गुलदाउदी की पत्ती, केसर, मेवे और नमक का इस्तेमाल किया जाता है। यहां समोवार में बनने वाली चाय मीठी नहीं नमकीन होती है। इसी तरह उत्तराखण्ड और हिमाचल में आलू की पैदावार अच्छी होती है जो यहां के खाने में सालभर दिखाई देता है।

कोविड-19 की वजह से भारत में लॉकडाउन के 36 दिन पूरे हो चुके हैं। करोड़ों लोग को सरकार और समाजसेवी संगठन राशन और सब्जियां उपलब्ध करा रहे हैं। भारत के उन इलाकों जहां सरकार और समाजसेवी संगठन की पहुंच नहीं वहां हाल क्या है ये वही बता सकता है जो भुक्तभोगी है। भारत और भारतीयों के लिए सीख है कि हमें अपने आप से सीखना होगा कि कैसे किसी विपदा से तैयार रहे हैं। जमाखोरी नहीं करना है बल्कि इसका दूसरा विकल्प खोजना है। इस विकल्प में ऐसे खाद्य पदार्थ एकत्रित करना है जो आसान से ही हमारे लिए उपलब्ध है। जैसे चाय बनाने के लिए चाय पत्ती ना हो तो आप सेवंती के फूल या गुलदाउदी के फूल को सुखा कर चायपत्ती के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। यदि ऐसा संभव ना हो पाए तो घर के गमलों का इस्तेमाल करें एक गमले में अगिया घास लगाएं जो चायपत्ती के जगह इस्तेमाल किया जा सकता है।

विपदा के समय घर के गमले काम आ सकते हैं। इन गमले में केवल फूल और शो पत्ती ना उगाएं। इनका इस्तेमाल हरी सब्जी उगाने के लिए इस्तेमाल करें। किचन गार्डन में केवल गार्डन ना हो फल और सब्जियां उगाएं। गमलों में आप हरी धनिया, हरी मिर्च, लौकी, करेला, गिलकी, सेम, पुदीना, करी पत्ता, आलू, टमाटर जैसी सब्जी उगा सकते हैं। जब आपके घर में खाद्य तेल (edible oil) खत्म हो जाए तो उसका क्या विकल्प है? इसका विकल्प ये है कि दूध से घी बनाना सीखें जो आपका सालभर साथ देगा।

ये छोटी-छोटी चीज हैं जो भारत को विपदा में बचा सकती है। लोग अपने आप को सुरक्षित और जीवन में खुशहाली ला सकते हैं। 

📃BY_vinaykushwaha🙂

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

इतिहास की महान गायिका तीजनबाई

मंच पर रखे दो माइक, छत्तीसगढ़ की पारंपरिक वेशभूषा, एक हाथ में एकतारा और नंगे पैर मंच पर महाभारत के पात्रों को सजीव करती हैं महान तीजनबाई। पंडवानी से लोगों का मन मोह लेने वाली तीजनबाई नहीं... नहीं... डॉ तीजनबाई। छत्तीसगढ़ की लोक नाट्य शैली पंडवानी महाभारत की कथा है। इस कथा को डॉ तीजनबाई मंच जीवित करती हैं, एक बार नहीं कई बार करती है। चाहे दु:शासन वध हो या द्रौपदी चीर हरण सजीव कर देती हैं। तीजनबाई स्वयं कहती हैं कि जब मंच पंडवानी गाती हैं तो लगता महाभारत फिर जिंदा हो गई।

मंच पर पान खाने से हुए लाल दांत लिए जब वे पंडवानी गाती हैं तो आंखें द्रवित और रोम-रोम जाग उठता है। मंच पर योद्धा की तरह अग्रसर बनकर अपनी पुरुष मंडली को दिखाती हैं कि महिला में कितनी ताकत है। बचपन में जब उन्हें पंडवानी गाने के लिए ताने और मां से पिटाई मिलती थी तब ये नहीं पता था कि वे एक दिन वे पहली महिला पंडवानी गायक बनेंगी। पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ते हुए आकाश का तारा बनेंगी।

स्वभाव से बेहद विनम्र डॉ तीजनबाई जमीन से जुड़ी हुई कलाकार हैं। वे मंच से कहती हैं कि मैं अंगूठाछाप हूं मुझे ज्यादा अच्छे से हिंदी नहीं आती, कोई भूल हो जाए तो माफ करना। ऐसे कलाकार को महान कहना न्यायोचित होगा। तीजनबाई का एकतारा कभी भीम का गदा बनता है तो कभी वीणा। एक तारे पर लगे मोरपंख भगवान कृष्ण को इंगित करते हैं। डॉ तीजनबाई  कहती हैं कि पंडवानी उनका जीवन है, बिना पंडवानी के तीजनबाई संपूर्ण नहीं है।

छत्तीसगढ़ के दुर्ग के एक छोटे से गांव से भारत के दूसरे सबसे बड़े सम्मान पद्म विभूषण का सफर तीजनगाथा को बताता है। बिना पढ़े लिखे तीजनबाई से डॉ तीजनबाई का सफर आसान नहीं रहा लेकिन प्रतिभा और कला ने सबकुछ आसान बना दिया। मुझे एक बार महान तीजनबाई के पंडवानी गायन को सुनने का मौका मिला। सच बताऊं तो मेरा अनुभव एक शब्द कहता है अद्वितीय। महाभारत को सुनते ही रोगंटे खड़े हो गए।

तीजनबाई ने अपनी पहली प्रस्तुति दुर्ग के ही एक छोटे से गांव में दी थी। इससे पहले ही उन्हें 10 रूपये प्रोत्साहन मिल चुका था जो तीजनबाई को छुपकर गाने से करके मंच तक खींच लाया। शायद ही लोग जानते हों कि श्याम बेनेगल के भारत एक खोज में भी तीजनबाई हिस्सा रहीं। देश से लेकर विदेश तक अपनी प्रतिभा अलख जगाने वाली तीजनबाई का आज जन्मदिन है। मैं उम्मीद करता हूं कि उन्हें भारतरत्न दिया जाए ताकि हुनर और संघर्ष को असली जगह मिल पाए।

मंच पर रखे दो माइक, छत्तीसगढ़ की पारंपरिक वेशभूषा, एक हाथ में एकतारा और नंगे पैर मंच पर महाभारत के पात्रों को सजीव करती हैं महान तीजनबाई। पंडवानी से लोगों का मन मोह लेने वाली तीजनबाई नहीं... नहीं... डॉ तीजनबाई। छत्तीसगढ़ की लोक नाट्य शैली पंडवानी महाभारत की कथा है। इस कथा को डॉ तीजनबाई मंच जीवित करती हैं, एक बार नहीं कई बार करती है। चाहे दु:शासन वध हो या द्रौपदी चीर हरण सजीव कर देती हैं। तीजनबाई स्वयं कहती हैं कि जब मंच पंडवानी गाती हैं तो लगता महाभारत फिर जिंदा हो गई।

मंच पर पान खाने से हुए लाल दांत लिए जब वे पंडवानी गाती हैं तो आंखें द्रवित और रोम-रोम जाग उठता है। मंच पर योद्धा की तरह अग्रसर बनकर अपनी पुरुष मंडली को दिखाती हैं कि महिला में कितनी ताकत है। बचपन में जब उन्हें पंडवानी गाने के लिए ताने और मां से पिटाई मिलती थी तब ये नहीं पता था कि वे एक दिन वे पहली महिला पंडवानी गायक बनेंगी। पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ते हुए आकाश का तारा बनेंगी।

स्वभाव से बेहद विनम्र डॉ तीजनबाई जमीन से जुड़ी हुई कलाकार हैं। वे मंच से कहती हैं कि मैं अंगूठाछाप हूं मुझे ज्यादा अच्छे से हिंदी नहीं आती, कोई भूल हो जाए तो माफ करना। ऐसे कलाकार को महान कहना न्यायोचित होगा। तीजनबाई का एकतारा कभी भीम का गदा बनता है तो कभी वीणा। एक तारे पर लगे मोरपंख भगवान कृष्ण को इंगित करते हैं। डॉ तीजनबाई  कहती हैं कि पंडवानी उनका जीवन है, बिना पंडवानी के तीजनबाई संपूर्ण नहीं है।

छत्तीसगढ़ के दुर्ग के एक छोटे से गांव से भारत के दूसरे सबसे बड़े सम्मान पद्म विभूषण का सफर तीजनगाथा को बताता है। बिना पढ़े लिखे तीजनबाई से डॉ तीजनबाई का सफर आसान नहीं रहा लेकिन प्रतिभा और कला ने सबकुछ आसान बना दिया। मुझे एक बार महान तीजनबाई के पंडवानी गायन को सुनने का मौका मिला। सच बताऊं तो मेरा अनुभव एक शब्द कहता है अद्वितीय। महाभारत को सुनते ही रोगंटे खड़े हो गए।

तीजनबाई ने अपनी पहली प्रस्तुति दुर्ग के ही एक छोटे से गांव में दी थी। इससे पहले ही उन्हें 10 रूपये प्रोत्साहन मिल चुका था जो तीजनबाई को छुपकर गाने से करके मंच तक खींच लाया। शायद ही लोग जानते हों कि श्याम बेनेगल के भारत एक खोज में भी तीजनबाई हिस्सा रहीं। देश से लेकर विदेश तक अपनी प्रतिभा अलख जगाने वाली तीजनबाई का आज जन्मदिन है। मैं उम्मीद करता हूं कि उन्हें भारतरत्न दिया जाए ताकि हुनर और संघर्ष को असली जगह मिल पाए।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

चलते-चलते (सीरीज 14)

ये लॉकडाउन भी बड़ी अजीब चीज है। इस लॉकडाउन ने या यूं कहें कि कोरोना वायरस ने सारी दुनिया को ही लॉक कर दिया। सड़कें, पार्क, मार्केट को खाली करा दिया। उड़ते हुए मशीनी पक्षी को जमीन पर लैंड करा दिया, ट्रेनों की रफ्तार को विराम दे दिया और बसों के पहिए थाम दिए। लॉकडाउन बड़ी चीज है। मैं  भी इस लॉकडाउन का हिस्सा बन गया हूं। इक्कीस दिन के इस लॉकडाउन ने जीवन जीने का और देखने का नजरिया ही बदल दिया। मैं इस तरह भी कह सकता हूं कि बहुत कुछ बदल गया है।
लोग घरों में कैद हो चुके हैं। कैद भी इस तरह की घरों से बाहर निकलना भी डरावना लगता है। सोशल डिस्टेंसिंग ने तो लोगों के बीच और दूरियाँ बढ़ा दी हैं। पहले जहां छोटी दूरियां थीं और बड़ी-बड़ी हो गई हैं। इस लॉकडाउन में जीवन बड़ा-सा लगने लगा है। दोपहर के दिन वीरान और रात बहुत काली लगने लगी है। दिन की दुपहरिया में तपता गांव आज का शहर बन चुका है। सूरज की रोशनी से तपती सड़कें और उस पर चलते इक्का-दुक्का लोग जीवन तलाशते हुए आगे बढ़ते हैं।

इस लॉकडाउन ने कुछ अच्छी चीज भी दी है जिसमें ये नीला आकाश भी शामिल है। आमतौर पर ये नीला आकाश कहां देखने को मिलता है। आकाश को काले धुएं से भरने वाली ये चिमनियों ने भी जहर उगलना अब बंद कर दिया है। अब आसमान में सफेद बादल और उनके बीच उड़ते पक्षी बचपन वाले दौर की याद दिलाते हैं। अब तो पक्षियों की आवाज भी सुनाई देती है क्योंकि गाड़ियों का शोर कम हो गया है। उजाला सब कुछ बयां करता है, सबकुछ। दिन में आज भी शोर होता है लेकिन ये प्रकृति का शोर है। अब तो केवल दिन में पुलिस और एंबुलेंस की चहलकदमी नजर आती है।

रात भले ही भयानक सी लगने लगी हो लेकिन इस रात में अब वो दम वापस आ गया जो शायद छिन गया था। अनंत तक फैला ये आकाश कहता है कि विशालता मेरा ही दूसरा पर्याय है। तारों को अपनी गोद में खिलाता ये आकाश अब ज्यादा सुनहरा लगता  है जो पहले कहीं गुम हो गया था। बचपन वाले तारे, ढेर सारे तारे और चांद की चमक भी कुछ ज्यादा ही है। अब तो मैं नोएडा के आकाश में सप्तर्षि, कालपुरुष, शर्मिष्ठा, ध्रुव तारे को आसानी से देख पा रहा हूं। शुक्र का चमकीला अंदाज भी मैं देख पा रहा हूं। सुबह का उगता सूरज और डूबता सूरज नारंगी की तरह साफ-साफ दिखाई देता है।

इस लॉकडाउन में प्रकृति ने अपना अलग ही रंग बिखेर दिया है। ऐसा लगता है मानो प्रकृति इंसानी चलुंग से आजाद है और आजाद होकर स्वच्छंद होकर श्वास ले रही है। फूलों को अब कोई छेड़ता नहीं, पत्तियों को अब कोई तोड़ता नहीं, टहनियों को कोई अब खींचता नहीं और पेड़ों को अब झकझोरता नहीं। अब धीरे-धीरे लगने लगा है कि प्रकृति का अलग ही जलवा है। घास फिर अपने मनमाफिक बढ़ने लगी है क्योंकि अब उसे विरोध नहीं झेलना पड़ता। अब सूरज की किरणें भी प्रदूषण की चादर से छनकर नहीं आती, सीधे 15 करोड़ किमी की दूरी तय करके नन्हीं पत्तियों तक पहुंचती है।

पक्षियों ने फिर चहकना शुरू कर दिया है। नीले आकाश में ऊंची उड़ान भरना शुरू कर दिया है। अब केवल कबूतर ही नहीं आकाश में चील, कौआ, कोयल, गौरैया जैसे पक्षी दिखाई देते हैं लेकिन पहले की तरह अब भी रात में चमगादड़ दिखाई देते हैं। नीलगाय को मॉल के पास घूमते देखना हो या बारहसिंगा का हरिद्वार की बस्ती में घूमना एक अलग ही अनुभव है। अब सोसायटी के कुत्ते भी भौंक कर पूछते हैं तुम कौन हो बे?

इस लॉकडाउन ने कई लोगों को मुसीबत में डाला है तो कुछ अच्छा काम भी किया है। प्रदूषण का स्तर उस दर्जे का कम हुआ है जो लोग सपने में सोचते थे कि ऐसा यहां कभी हो सकता है। हां, अब मेरी छत से सुपरनोवा टॉवर, सेक्टर 18 और 16 की बिल्डिंग आसानी से दिख जाती है।

ये आसान नहीं है फिर आसान है।