साल 2008 के अक्टूबर का महीना अभी बस कुछ महीने पहले ही 15 साल का हुआ था। ये वो समय था जब अखबार के कुछ पन्ने रंगीन के साथ-साथ ब्लैक एंड व्हाइट पन्ने भी आया करते थे। मुझे शुरू से ही अखबार का फ्रंटपेज और लास्ट पेज अच्छा लगता था। इसके दो कारण थे एक देश, दुनिया और राज्य की बड़ी खबरें इन्हीं पन्नों में होती हैं और दूसरा कारण इनका रंगीन होना। इसी महीने एक खबर छपी कि एक भारतीय मैन बुकर प्राइज मिला है। मैन बुकर कॉमनवेल्थ देशों से संबंध रखने वाले लेखकों को मिलता है जिन्होंने इंग्लिश भाषा में उपन्यास लिखा हो।
साल 2008 का मैन बुकर प्राइज अरविंद अडिगा को "द व्हाइट टाइगर" के लिए मिला था। तब मेरे मन में इस किताब को पढ़ने की इच्छा हुई। उस समय मैं इस उपन्यास के बारे में सोचता था कि ये किसी सफेद बाघ के विषय में होगी। इसके बाद कई बार अरविंद अडिगा का सुना और पढ़ा। द व्हाइट टाइगर पढ़ने की कई बार इच्छा हुई लेकिन 12 साल बाद मुझे पढ़ने का मौका मिला। इस किताब को पढ़कर ऐसा लगा मानो कुछ नया सा हो। यदि किसी कालजयी रचना रचने वाले से तुलना न करें तो हमें इसे पढ़ने में और मजा आएगा।
इस किताब की बात करूं तो इस उपन्यास का मुख्य किरदार बलराम है। बलराम, जिसका बचपन गरीबी में बिता। गरीबी के कारण के उसे स्कूल की पढ़ाई छोड़कर अपने पिता की लक्ष्मणगढ़ वाली चाय की दुकान पर काम करना पड़ा। दुकान पर उसे काम मिला कोयला तोड़ने का। इन सबके पीछे उसकी दादी कुसुम थी जो उसके संयुक्त परिवार की सर्वेसर्वा थी। बलराम अपनी दादी के बारे में क्या सोचता था उसे एक शब्द बयां करूं तो वो है खडूस। अरविंद अडिगा के इस उपन्यास का मुख्य किरदार बलराम भले पढ़ा लिखा न हो लेकिन हर समय उसके मन विचार कौंधते रहते हैं।
इस उपन्यास में बलराम अपनी कहानी बयां करता है। सात भागों बंटा ये उपन्यास सात रातों की कहानी है जो बलराम के जीवन में घटित घटनाओं का बयां करता है। हर रात की शुरुआत चीन के प्रीमियर बेन जियावाओ को खत लिखने से शुरू होती है और सुबह होने से पहले खत्म हो जाती है। उपन्यास में बलराम एक ऐसा किरदार है जो गांव की गरीबी से निकलकर शहर की चकाचौंध के बीच पहुंचता है।
उपन्यास में गांव का वर्णन और शहर का वर्णन बहुत ही धुंआधार तरीके से किया गया या यूं कहूं कि लेखक ने जाली का एक-एक कोना निहारा है। आप जब बलराम को गांव में रहते हुए पढ़ते हैं या शहर में रहते हुए आपको महसूस होगा कि आप वहीं बलराम के आसपास। असलियत में इस उपन्यास का नाम द व्हाइट टाइगर , बलराम को ही कहा गया है। जब बलराम स्कूल में पढ़ता था तब वहां निरीक्षण के लिए शहर से अधिकारी आया। अधिकारी ने बलराम से जितने भी सवाल पूछे उसके सही जवाब मिले। अधिकारी ने खुश होकर बोला जैसे कई सदियों में एक जानवर है व्हाइट टाइगर वो तुम हो।
इस किताब की सीधी सपाट कहानी देखी जाए तो ये है कि बलराम गरीब परिवार में जन्म लेता है। पिता पेट पालने के लिए चाय की दुकान चलाते हैं। दुकान से हुई आमदनी दादी कुसुम को सौंपी जाती है। कुसुम ही घर चलाती है। बलराम के पिता के टीबी हो जाती है जिसके कारण उनकी मृत्यु हो जाती है। इसके बाद रोजीरोटी के लिए धनबाद जाता है जहां वो ड्राइविंग सीखता है और ड्राइवर बन जाता है। यहीं वो ड्राइवर की नौकरी करने लगता है। यहीं बलराम की जिंदगी में मोड़ आता है। मालिक बेटा जो अमेरिका है मिस्टर उसे अपने साथ दिल्ली ले जाता है। यहां बलराम बहुत सारे बदलाव आते हैं। एक तरीके से कहा जाए तो वह एडजस्ट करता है।
यहां बलराम दिल्ली और गुरुग्राम के झूलता रहता है। सेक्स, शराब और पैसा से भरी जिंदगी भी वो यहीं देखता है। एक दिन वो मिस्टर अशोक को मारने का प्लान बनाता है। दिल्ली की सुनसान सड़क पर आखिरकार मारकर बेंगलुरु भाग जाता है। इसके साथ ही वो 7 लाख से भरा बैग भी लेकर भाग जाता है। बेंगलुरु जाकर स्टार्ट अप शुरू करता है। अपना नाम रखता है अशोक शर्मा। आप सोच रहे हैं कि बलराम ने अशोक को क्यों मारा? क्योंकि मिस्टर अशोक और उसके पिता ने गरीबों से इकट्ठा किया हुआ पैसा घूस के रूप में नेताओं को दिया ताकि उनकी कोयले की खदान चलती रहे। बलराम के मन उन लोगों का ख्याल आया जो उसके तरह थे गरीब।
अरविंद अडिगा ने गांव से शहर तक, शहर से लेकर शहर तक, गरीब से लेकर अमीर तक, व्यवसायी से लेकर नेता तक, नेता से लेकर सेक्स, सेक्स से लेकर अनुभव तक और हत्या से लेकर प्रसिद्धि तक जो वर्णन किया है वो बेमिसाल है। कहानी शुरू से लेकर आखिर तक आपको बांधे रखती है।