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रविवार, 28 अक्टूबर 2018

बात केवल जमाल खाशोगी की नहीं है....



प्राचीनकाल में एक राजा अपना संदेश  दूसरे राजा  तक पहुंचाने के लिए अपना दूत भेजता था। दोनों राजाओं में भले ही कितनी भी शत्रुता हो लेकिन दूत को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाई जाती थी। किसी भी प्रकार से दूत को नुकसान नहीं पहुंचाया जाता था। दूत को संदेशवाहक या मैसेंजर के रूप में देखना ठीक होगा। ये मैसेंजर समाचार और जानकारी को एक राज्य से दूसरे राज्य तक पहुंचाते थे। सामान्य जानकारी से लेकर युद्ध जैसी विध्वंस जानकारी भी पहुंचाई जाती थी। आज के दौर में दूत पत्रकार का रूप धारण कर चुके हैं। पत्रकार एक ऐसा प्राणी होता है जो कि दुनिया के सामने खबर को लेकर आता है।

पत्रकार का काम केवल खबरों को सबके सामने लेकर आना बस नहीं है। जो खबर वह लेकर आता है उसका विश्लेषण करना है और नफा-नुकसान के बारे में लोगों को अगाह करना है। पहले जहां पत्रकार स्वतंत्र होकर अपनी पत्रकारिता को अंजाम देते थे वही आज विभिन्न संगठनों से जुड़कर समाचारों का आदान-प्रदान किया जाता है। इस समय खबरों का दायरा बढ़ गया है और विविधता भी आई है। इसी कारण पत्रकारिता करने के तौर-तरीके भी बदले हैं। जहां पहले पत्रकारिता केवल समाचारपत्रों तक सीमित थी वही आज इसका दायरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया तक फैल चुका है। एक बात जो पुराने समय से आजतक नहीं बदली है वह जान का खतरा।

पुराने समय में जहां लेख लिखने पर सरकार आपको जेल में डाल देती थी क्योंकि उसमें सरकार और उनके नेताओं की आलोचना होती थी। आपातकाल के समय सरकार ने कुछ इसी तरह का काम किया था। प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी थी‌। पत्रकारों को सरकार के अनुरूप लिखना पड़ा था। जिन पत्रकारों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई उनकी कलम की नोंक को तोड़ दिया गया। साल 1977 की तुलना वर्नाकुलर प्रेस एक्ट से करना बाजिव होगा। अंग्रेजी हुकूमत ने अखबारों को केवल इंग्लिश में लिखने की इजाजत दी थी। इंग्लिश में लिखने की इजाजत मतलब यह था कि किसी अन्य भारतीय भाषा में लिखने से आपको गैर-कानूनी समझा जाता था। इस पूरे वर्नाकुलर प्रेस एक्ट का सार यह था कि तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने पत्रकारिता में अन्य भाषाओं पर बैन इसलिए लगाया था ताकि वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ छापी जा खबरों पर नियंत्रण लगाया जा सके। इंग्लिश में लिखने से किसी भी गंभीरता को जल्दी से पकड़ा जा सकता था।

इसी एक्ट के कारण कई अखबारों ने खुद को रातों-रात स्थानीय भाषा से इंग्लिश में बदल लिया। इन अखबारों में बंगाल का अमृतबाजार पत्रिका शामिल है। अमृतबाजार पत्रिका ने इंग्लिश में लिखने के बावजूद आलोचना करना नहीं छोड़ा।  दो सम्पादकीय  'टु हूम डज इण्डिया बिलांग?'  और 'अरेस्ट ऑफ मिस्टर गांधी : मोर आउटरेजेज? इंग्लिश में छपे। इन्हीं सम्पादकीय के कारण समाचार पत्र की सम्पादकीय फीस जब्त कर ली गई। इस तरह पत्रकारिता ने अपना जीवन जिया है। इस घुटन भरे समय में पत्रकारिता करना दुष्कर था पता चलता है। 1878 और 1977 में 99 साल का अंतर है लेकिन बात वहीं की वहीं है। तब भी सत्ता डरती थी और आज भी डरती है। साल 1878 में किसी तरह का कोई तंत्र नहीं था लेकिन 1977 में लोकतंत्र होने के बावजूद पत्रकारिता राजतंत्र में जी रही थी।

भारत में आपातकाल लागू हुए 41 साल हो चुके हैं और आज भी पत्रकारिता का भय काल बनकर सत्ता को डराता है। आज भी कई ऐसे मामले सुनने में आते हैं जो कि डरा देने वाले होते हैं। पत्रकारों को जान से मारा जा रहा है। राजदेव रंजन हत्याकांड एक बेहद ही चौंका देने वाला हत्याकांड रहा है। इसने न केवल पत्रकारिता का गला नहीं घोंटा बल्कि पत्रकारिता को तिल-तिलकर मरने पर मजबूर किया। समाचार का सार न बताने पर इस तरह मारना वीभत्सता है। इन सबमें सबसे बड़ी बात यह है कि राजनेताओं का इन सब में हाथ होना है। इसी साल की खबर है जब जून 2018 में  शुजात बुखारी की हत्या कर दी गई। शुजात अंग्रेजी अखबार 'राइजिंग कश्मीर' के प्रधान संपादक थे। उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई। वे कश्मीर में स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने और शांति बहाल करने में लगे हुए थे। इस बात से किसको दिक्कत होगी कि वे इस तरह का एक शानदार काम रहे थे।

पत्रकारों की जमात में कुछ जयचंद भी होते है जो आसमान में कलंक की तरह होते हैं। शासन और प्रशासन की चाटुकारिता में तल्लीन होते हैं ताकि अपनी साख बनाए रखें और लंबी पारी खेल सकें। कुछ पत्रकार अडिग होते जो किसी लालच के बिना काम करते हैं। इन्हीं पत्रकारों पर सबसे ज्यादा मुसीबतें आती है। पत्रकारों का काम केवल अब खबरों का प्रकाशन मात्र नहीं रह गया है। इन सबसे आगे खबरों पर चर्चा और विश्लेषण एक बड़ा भाग बन चुका है। इसमें भी सरकार को समस्या है। इसी समस्या के कारण कुछ टीवी चैनलों को परेशान किया जा रहा है। पत्रकारों और संपादक को चैनल से बाहर निकलवाया जा रहा है। चैनलों पर एक अजीब तरह की सेंसरशिप लगी हुई है जिसमें लोग काम कर रहे हैं। जीवन जीने का माध्यम बन चुकी पत्रकारिता अब भी जीवंत है। सरकार के मन मुताबिक काम न करने पर चैनल को ब्लैक आउट करने की परंपरा बन गई है। यह कितना सही है और गलत यह समझने में किसी को देर नहीं लगेगी।

जर्मनी की एक प्रसिद्ध पत्रिका 'शार्ली एब्दो' पर आतंकियों ने 2015 में हमला कर दिया। इस हमले ने 12 लोगों की जान ले ली। इल्जाम लगा अलकायदा पर। पत्रिका की गलती केवल इतनी थी कि उसने व्यंग्य के लिए मोहम्मद साहब का कार्टून बना दिया। इससे घबराए लोगों ने पत्रिका के ऑफिस हमला बोल दिया। यह कितना सही है कि आपको जो अच्छा न लगे उसे हटा दें। विकल्प हमेशा मौजूद हैं। पाकिस्तान में ईशनिंदा के नाम पर जाने कितने पत्रकार भेंट चढ़ गए। कुछ साल पहले बांग्लादेश में ब्लॉगर्स का कत्ल-ए-आम चल रहा था। इस कत्ल-ए-आम में उन ब्लॉगर्स को निशाना बनाया गया जो कि सरकार के खिलाफ लिख रहे थे। इन ब्लॉगर्स को अपनी जान देकर पत्रकारिता का धर्म निभाना पड़ा।

दुनिया भर में इस तरह के किस्से हैं। चीन एक ऐसा देश है जहां सरकार तय करती है कि मीडिया में किस तरह का कंटेंट जाएगा। एक बार बीजिंग एयरपोर्ट पर एक बम ब्लास्ट हुआ जिसकी खबर कई घंटों तक मीडिया में नहीं आ पाई उसका कारण यह था कि यदि यह खबर मीडिया में आ जाती तो सरकार पर सुरक्षा लिहाज से अंगुली उठती। इसके अलावा चीन में केवल मेनस्ट्रीम मीडिया पर ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया और माइक्रोब्लॉगिंग साइट पर भी कड़े प्रतिबंध लगाकर रखें गए हैं। इन प्रतिबंधों का कारण है कि लोगों पर निगरानी रखना है। चीन के पश्चिमी प्रांत शिंजियांग में उइगुर मुस्लिमों पर अत्याचार के किस्से जगजाहिर है। इसी साल चीन ने चार पत्रकारों को चीन का वीजा नहीं दिया। वीजा न देने का कारण था वे शिंजियांग प्रांत जाकर वहां की ग्राउंड रिपोर्ट करना चाहते थे। इन चार पत्रकारों में भारतीय मूल की अमेरिकी पत्रकार मेघा राजगोपालन भी थी।

मिस्त्र की क्रांति के समय कई पत्रकारों को इजिप्ट आने से रोक दिया गया था। इन पत्रकारों में सबसे कड़वा अनुभव अल-जजीरा का है। इसका कारण यह था कि अल-जजीरा ने कई सच को उजागर किया था। अल-जजीरा हमेशा से निशाने पर रहा है। चाहे अमेरिका हो या मध्य-पूर्व उसे सभी ने हाथोंहाथ लिया है। अल-जजीरा को तो अपना अमेरिका स्थित ब्यूरो ऑफिस ही बंद करना पड़ा। कतर का यह चैनल दुनिया भर में मशहूर है कारण साफ है पत्रकारिता की धार। कतर पर 2017 में छह मध्य पूर्व के देशों ने प्रतिबंध लगाए थे और राजनयिक संबंधों को तोड़ने के साथ-साथ अल-जजीरा पर भी प्रतिबंध लगा दिया था।

पत्रकारिता जगत को इस साल की सबसे बड़ी दुर्घटना का सामना करना पड़ा। जमाल खाशोगी की हत्या। जमाल सउदी अरब मूल के अमेरिकी पत्रकार थे। उन्हें केवल इसलिए मरवा दिया गया क्योंकि वे शाही परिवार की आलोचना कर रहे थे। परिवार के गलत निर्णयों के खिलाफ लिख रहे थे। लिखने की सजा उन्हें जान गवांकर  देनी पड़ी। सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी हत्या न तो अमेरिका में हुई और न तो सउदी अरब में हुई। उनकी हत्या तुर्की में सउदी अरब के दूतावास में हुई। उनकी हत्या से पत्रकारिता जगत स्तब्ध है। सउदी अरब और तुर्की दोनों हत्या पर राजनीति कर रहे हैं। हत्या का इल्जाम सउदी अरब पर जा रहा है क्योंकि जब जमाल ने सउदी दूतावास के अंदर गए तो दुबारा नहीं लौटे। यहां तक उनका शव भी नहीं मिला। ऐसा तो कभी हो नहीं सकता कि तुर्की को इस हत्या के बारे में जानकारी न हो। उसके देश में दो प्राइवेट प्लेन से हत्यारे आते हैं और हत्या करके चले जाते हैं। इसका पता तुर्की को न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता ।

अब यह मुद्दा केवल जांच का नहीं रह गया है। यह मुद्दा पत्रकारिता और पत्रकारों को बचाने का भी है। आने वाला समय किसने देखा है परंतु पत्रकारिता जीवित रहे यह मेरी आस है।

📃BY_vinay Kushwaha

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2018

इलाहाबाद और भी हैं...

भारत एक शानदार देश है। इसकी महानता इसकी विशालता और विविधता से दिखाई पड़ती है। भारत कोई एक झटके में बनने वाला देश नहीं है। इसने कई उतार-चढ़ाव देखें हैं। भारत का नाम शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पड़ा। भारत को और भी अनेक नामों से जाना जाता था और है। इन नामों में आर्यावर्त, जम्बूद्वीप जैसे नाम हैं। भारत को भारत आज कितने लोग बोलते हैं? यह सवाल  नहीं बल्कि भारत सरकार के लिए एक बड़ा सवाल है। अंग्रेजों के आने के बाद भारत इंडिया बन गया। वास्कोडिगामा ने भारत की खोज नहीं की थी बल्कि इंडिया की खोज की। भारत को उसके बाद से इंडिया नाम से नाम भी जाना जाने लगा। आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत इंडिया है न कि भारत। यह हमारी बिडंबना है कि भारत, भारत में है और भारत से बाहर इंडिया। हमारे देश के कुछ अंग्रेजीदां लोग भी भारत की एवज में इंडिया ही बोलते हैं।

नामकरण संस्कार सोलह संस्कारों में से एक महत्वपूर्ण संस्कार है। जब बच्चा बड़ा होने लगता है तो उसे नाम की जरूरत होती है। नामकरण संस्कार इसी का कारण किया जाता है। इसी तरह किसी देश, राज्य और शहरों का नामकरण किया जाता है। किसी भी जगह का नामकरण उसके इतिहास, भूगोल, राजनैतिक कारण, व्यक्तिगत योगदान आदि पर निर्भर करता है। ताजा विवाद इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज रखने को लेकर है। इलाहाबाद उत्तरप्रदेश का एक महत्वपूर्ण शहर है।  इसका इतिहास कई दशकों का नहीं बल्कि कई युगों का है। यहां मनु के वंशज पुरुरवा एल का उल्लेख मिलता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने यह कहते हुए नाम बदल दिया कि इलाहाबाद का पुरातन काल से नाम प्रयागराज ही था। एक और कारण बताया कि क्या आपका(मनुष्य) एक बार नामकरण करने बाद नाम बदला जाता है? नहीं बदलते तो फिर शहर का नाम क्यों? इसके अलावा इलाहाबाद का इतिहास भी हवा में तैर गया कि इसका नाम अकबर ने इलाहाबाद में बदल दिया था। इलाहाबाद का अर्थ निकाला गया कि अल्लाह का आबाद किया हुआ।

आज मैं एक लेख पढ़ रहा था जिसमें इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करने को लेकर कटाक्ष किया गया था कि इलाहाबाद का अर्थ अल्लाह का आबाद शहर नहीं है। इसका कुछ और ही अर्थ होता है। उस लेख में इलाहाबाद का संबंध मनु की बेटी इला से जोड़ा गया। उसमें यह बताया गया कि इलाहाबाद का पहले नाम इलावास था। इलावास बाद में इलाहाबाद बन गया।

नाम बदलने की परंपरा कोई नहीं है। इसमें राजनीतिक प्रभाव ज्यादा रहा है। भारत में शहरों से लेकर राज्यों तक के नामों को बदला गया है। अंग्रेजों के समय मुंबई का नाम बॉम्बे था जो बाद में बंबई हो गया और आखिरी में मुंबई रखा गया। मुंबई रखने पीछे कारण दिया गया मुंबा देवी। मुंबा देवी के नाम पर मुंबई का नामकरण किया गया। केवल मुंबई ही नहीं और भी कई ऐसे शहर है जिनके नाम बदले गए। लोगों की भावना को बरकरार रखने के लिए तुष्टिकरण के लिए आदि। कोलकाता का पुराना नाम कलकत्ता था। कलकत्ता नाम अंग्रेज उपयोग किया करते थे। मद्रास का नाम चेन्नई किया गया। बंगलौर से बंगलुरू हो गया, त्रिवेंद्रम से तिरूवनंतपुरम हो गया, मैसूर , मैसूरू हो गया, पूना से पुणे हो गया। यह सब कुछ एक रात में नहीं हुआ। इन सबके पीछे बात यह थी कि अंग्रेजों की सोच को पीछे छोड़ना चाहते थे। लेकिन हमारे साथ दिक्कत है कि हम भावनाओं में बह जाते हैं।

इससे पहले गुड़गांव का नाम गुरुग्राम करने पर खूब विवाद हुआ लेकिन आखिरकार नाम बदल दिया गया। अब सवाल यह उठता है कि क्या बाकि शहरों का नाम भी बदला जाएगा। मथुरा को मधुपुर कहा जाएगा? कानपुर को कर्णनगरी? लखनऊ को लक्ष्मणावती? कर दिया जाएगा? इस सारे विवाद में वे शहर भी शामिल हैं जो अपने पुराने नामों से पहचाने जाने चाहिए। अजमेर को अजयमेरु, जैसलमेर को जैसलमेरु, अहमदाबाद को कर्णावती, भोपाल को भोजपाल, हैदराबाद को भाग्यनगर, इंदौर को इंदुर, भुवनेश्वर को बिंदु सरोवर, मेरठ को मयराष्ट्र, जबलपुर को जबआलीपुरम, दमोह को तुंडीकेर कर देना चाहिए। क्या यह संभव है? परंपरा और पुरातन व्यवस्था के आधार पर नाम बदलना कहां तक उचित है। क्या सरकार में हिम्मत है कि वह दिल्ली का नाम इंद्रप्रस्थ और पटना का पाटिलीपुत्र करके दिखाए।

राज्यों का नाम भी समय-समय पर बदला गया। उत्तरांचल को उत्तराखंड कर दिया। उड़ीसा को ओडिशा कर दिया। क्या असम का नाम भी प्रागज्योतिष रखा जाएगा? महाभारत में असम का उल्लेख प्रागज्योतिष‌ के नाम से मिलता है। इसके अलावा छत्तीसगढ़ का रामायण में दंडकारण्य के नाम से उल्लेख मिलता है।

सरकार को नाम बदलने से बढ़िया है कि काम करें। लोगों का हित देखे। लोगों के जीवन में समृद्धि आए ऐसे काम करें। नाम बदलना सरकार काम नहीं है। जब जनता चाहेगी तब नाम बदल जाएगा। सरकार को नामकरण को ट्रेंड नहीं बना लेना चाहिए। छत्तीसगढ़ सरकार की तरह नया रायपुर का बदलकर अटल नगर कर दिया। इतिहास गवाह है कि सत्ता जिसके हाथ में रही है उसने अपने पूर्व की सत्ता की बातों को पलटा है। 

पुराने समय से लेकर आज तक इतिहास उठाकर देखिए एक शहर कितने नामों से जाना गया है। एक शहर के कम से कम दो नाम जरुर मिलेंगे। जब मुस्लिम आक्रमणकारी आए तो उन्होंने अरबी और फारसी वाले खूब नामकरण किए। लगभग सारे बाद वाले शहर इन्हीं की देन है। मुगलों के बाद अंग्रेज,डच, फ्रांसीसी, पुर्तगाली आए तो इन्होंने अपनी भाषा में शहर का नाम रखा। इसके बाद सुविधानुसार शहर का नाम बदलते गए और शहर भी।

📃BY_vinaykushwaha