तारीख तो याद नहीं लेकिन साल अच्छी तरह याद है वह था 2014 । शहर था इंदौर जिसे मिनी मुंबई के नाम से जाना जाता है। इंदौर के बापट चौराहे से मुश्किल 200 किमी दूर स्थित आनंद मोहन माथुर सभागार में पंडित विजयशंकर मेहता का सुना तो लगा मानो कुछ नया सुनने को मिला। कपड़े देखकर लगता है कि मानो कोई व्यक्ति धर्मोपदेश देने वाला है लेकिन उसने मैनेजमेंट की गुर बताने शुरू किए। वो उपाय इतने सरल की जीवन में उतारना बेहद आसान। पहली बार मैंने अकेले किसी व्यक्ति को सुनने का इतना साहस किया। साहस ऐसा कि अब तो कुछ बातें मन में घर कर गईं।
उस सभागार में बैठे कुलीन लोगों में शायद कमतर नहीं था लेकिन उनकी तरह इस तरह के व्याख्यानों के लिए आदि भी नहीं था। उन कुलीन लोगों में अफ्रीका और यूरोप से पहुंचे लोग भी थे जो फर्राटेदार हिंदी बोल रहे थे और अंग्रेजी को हिंदीयत बता रहे थे। उस समय मैं इंदौर में रहकर राज्य सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहा था। मन में ढेर सारे सपने थे क्योंकि इससे पहले केवल मैंने सपने बुने थे, संजोए थे, देखे थे परंतु जीये नहीं थे। जीवन में तरह-तरह के लोगों को देखा नहीं था, कम से कम अकेले तो नहीं।
हां तो मैं बात कर रहा था पंडित विजयशंकर मेहता की बातें की। बैंक की सरकारी नौकरी छोड़ी, पत्रकारिता में हाथ जमाया लेकिन फिर आध्यात्म की ओर मुड़ गए। आध्यात्म से फिर कुछ इस तरह लगाव हो गया कि भगवान हनुमान को मैनेजमेंट गुरु बना लिया। हमारे हनुमान को वे इस तरह से मानते है कि सारी समस्याओं का समाधान भगवान हनुमान के पास है। जिस दिन मैंने उन्हें सुना उसी दिन उन्होंने एक किताब का जिक्र किया जिसका नाम था 'मेरा प्रबंधक मैं'। पहले तो मैंने सोचा इस किताब को पढ़ा जाएगा लेकिन मेरा मन हमेशा की तरह जांच पड़ताल वाला रहा है। मैंने पंडित के बारे में जानना शुरू किया पता चला कि मेरा दोस्त उन्हीं का शिष्य है। फिर मैंने ढेर सारी बातें पूछ डाली लेकिन जिज्ञासा फिर भी शांत नहीं हुई। मुझे लगा शिष्य है भला गुरु के बारे में गलत क्यों बोलेगा।
मेरी खोज इंटरनेट पर शुरू हुई यहां ज्यादा कुछ तो नहीं लेकिन किताबें जरूर मिलीं। इन किताबों में मेरा प्रबंधक मैं जरूर मिली। बहुत बार मिली। कई बार मिली। स्टेशन के स्टॉल पर मिली। किताबों की दुकान पर मिली। लोगों के हाथ में मिली। ई-कॉमर्स वेबसाइट में भी मिली। साल बीतते गए। एक फिर दो फिर तीन.... ऐसे करते हुए छह साल हो गए। मैं भी जगह और शहर बदलता गया। इंदौर से नोएडा आ गया। दिल्ली अब दूर नहीं का नारा शायद साल 2020 में ही पूरा होना था। इंटरनेशनल बुक फेयर 2020 में जब ये किताब मिली तो लगा अब बस मुझे इसे खरीद ही लेना चाहिए। किताब तो खरीद ली लेकिन जॉब वाली लाइफ में और ऊपर से मुझ जैसा आवारा। कैसे इतनी जल्दी किताब पूरी कर पाता। पूरे पांच महीने 15 दिन बाद किताब आखिरकार पढ़ ही ली।
शुरुआत में किताब अन्य साधारण किताब की तरह लगी। लगा छोड़ दूं लेकिन धीरे-धीरे पढ़ता गया और किताब को मात्र आधे घंटे में खत्म कर दी। मात्र 58 पेज की ये किताब जरूर बहुत छोटी है लेकिन साधारण तो बिल्कुल नहीं। मुझे ऐसा लगता है कि यदि हम किसी व्यक्ति पर भरोसा नहीं करते तो ना करें लेकिन हम उसके लिखे हुए को पढ़ तो सकते हैं। पंडित विजयशंकर मेहता कैसे व्यक्ति हैं मुझे नहीं मालूम। मैं उनसे व्यक्तिगत तौर पर जरूर मिला हूं परंतु नहीं कह सकता कैसे हैं? किताब मेरा प्रबंधक मैं आपको राह दिखाती है। मोटिवेट करती है। नकारात्मक से सकारात्मक की ओर ले जाती है। आपको ब्राइट से ब्राइटर बनाने के गुर बताती है।
परिवार, दोस्त और स्वयं का मूल्य बताने वाली ये किताब हमें स्वयं से जरूर मिलवाती। टाइम मैनेजमेंट कैसे किया जाता है ये किताब बताती है। निजी, पारिवारिक, सामाजिक और व्यावसायिक क्रम को व्यवस्थित रखना सिखाती है। किताब आपको पढ़ना है या नहीं ये आपको तय करना है लेकिन किताब कैसे पढ़ना है ये भी आपको तय करना है। जीवन के आयाम बताने वाली इस किताब को मैंने आखिरकार पढ़ ही लिया।